बालाजी बाजीराव ( 1740-61) |Balaji Baji Rao Ki Jaankari

 बालाजी बाजीराव ( 1740-61)  Balaji Baji Rao Ki Jaankari

 

बालाजी बाजीराव ( 1740-61) |Balaji Baji Rao Ki Jaankari


बालाजी बाजीराव ( 1740-61) 

  • इस समय तक पेशवा पद पैतृक बन गया था। जब 1740 में बाजीराव की मृत्यु हुई तो शाहू ने बालाजी बाजीराव को इस पद पर नियुक्त कर दिया। इस से पूर्व ही शक्ति छत्रपति के हाथ में केन्द्रित न रह कर बाजीराव प्रथम के हाथों में आ चुकी थी। 


  • 1750 में होने वाली संगोला संन्धि के अनुसारसंवैधानिक क्रांति द्वारा यह प्रक्रिया पूरी हो गई। इसके पश्चात मराठा छत्रपति केवल नाममात्र के राजा रह गए और महलों के महापौर (Mayor of the Palace) बन गए। मराठा संगठन का वास्तविक नेता पेशवा बन गया।

 

  • बालाजी बाजीराव ने अपने पिता के अपूर्ण कार्य को पूरा करने की ठानी। उन्होंने मराठा शक्ति का उत्तर और दक्षिण में और अधिक प्रसार किया। उन्हें सफलता मिली और कटक से अटक तक मराठा दुंदुभी बजने लगी। मराठा सामन्तों ने भारत में अनेक स्थानों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। गुजरातमालवा तथा बुन्देलखंड उनके सीधे प्रशासन के अधीन आ गए। मराठा सेनाएं बंगाल में पहुंच गई थीं तथा कटक को लूट चुकी थीं। निज़ाम हार गया थामैसूर के महाराज से अनेक भाग छीन लिए थे। दिल्ली के शक्ति संघर्ष में मराठा राजनीतिज्ञ एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे और मराठा घोड़े सिंध नदी से पानी पीते थे।

 

मालवा और बुन्देलखण्ड में मराठा शक्ति का समीकरण- 

  • यूं तो मराठा सैनिक मालवा से चौथ लेते थे परन्तु उनका नियंत्रण सम्पूर्ण नहीं था। जयसिंह की मध्यस्थता से 4 जुलाई, 1741 को मुग़ल सम्राट ने एक फरमान द्वारा राजकुमार अहमद को मालवा का सूबेदार नियुक्त कर दिया तथा पेशवा को नायब सूबेदार। इसके बदले में पेशवा 4,000 सैनिक सम्राट को आवश्यकता पड़ने पर देगा। इस प्रकार मालवा का प्रशासनफौजदारी न्याय सहित मराठों के हाथ में आ गया।

 

  • बुन्देलखण्ड मराठों के दोआव तथा अवध पर आक्रमण का आधार बन सकता था और वे बंगाल और बिहार की ओर भी प्रसार कर सकते थे। 1729 में बाजीराव प्रथम द्वारा प्राप्त की गई रियायतों के पश्चात् भी मराठों ने इस प्रदेश में बहुत प्रभाव स्थापित नहीं किया था। 1742 में मराठों ने ओरछा के बुन्देला सरदार को परास्त कर झांसी पर अधिकार कर लिया तथा झांसी बुन्देलखण्ड में मराठा उपनिवेश बन गया।

 

  • पूर्व तथा दक्षिण में मराठा प्रभाव का प्रसार तंजौर के मराठा सरदार कर्नाटक के नवाब दोस्त अली के हाथों दुःखी थे। बराड़ से रघुजी भोंसले ने कर्नाटक के विरुद्ध एक अभियान भेजा ताकि वह दोस्त अली को नियन्त्रण में ला सके। युद्ध में दोस्त अली मारा गया तथा उसके पुत्र ने सन्धि कर ली। मराठों ने त्रिचनापली (तिरुचिरा का घेरा सफलतापूर्वक सम्पन्न कर दोस्त अली के जामाता चन्दा साहिब का बन्दी बना सतारा भेज दिया।

 

