समकालीन काल में महिला आंदोलन| 1970 के दशक में महिलाओं के आंदोलन का पुनरूत्थान : मुद्दे और कार्यवाही |Women Movement in Hindi
70 के दशक में महिलाओं के आंदोलन का पुनरूत्थान : मुद्दे और कार्यवाही
महिलाओं के आंदोलन का पुनरूत्थान : मुद्दे और कार्यवाही
- 1970 के दशक का उत्तरार्द्ध और 1980 का दशक महिला संघर्ष के पुनरूत्थान और महिलाओं के नवीन समूहों और संस्थाओं के आविर्भाव के दशक माने गये हैं। राष्ट्र के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के पश्चात् महिलाएँ सार्वजनिक जीवन से दूर हो गयी और सार्वजनिक कार्य क्षेत्र से उनके मुद्दों पर बहस लुप्त सी हो गयी। भारत में 1950 और 60 के दशक में अनेक विद्वानों ने महिला आंदोलन की अनुपस्थिति और महिलाओं के मुद्दों के लिए चिंता के धीमे क्षरण पर विचार विर्मश किया। "विरोध प्रदर्शन के विकास और कानून व शिक्षा के सीमित परिप्रेक्ष्य को तोड़ना- इनको 1970 के दशक के महिला आंदोलन ने महिलओं की स्थिति को सुधारने के साधन रूप में दर्शाया था। यहाँ तक कि स्वतंत्रता - पूर्व या 1950 के दशक के दौरान जो पुरानी महिला संस्थाएँ मुख्यत: 'कल्याण' और 'परोपकार' के कार्य में लगी थी धीरे-धीरे उन्होंने महिलाओं से संबंधित कुछ मुद्दों पर अपने विचारों को परिवर्तित करना शुरू कर दिया था। ऐसे बहुत से मुद्दे थे जिन्होंनें भारत में महिला कुछ को दर्शाया गया है। आंदोलन को उत्तेजित कर दिया था।
- फिर भी बहुत सी महिला कार्यकर्ता जो राजनीतिक दलों, ट्रेड यूनियनों, किसान और मजदूरों के आंदोलनों के साथ काम कर रही थी उन्होने केवल महिला संबंधित विषयों को उठाने में हिचकिचाहट महसूस की। महिलाओं ने जिन समस्याओं (मुद्दों) को उठाया उनमें से प्रमुख थी- कपड़ा मिलों से महिलाओं को निकाला जाना और अन्य उद्योगों में से प्रौद्योगिकी परिवर्तनों के कारण महिलाओं का हटाया जाना, महिला मजदूरों के लिए मातृत्व सुविधाओं की कमी, कार्य स्थल पर शिशु देखभाल प्रबंध की कमी, समान काम के लिए पुरुषों और महिलाओं के बीच वेतन में भेदभाव, महिला मजदूरों के लिए अपर्याप्त शिक्षा और प्रशिक्षण सुविधाएँ तथा कार्य स्थलों पर भेदभाव। इन्होंने देश के विभिन्न भागों में अलग से महिला संस्थाओं के आविर्भाव को प्रेरित किया, जिन्होंने परिवर्तन के लिए निर्धन महिलाओं को संगठित करने के लिए गंभीर प्रयास किए।
1 नए संगठनों और दृष्टिकोणों का उदय
- निर्धन ग्रामीण और शहरी महिलाओं की बढ़ती आर्थिक कठिनाईयों (छठी पंचवर्षीय योजना के अंत तक 50 प्रतिशत परिवार गरीबी रेखा के नीचे थे) और सामान्य कृषकों और औद्योगिक मजदूरों के आंदोलनों द्वारा महिलाओं के मुद्दों को उठाने में असफलता के परिणाम स्वरूप महिला मजदूर अलग से संगठित होने लगी। आइए अब नए संगठनों और दृष्टिकोणों पर गहराई से विचार करे।
i) संगठन
- कुछ नवीन संगठन (संस्थाएँ) जो संगठित क्षेत्रों में महिला मजदूरों की दुर्दशा से संबंधित थे जैसे महिलाओं की स्वरोजगार संस्था (गुजरात), कार्यकारी महिलाओं का संघ (फोरम) (तमिलनाडु), श्रमिक महिला संगठन (महाराष्ट्र)। महिला मजदूरों को संगठित करना और उनकी मजदूरी काम की परिस्थितियों, शोषण और स्वास्थ्य के खतरे के मुद्दों को उठाना इन महिला संगठनों के लिए महत्वपूर्ण कार्य बन गए थे। असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं पर शोध ने निर्धन ग्रामीण और शहरी मजदूरों की समस्याओं को सुलझाने के लिए नई योजनाओं के विकास में सहायता प्रदान की।
