स्वनिम के सम्बंध में सहायक सिद्धान्त ।Swanim Ke Sahyak Sidhant
स्वनिम के सम्बंध में सहायक सिद्धान्त
स्वनिम के सम्बंध में सहायक सिद्धान्त
स्वनिम के अध्ययन के संदर्भ में निम्नलिखित सिद्धांत सहायक हो सकते हैं -
1. वितरण का सिद्धान्त
- भाषा के स्वनिम और सहस्वन के अध्ययन में वितरण का सिद्धान्त सर्वाधिक विश्वसनीय आधार है। स्वनिम विज्ञान के नियमानुसार जो ध्वनियाँ परिपूरक वितरण के अन्तर्गत आती हैं, उन्हें एक ही स्वनिम के सहस्वन के रूप में रखना चाहिए। इसके विपरीत जो ध्वनियाँ व्यतिरेकी वितरण में आयें उन्हें स्वतंत्र स्वनिम के रूप में रखना चाहिए। परिपूरक वितरण का स्वरूप सहअस्तित्व की भावना के समान है। जैसे एक परिवार के विविध सदस्य परस्पर विरोधी नहीं होते, उसी प्रकार सहस्वन भी एक दूसरे के अविरोधी होते हैं। उसके अपने क्षेत्र निर्धारित और सुनिश्चित होते हैं।
- इसके विपरीत स्वनिम व्यतिरेकी होते हैं अर्थात वे एक दूसरे के पूरक नहीं होते। जैसे ‘काली’ और ‘गाली’ शब्द में 'क' और 'ग' स्वनिम एक दूसरे से बिलकुल भिन्न हैं। यही इनकी अर्थ भेदकता का आधार है।
2. ध्वन्यात्मक समानता का सिद्धान्त
- जैसा कि आप जानते हैं कि ध्वनि विज्ञान में अभ्यंतर प्रयत्न और बाह्य प्रयत्न के आधार पर स्वर-व्यंजन के स्वरूप निर्धारित किए जाते हैं। स्वनिम के निर्धारण में यही सर्वाधिक मान्य और विश्वसनीय कसौटी है। इसके अनुसार समान उच्चारण स्थान और समान प्रयत्नों द्वारा उच्चारित दो ध्वनियों को एक ही स्वनिम परिवार का सहस्वन माना जा सकता है। स्थान और प्रयत्न में से किसी एक के भिन्न होने पर भिन्न उच्चारणहोता है। इस आधार पर स्वनिम भी भिन्न हो जाता है। उदाहरण के लिए कान, नकल और अंकित शब्दों की 'क' ध्वनि को देखें। इनमें प्रयुक्त क1, क2 और क3 के उच्चारण में अन्तर होने के बावजूद ये तीनों कोमल तालव्य, अघोष और अल्पप्राण स्पर्श ध्वनियाँ हैं। इस कारण ये तीन सहस्वन हैं, भिन्न स्वनिम नहीं।
- इसके विपरीत काली, गाली, खाली, शब्दों में प्रयुक्त क, ग, ख ध्वनियाँ भिन्न-भिन्न स्वनिम हैं क्योंकि कोमल तालव्य होने के बावजूद वे बाह्य प्रयत्न की दृष्टि से भिन्न है। ‘क’ अघोष अल्पप्राण है, 'ख' अघोष महाप्राण तथा 'ग' घोष महाप्राण है।
3. ध्वन्यात्मक संदर्भ का सिद्धान्त -
इस सिद्धान्त के अनुसार जो स्वन शब्द के आदि, मध्य और अंत में सभी ध्वन्यात्मक संदर्भों में आए उसे सहस्वन मानना चाहिए। हिन्दी के अनुनासिक व्यंजनों की इस कसौटी पर जाँचें तो निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं -
'न' व्यंजन -
शब्द के आदि में -नर, नाक, नीर, नीम
शब्द के मध्य में -अनेक, अनामिका, अनिश्चित, अनहद
शब्द के अंत में -पवन, दमन, दिन, दान
स्वरों के साथ - नर (अ), नाम (आ), निर्भय (इ), नीला (ई), नुकसान (उ), नेह (ए), नैहर (ऐ), नोंक (ओ), नौका (औ)
संयुक्त व्यंजन में - न्याय, अन्वेषण, आसन्न
'म' व्यंजन -
शब्द के आदि में -मछली, मकान, माया, मोह समान, अमीन
शब्द के मध्य में
शब्द के अंत में -सोम, काम, नीम
स्वरों के साथ -मत (अ), माल (आ), मिलन (इ), मीत (ई), मूक (उ), मेल (ए), (ऐ), मोल (ओ), मौसम (औ)
संयुक्त व्यंजन में - म्लान, साम्य, काम्य
द्वित्व व्यंजन में -सम्मान, सम्मेलन, सम्मोहन
‘ण' व्यंजन -
शब्दों के आदि में -प्रयोग नहीं होता है।
शब्दों के मध्य में -परिणय, प्रणय, प्रणाम
शब्द के अंत में -दर्पण, श्रवण, क्षण
अनुस्वर के विकल्प के रूप में -कण्ठ, मण्डल, पण्डाल
- नासिक्य व्यंजनों में ‘ङ' तथा 'भ' का प्रयोग वाङमय, चञ्चल, प्रत्यञचा आदि में सीमित रूप में होता है। इस प्रकार इन नासिक्य व्यंजनों को 'न' स्वनिम का सहस्वन माना जा सकता है।
4. ध्वन्यात्मक ढाँचे का सिद्धान्त -
- हर भाषा का अपना ध्वन्यात्मक ढाँचा होता है जिसके आधार पर उसके भाषा के स्वनिम निर्धारित कर सकते हैं। जैसे हिन्दी में स्वर- व्यंजन है। प्रत्येक व्यंजन में उच्चारण स्थान के आधार पर कवर्ग, को कोमल तालव्य, चवर्ग को तालव्य, टवर्ग को मूर्धन्य, तवर्ग को दंत्य और पवर्ग ओष्ठ्य है। इसके बाद य तालव्य, ‘र’ ‘ल’ वर्त्स्य, ‘व’ दंत्योष्ठ, ‘श’, ‘ष’ तालव्य, 'स' मूर्धन्य और 'ह' कंठ्य है। इस तरह हिन्दी ध्वनियों का एक सुव्यवस्थित ढाँचा है। इस सिद्धान्त से हिन्दी भाषा से अपरिचित व्यक्ति भी भाषा में स्वनिमों की पहचान कर सकता है। यद्यपि ध्वन्यात्मक ढाँचे का सिद्धान्त ध्वन्यात्मक समानता के सिद्धान्त की तरह पूरी तरह से विश्वसनीय नहीं माना गया है।
5. अधिक भेद और अभेद का सिद्धान्त -
- यह एक व्यावहारिक सिद्धान्त है। इसे मितव्ययता का सिद्धान्त भी कहा जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार स्वनिमों के निर्धारण में यह सावधानी रखने की आवश्यकता होती है कि हम किसी सहस्वन को स्वनिम मानकर उसके अधिक भेद न निर्धारित कर लें अथवा किसी स्वनिम को सहस्वन मानकर स्वनिम के कम भेद न बना लें। इस सिद्धान्त का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें अध्ययनकर्ता के विवेक को अधिक महत्व देते हुए स्वनिम निर्धारण की कोई सर्वमान्य मानक कसौटी नहीं प्रस्तुत की गई है।
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