  • इसके पश्चात रघुजी ने पूर्व में बंगालबिहार तथा उड़ीसा से चौथ मांगी और अपने वित्त मंत्री भास्कर को इस उद्देश्य से भेजा नवाब अलीवर्दी खां मराठों को रोक तो नहीं सके परन्त उन्होंने 1744 में भास्कर को धोखे से मरवा दिया। फलस्वरूप राघजी ने बंगाल पर आक्रमण किया तथा प्रदेश में लूटमार की अली खां को बाध्य होकर उड़ीसा त्यागना पड़ा और उसने बंगाल तथा बिहार से चौथ के रूप में 12 लाख रुपया देना स्वीकार किया (1751)

 

बालाजी बाजीराव का निज़ाम से युद्ध - 

  • 1745 में आसफजाह की मृत्यु पर उसके उत्तराधिकारियों में गृहयुद्ध छिड़ गया और पेश्वा को खानदेश तथा बराड़ में अपना अधिकार स्थापित करने का अवसर मिल गया। परन्तु निज़ाम ने फ्रांसीसी बुस्सी के नेतृत्व में तोपख़ाने का प्रयोग किया और पेशवा को विशेष सफलता नहीं प्राप्त करने दो। युद्ध तह हो गया और अन्त में निज़ाम ने बराड़ का आधा भाग मराठों को दे दिया (भलकी की सन्धि, 1752 )

 

  • अंग्रेज़ों तथा फ़्रांसीसियों के बीच सप्तवर्षीय युद्ध (1756-63) छिड़ गया। बुस्सी को हैदराबाद से वापिस बुल लिया गया और पेशवा ने इस अवसर से लाभ उठाकर निज़ाम से गोदावरी के उत्तरी प्रदेश की मांग की। दिसम्बर 1757 में सिन्दखेड़ में भीषण युद्ध हुआ। निज़ाम ने बाध्य होकर, 25 लाख रुपए वार्षिक कर देने योग्य प्रदेश नालदुर्ग समेत मराठों को दे दिए। दिसम्बर 1759 में पुनः युद्ध छिड़ गया और जनवरी 1760 में हुए उदगोर युद्ध में निज़ाम ने करारी हार खाई। मराठों ने 60 लाख रुपए वार्षिक कर का प्रदेश जिसमें अहम्द नगरदौलताबाद बुरहानपुर तथा बीजापुर नगर सम्मिलित थेप्राप्त कर लिए।

 

मराठों का पंजाब तथा दिल्ली में उलझना-

  • मुग़ल सम्राटों की दुर्बलता के कारण विघटन तत्वों के  प्रोत्साहन मिला। पठान तथा रुहेले अहमदशाह अब्दाली की सहायता से दिल्ली में पठान राज्य स्थापित करना चाहते थे। दरबार के षड्यन्त्रों के कारण मराठों को दिल्ली की राजनीति में हस्तक्षेप करने का अवसर मिला था। 


  • 1751 में अब्दाली के आक्रमण से भयभीत होकर सफ़दर जंग ने मराठों से सहायता मांगी। अप्रैल 1752 में एक करारनामा किया गया जिसमें 50 लाख रुपए वार्षिक के बदले मराठों ने मुग़ल साम्राज्य को आन्तरिक तथा बाह्य आरक्षण का वचन दिया। उन्हें अमजेर के प्रदेश भी मिल गए तथा उन्हें पंजाबसिन्ध तथा दोआब के प्रदेश से चौध प्राप्त करने का अधिकार भी मिल गया। इस समझौते के होते हुए भी सम्राट ने अब्दाली को पंजाब दे दिया। यद्यपि यह करारनामा सम्राट ने पूर्णरूपेण स्वीकार नहीं किया फिर भी इससे मराठों की पिपासा जाग उठी।

 

  • जनवरी 1757 में अब्दाली पुनः पंजाब आया तथा दिल्ली और मधुरा के बीच के प्रदेश लूटे मन्दिर तोड़े तथा हिन्दू मारे। पूने से मराठा सेनारघुनाथ राव तथा मल्हार राव होल्कर की अध्यक्षता में दिल्ली भेजी गई। मार्च 1758 में अब्दाली कावुल लौट गया। दूसरी ओर मराठे अगस्त में दिल्ली पहुंचे। रघुनाथ राव ने सम्राट को पुनः दिल्ली के सिंहासन पर बैठा दिया और सतलुज से बनारस तक अब मराठा पताका फहरा रही थी। अप्रैल 1758 में मराठों ने लाहौर से अब्दाली के एजेन्ट को निकालकर समस्त पंजाब पर अधिकार कर लिया।