- 1973-74 में मूल्य वृद्धि विरोधी आंदोलन विभिन्न दलों से संबंधित महिला संगठनों का एक संगठित मोर्चा था।
ii) दृष्टिकोण
- 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध में अनेक महिला संगठनों का जन्म हुआ जो कि किसी राजनीतिक दल या ट्रेड यूनियन से संबंधित नहीं थे। ये स्वैच्छिक महिला संगठन कहलाये। इन्होंने पहले के महिला संगठनों, जिनमें से बहुत से संगठन स्वतंत्रता से पूर्व स्थापित हुए थे, द्वारा अपनाए गए 'कल्याणवादी दृष्टिकोण को अस्वीकार किया और विशिष्ट मुद्दों पर महिला-गतिशीलता के लिए 'विरोध प्रदर्शन की नीति को अपनाया।
2 वन कटाई और पारिस्थितिकीय और महिला आंदोलन
- वनो की कटाई के कारण हिमालय क्षेत्र में महिलाओं को आर्थिक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा जिसके परिणाम स्वरूप महिलाओं में स्वैच्छिक रूप से आंदोलनकारी गतिशीलता आई। ये पेड़ों के साथ लिपट जाती थी ताकि ठेकेदारों को उन्हें काटने से रोका जाए। यह "चिपको आंदोलन" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वनों के लुप्त होने का तात्पर्य है महिलाओं की कठिनाईयों का और अधिक बढ़ना, विशेषकर उनके लिए जो मुख्य रूप से ईंधन, चारा, फल, दवाइयों के लिए जड़ी-बूटियाँ एकत्रित करती थी और अन्य जंगली उत्पाद जो उन्हें आय और रोजगार देते थे उन्हें भी एकत्रित करती थी। इसी कारण से हम पाते है कि महिलाएँ इन पारिस्थितिकीय आंदोलन में अब भी सबसे आगे है।
3- 1970 और 80 के दशक में महिला मुद्दों पर आधारित आंदोलन
- 1970 के दशक में किए गए विभिन्न अध्ययनों से सुधार पर सामाजिक कानून की प्रभावहीनता स्पष्ट होती है। स्वैच्छिक महिला संगठनों ने महिला दमन में संबंधित समस्याओं को उठाया जैसे दहेज, परिवार के अतंर्गत हिस्सा, पुरुषों द्वारा मद्यपान (मद्यपान) और पत्नी को पीटना, कार्यस्थल पर भेदभाव इत्यादि, ताकि महिलाओं को सामूहिक प्रयास के लिए गतिशील बनाया जाए। मुम्बई, दिल्ली, हैदराबाद, पटना इत्यादि में पहली बार कुछ समूहों ने ऐसी समस्याओं को उठाया जैसे उच्च जाति के जमींदारों द्वारा गरीब अनुसूचित जाति और जनजाति की महिलाओं के शारीरिक शोषण की समस्या, दहेज हत्याओं, बलात्कार, महिलाओं के विरूद्ध अपराध और हिंसा आदि अखिल भारत दहेज विरोधी और बलात्कार विरोधी आंदोलनों का प्रारम्भ महिला संगठनों द्वारा किया गया और नागरिक स्वतंत्रता संगठन व प्रजातांत्रिक अधिकार संगठन भी इनमें सम्मिलित हुए। उन्होंने महत्वपूर्ण मुद्दों पर आधारित आंदोलनों की शुरूआत की।
i) दहेज-विरोधी आंदोलन
- अनेक महिला संगठनों और नागरिक अधिकार समूहों द्वारा दहेज न देने के कारण हुई हत्याओं के खिलाफ एक निरंतर अभियान चलाया गया। पत्रकारों ने दहेज समस्या के बारे में बहुत विस्तार से लिखा 1980 के दशक में अनेक महिलाओं तथा अन्य प्रगतिशील संगठनों ने मिलकर दिल्ली में "दहेज विरोधी चेतना मार्च" दल का गठन किया। अन्य बड़े शहरों में भी संगठनों ने विरोध प्रदर्शन, वाद-विवाद, नुक्कड़ नाटक, पोस्टर इत्यादि के माध्यम से दहेज के लिए युवा दुल्हनों की क्रूर हत्याओं के विरोध में अभियान चलाए। विधि आयोग और संसदीय समिति ने निरंतर भी समस्या का जायजा लिया।
- अभियान के पश्चात् अंत में 1984 में एक विधेयक संसद लाया गया जिसने 1961 के दहेज निषेध (संशोधन) अधिनियम, 1984 पारित किया गया। अधिनियम ने दहेज में दी जाने वाली रकम की सीमा तो निर्धारित कर दी जबकि पति और पर दहेज को प्रतिबंधित नहीं किया। उसके संबंधियों द्वारा किए जाने वाले अत्याचार जो पीड़िता को आत्महत्या अथवा मृत्यु की ओर ले जाएँ, अपराध की श्रेणी में आ गये और इन्हें जेल सहित दण्डनीय बनाया गया, फिर भी दहेज मृत्यु की । दुखद घटनाएँ जारी हैं। 1986 में ही 1285 दहेज हत्याओं की रिपोर्ट की गई थी परन्तु इनमें से बहुत कम दोषी ठहराए गए।
ii) सती-विरोधी आंदोलन
- 1829 में सती प्रथा को कानून के माध्यम से समाप्त कर दिया गया था जो कि ब्रिटिश द्वारा शुरू की गई बहस की चरम पराकाष्ठा तक पहुँच थी। देवराला, राजस्थान में 1988 में किशोर विधवा रूप कंवर का अपने पति की चिता में जलने ने महिला संगठनों के विरोध को और अधिक भड़का दिया था। सरकार की विलम्बित प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप आंदोलन को आधार मिला और इसने सती (रोकथाम) अधिनियम का रूप ले लिया, जिसको जल्दबाजी में संसद में पारित किया गया था। अधिनियम यह मानता है कि यह प्रथा रीति-रिवाजों के द्वारा स्वीकृत है। अतः जो 'सती' के नाम पर चंदा इकट्ठा करते है और फोटोग्राफ बेच कर लाभ कमाते है उनको सजा नहीं दी जा सकती। रोकथाम के उपायों के नाम पर कुछ भी नहीं है।
- सती विरोध की भावना किसी भी समुदाय में ऐसा आंदोलन खड़ा कर सकती है जो उसके धार्मिक रीति-रिवाजों पर एक प्रहार भी माना जा सकता है। यह आश्चर्यजनक है कि इस क्रूर प्रचलन, जिसके विरोध में सामाजिक सुधारकों ने आवाज उठाई थी, हमारे देश जहाँ मातृदेवी की पूजा होती है, आज भी प्रचलित है।
iii) बलात्कार विरोधी आंदोलन
- बलात्कार के एक केस में जिसमें अपराधी को निर्दोष करार कर दिया गया था, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर पुनर्विचार करने की माँग को लेकर पिछले दशक में बलात्कार विरोधी आंदोलन चलाया गया था।
- महिला कार्यकर्ताओं ने बलात्कार कानून पर पुनर्विचार करने के लिए सरकार पर दबाव डाला। अनेकों महिला संगठनों तथा कानूनी और सामाजिक कार्यकर्ताओं की विधि आयोग के साथ कानून में संशोधन के लिए बहसें हुई और 1983 में दण्ड विधान (संशोधन) अधिनियम पारित किया गया। 1990 के दशक में महिलाओं ने साम्प्रदायिकता तथा वैश्वीकरण के मुद्दों को व्यापक तंत्र के द्वारा राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर उठाया।
- 21 वीं सदी के आरम्भ में भारत में महिला संगठन विभिन्न मुद्दों और अभियानों पर तंत्रों (नेटवर्क) के द्वारा एक दूसरे से जुड़ गए थे। पहले से प्रचलित विरोध और वकालत पद्धतियों के साथ साथ, प्रतिरोध और गतिशीलता की नयी पद्धतियों का परिवर्तन के लिए विकास हो रहा है।
उभरती प्रवृत्तियाँ और सरकार की प्रतिक्रिया