 

  • यह तो अब्दाली के लिए एक महान चुनौती थी। रुहेला सरदार नजीबुद्दौला मराठा शक्ति को चुनौती दे रहा थादत्ताजी सिंधिया मुज़फ़्फ़र नगर के पास नजीबुद्दौला के लिए घेरा डाले बैठे थे। 1759 में अब्दाली ने अटक पार किया और दिल्ली की ओर बढ़ा। दत्ताजी ने आक्रान्ता को थानेसर के पास रोकने का असफल प्रयास किया तथा मारा गया। मल्हारराव के इस आक्रांता की सेना को तंग करने का भी विशेष लाभ नहीं हुआ। पूना से एक विशाल सेना अफ़ग़ानों से टक्कर लेने के लिए सदाशिवराव भाऊ के अधीन भेजी गई। दोनों सेनाओं के बीच 1 जनवरी, 1761 को ऐतिहासिक क्षेत्र पानीपत में युद्ध हुआ। मराठे हार गए तथा उनके समस्त भारत पर राज्य करने के स्वप्न मिट्टी में मिल गए। उसी वर्ष बालाजी बाजीराव का देहान्त हो गया।

 

बालाजी राव का मूल्यांकन-

  • यद्यपि वह एक सैनिक और राजनीतिज्ञ के रूप में अपने पिता के समान तो नहीं थे परन्तु फिर भी उनमें नेतृत्व के तत्व विद्यमान थे। अनुकूल परिस्थितियों से लाभ उठा कर उन्होंने मराठा प्रभाव का विस्तार किया और शीघ्र ही माराठा राज्य अपनी चरम सीमा तक पहुंच गया। सिन्धु से कन्या कुमारी तक सभी प्रदेश उनके अधिक अथवा कम प्रभाव में थे।

 

  • बालाजी बाजीराव अपने मानवीय तथा सौम्य शासन के लिए प्रसिद्ध थे न्याय प्रणाली में बहुत सुधार हुआ तथा फौजदारी न्यायालय सत्य ही जन अधिकारों के संरक्षक बन गए। भूमि कर व्यवस्था में सुधार हुआ। नियमित ब्यौरा रखा जाता था। गुण्डों को दण्ड देने के लिए पूना में पुलिस का प्रबन्ध था। पंचायत प्रणाली सुधरी तथा अधिक कारगर बनाई गई। व्यापार को बढ़ाने का प्रयत्न हुआ। राजमार्ग बनाए गए तथा उन पर वृक्ष लगाए गए। मन्दिर बनेउन्हें दान मिला तथा जनता की अवस्था सुधरी। इन सभी कार्यों से बालाजी राव ने महाराष्ट्र की जनता का मन जीत लिया। दूरस्थ प्रदेशों का भी शासन सुधारा गया।

 

  • परन्तु इसके काल में हिन्दू पद पादशाही की भावना को धक्का लगा। विशेषकर जब होल्कर तथा सिंधिया ने राजपूत प्रदेशों को लूटा और रघुनाथ राव ने खुम्बेर के जाट दुर्ग को घेर लिया। इसलिए जहां पानीपत के युद्ध मैं सभी मुस्लिम सरदार एक हो गए मराठेजाट और राजपूतों को अपने साथ मिलाने में असफल रहे। बालाजी शक अपने अधीनस्थ सरदारों को अपने नियंत्रण में रखने में असफल रहे तथा सामन्त शाही की भावना चमक उठी। 
  • पानीपत के पश्चात राजनैतिक गतिविधियों का क्षेत्र पूना से बदल कर महदाजी सिन्धिया के दरबार में आ गया। सम्भवतः तीसरे पेशवा ने दिल्ली की राजनैतिक गतिविधियों में अत्यधिक रुचि दिखलाई तथा पंजाब में हीन हस्तक्षेप से अब्दाली को अप्रसन्न कर दिया। 1748-63 बीच एक अन्य शक्ति जो इन शक्तियों से अधिक शक्तिशाली धी सामने आ रही थी अर्थात् ईस्ट इण्डिया कम्पनी अंग्रेज़ों ने कर्नाटक में फ्रांसीसियों को मात दे दी थी तथा सिराजुदौला को हरा कर बंगालबिहार तथा उड़ीसा पर अधिकार जमा रहे थे। पेशवा ने इनकी शक्ति अथवा आकांक्षाओं का ठीक-ठीक मूल्यांकन नहीं किया। उन्हें तो रोकने की बात ही क्या इन्होंने अंग्रेज़ों की सहायता तुलाजो ऑग्रिया की नौसेना को समाप्त करने में की। इस प्रकार बालाजी राव अदूरदर्शी तथा पूर्णतया मर्मज्ञ राजनीतिज्ञ सिद्ध नहीं हुए।