- किसी को ऐसा प्रतीत नही होना चाहिए कि भारत में महिला आंदोलन मुख्यत शहर पर आधारित हैं। हम देखते हैं कि इसमें मध्यम वर्ग की शिक्षित महिलाएँ भी सम्मिलित है। यहाँ पर बहुत सी गरीब ग्रामीण और शहरी कामकाजी वर्ग की महिलाओं, जनजातीय, स्वरोजगार प्राप्त महिलाओं के बहुत से सक्रिय जमीनी स्तर पर काम करने वाले संगठन है, जो दमन, अन्याय और शोषण के सभी स्वरूपों के खिलाफ लड़ रहे है। विभिन्न राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों और ट्रेड व्यापार संघों ने महिला शाखा स्थापित किए हैं।
- 1970 के दशक के दूसरे हिस्से में शुरू हुए महिला आंदोलन की प्रतिक्रिया के रूप में सरकार ने कुछ मंत्रालयों (ग्राम विकास, श्रम और मानव संसाधन विकास) के अंतर्गत महिला प्रकोष्ठ स्थापित किए। सरकारी कार्यक्रमों में 30 प्रतिशत लाभाग्राही निर्धन ग्रामीण महिलाओं को प्रशिक्षण और आय उपार्जन कार्यक्रमों के लिए चयनित किया गया। 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में सरकार द्वारा महिलाओं के लिए एक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य (perspections) योजना (1988-2000) तैयार की गई थी जिसमें महिलाओं की कानूनी, आर्थिक, सामाजिक और प्रस्थिति से संबंधित अनेक सिफारिशें प्रस्तुत की गई थी। सरकार ने स्वरोजगार और अनौपचारिक क्षेत्र की असंगठित महिला मजदूरों, जो महिला मजदूरों का 87 प्रतिशत भाग है परन्तु उन्हें समान वेतन, मातृत्व लाभों, शिशु देखभाल सुविधाओं और बेहतर काम की स्थिति पाने में श्रम कानूनों के तहत् किसी भी प्रकार का संरक्षण प्राप्त नहीं हैं, की विशिष्ट समस्याओं के लिए एक राष्ट्रीय आयोग की भी नियुक्ति की 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में तैयार किए गए तथा 1993 में पारित संविधान के 73 वें तथा 74 वें संशोधनों के तहत महिलाओं के लिए प्रत्येक पंचायत, पंचायत समिति, जिला परिषद तथा स्थानीय संस्थाओं में 33.33 प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित किया गया। 1992 में राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन महिलाओं के अधिकारों के संरक्षण तथा उनके सशक्तीकरण को बढ़ावा देने के लिए किया गया।
- इस आयोग की परिकल्पना एक विशेषज्ञ संस्था के रूप में की गई थी, जो सरकार को महिलाओं के मुद्दों पर सलाह दे सके, तथा उनके अधिकारों की शक्तिशाली संरक्षक बन सके। इसीलिए आयोग को "वैद्यानिक" संस्था का दर्जा दिया गया, ताकि वह स्वतंत्रता से काम कर सके ( महिला तथा बाल विकास विभाग की वार्षिक रिपोर्ट, मानव संसाधन मंत्रालय, 2002 ) । इसके अलावा, सरकार ने अन्य दूसरी योजनाएँ भी शुरू की है कि राष्ट्रीय महिला कोष (RMK) इंदिरा महिला योजना (IMY) बालिका समृद्धि योजना (BSY). स्वशक्ति प्रॉजेक्ट इत्यादि जिससे महिलाओं को लाभ मिल सके।
- महिला आंदोलन के अन्दर कार्यवाही के लिए मुद्दों और कार्य सूची तथा सरकार की प्रतिक्रिया में परिवर्तन महिलाओं की समस्याओं पर शोध, खास तौर पर कामकाजी वर्ग और अन्य कमजोर वर्ग (भागों) में महिलओं पर विशेषकर 1970 और 1980 के दशक के दौरान, के कारण हुए और उन्होंने महिला आंदोलन के साथ-साथ सरकार के लिए भी बहुत सी चुनौतियाँ पैदा कर दी।
- महिलाओं के अधीनस्थ और उत्पीड़न तथा उनकी ताकत के बिन्दुओं को समझने के लिए विद्वानों ने नवीन जानकारी सृजित की जिसको व्यापक रूप में महिलाओं पर अध्ययन या लैंगिक अध्ययन' कहते है। धीरे-धीरे यह अपना स्थान विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों और विद्यालयों में शिक्षण सामग्री के रूप में ले रहा है। महिला संगठनों द्वारा महिलाओं पर अध्ययन और परिवर्तन के लिए कार्यवाही के बीच एक मजबूत संबंध दर्शाया जाता है। 1970 और 1980 के दशक के दौरान महिला आंदोलन महिलाओं के मुद्दों को सार्वजनिक बहस के अखाड़े में वापस लाने में प्रभावी रहे, जो समानता, न्याय और सभी महिलाओं के गौरव के लिए आने वाले लम्बे संघर्ष की केवल एक शुरूआत थी।
समकालीन काल महिला आंदोलन
- समकालीन महिला आंदोलन कानूनी संस्थाओं तथा राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों के बाद की प्रक्रिया को अपनाकर लैंगिक असमानता और महिलाओं के खिलाफ हिंसा को खत्म करने को लक्षित करके होते रहे हैं। यह राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन और आधार पर मुद्दों पर आधारित सामाजिक आंदोलन की माँग करता है जो अक्सर शारीरिक हिंसा मानसिक प्रताड़ना शारीरिक शोषण, बलात्कार आदि के कारण होते हैं।
- ज्यादातर महिला संगठनों का जन्म पिछले कुछ सालों में ही हुआ है और उन्होंने अपनी आवाज सामाजिक असमानता और लैंगिक भेदभाव के विरुद्ध उठाई है। एन जी ओ (NGO) और नागरिक समाज संगठनों ने समाज के रूपांतरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। प्रदर्शित करते है जो महिलाओं की व्यक्तिपरकता (आत्म चेतना) और अधीनस्थता के मुद्दे को पुरुषों के वर्चस्व के अन्तर्गत पूछता है।
- 1960 के दशक के बाद से अमेरिकी नारीवादियों ने एक प्रसिद्ध कथन लिया "जो व्यक्तिगत है वह राजनीतिक है और अपनी सक्रियता को पुरुष और महिला के बीच के व्यक्तिगत संबंधों के विरूद्ध शुरू कर दिया। दोनो उदार और उग्र नारीवादियों ने पितृ पक्ष ( पुरुष वर्चस्व ) को चुनौती देने के लिए एक सक्रियता मंच का रुप लिया। बाद में तट सक्रियता बहुत से विकासशील देशों में फैल गयी। भारत में इस तरह के आंदोलन ने एक व्यापक तरीके में स्थान लिया जो जाति, वर्ग, लिंग, नृजातियता और धार्मिक मुद्दों के व्यापक प्रश्नों को संबोधित करते हैं। दलित महिला आंदोलन जाति के प्रश्न को संबोधित करता है जबकि श्रमजीवी किसान आंदोलन कृषकों के प्रश्न को संबोधित करता है।
- नृजातीय जनजातीय आंदोलन नृजातीय पहचानों को संबोधित करता है जबकि मध्यम वर्ग महिला धार्मिक अत्याचारों पर प्रश्न उठाती है। उदाहरण के लिए, हिन्दू महिलाओं द्वारा मन्दिर प्रवेश आंदोलन और मुस्लिम महिलाओं द्वारा तीन तलाक के विरूद्ध आंदोलन धार्मिक अत्याचारों के विरूद्ध महत्वपूर्ण महिला आंदोलन है।
- अन्य विकासशील देशों के बीच भारत में पितृसत्ता की एक अनोखी चुनौती है जहाँ पर विभिन्न सामाजिक समूहों की विभिन्न समस्याएँ है । समूह स्तर पर असमानता विद्यमान है और फिर प्रत्येक समूह में पितृसत्ता का अपने तरीके से प्रचलन है जहाँ सीमांत गरीब मार्ग सामाजिक दमन के दोहरे बोझ को झेलते हैं। पारम्परिक सामाजिक व्यवस्था में हिन्दू समाज महिलाओं को शिक्षा और संपत्ति के अधिकार नहीं देता है। ग्रामीण समाज आज भी इस समस्या को झेल रहा है जिसने असमानता और लैंगिक भेदभाव को नए अंदाज में पेश करता है।
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