 

बालाजी बाजीराव के बारे में विचार

 

बालाजी बाजीराव के बारे में किनकेड तथा पार्सिनीज़ के विचार 

  • अंग्रेज इतिहासकारों ने इस व्यक्ति का न्यायोचित मूल्यांकन नहीं किया। सम्भवतः उन्हें इस व्यक्ति का सबसे अधिक आभारी होना चाहिए था क्योंकि इसने तुलाजी ऑग्रिया की नौसेना को हराने में अंग्रेजों की सहायता की तथा बुस्सी को दक्कन में उलझाए रखां यह ठीक है कि वह बाजीराव जितना महान तो नहीं था परन्तु फिर भी सुलझा हुआ तथा दूरदर्शी राजनीतिज्ञ था। उसने ताराबाई के षड्यंत्रों तथा दमाजी के विद्रोह का असाधारण कुशलतापूर्वक प्रतिरोध किया। उसने निज़ाम की शक्ति को केवल छाया मात्र ही बना दिया और यदि पानीपत का युद्ध न होता तो समस्त दक्षिणी भारत मराठों के अधीन होता। पेशवा के रूप में वह कार्य में इतना उलझा रहा कि दिल्ली कभी नहीं जा सका। यदि चला जाता तो सम्भवतः वह पठानों के संकट को अधिक भली-भांति समझ पाता। (Without the real greatness of Baji Rao, Balaji wasa far sighted politician. He met with rare skill and firmness the crisis caused by Tarabai's intrigues and Damaji's rebellion,. He reduced to a shadow the power of Nizam and, but for Panipat, would have added the whole of the southern India to the Maratha kingdom. Occupied in the south, he never found time, while Peshwa, to go to Delhi. Had he done so, he would better have understood the Afghan menace.) (A History of the Maratha People, p. 347)

 

बालाजी बाजीराव के बारे में जेम्स ग्रॉट डफ़ के विचार 

  • बालाजी राव उन महान व्यक्तियों में से हैं जिनका भाग्य अपने समय से पहले उभरा और जो अपनी राष्ट्रीय समृद्धि के कारण अपनी योग्यता से अधिक ख्याति प्राप्त कर सकेविशेषकर अपने देश में फिर भी बालाजी बाजीराव एक बहुत सूझबूझ वालेशिष्टाचारी और समझदार व्यक्ति थे। उनके कार्यों में कूटनीति अधिक थीयद्यपि इसे साधारण ब्राह्मण लोग ग़लती से बुद्धिमत्ता की संज्ञा देते हैं।

 

  • उनमें छल तथा कपट की सभी कलाएं विद्यमान थीं-अपना निजी जीवन विलास से दूषित था। यद्यपि वह आलसी तथा विलासी (voluptuous) थेपरन्तु दानी तथा उदार भी थे- वह हिंसा से बचते थे। सभी तत्वों को ध्यान में रखते हुए हम यह कह सकते हैं कि वह शक्तिशाली ब्राह्मणों में एक अच्छे व्यक्ति थे। बालाजी बाजीराव के प्रशासन के अधीन मराठा साम्राज्य बहुत शक्तिशाली बन गया। प्रमुख ब्राह्मण कुल उनके काल से ही अपने का इतिहास लिख सकते हैं। थोड़े में हम यह कह सकते हैं कि उनके अधीन समस्त जनता की अवस्था सु तथा मराठा कृषक वर्ग को उनके काल से राहत मिली और वे नाना साहिब पेशवा को आशिष देते हैं।

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