हिंदी काव्य साहित्य में महिला लेखिकाओं का योगदान |Contribution of women writers in Hindi Poetry
हिंदी काव्य साहित्य में महिला लेखिकाओं का योगदान
Contribution of women writers in Hindi Poetry
हिंदी काव्य साहित्य में महिला लेखिकाओं का योगदान
- प्राचीन भारतीय समाज नारी को बहुत ही सम्मान देता था। उस समय नारी की तुलना देवताओं से की जाती थी । जैसे विद्या, बुद्धि, विभूति और शक्ति के रूप में क्रमश:, सरस्वती, लक्ष्मी एवं पार्वती या दुर्गा का पूजन होता था ।
- यथा 'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता' कहकर उसकी भूयसी प्रशंसा की जाती थी । वैदिक काल में नारियों को मंत्रों की रचना करने, सभा, समिति और युद्ध में भाग लेने राजकीय कार्यों में शामिल होने, गृहजीवन में निर्णय लेने का भी अधिकार था । घोषा, अपाला, गार्गी, मैत्रेयी, सरमा आदि सब जाने माने नाम हैं।
- 'असतो मा सद्गमय / तमसो मा ज्योतिर्गमय / मृत्योर्मा / अमृतंगमय ।' ब्रह्मवादिनी मैत्रेयी का यह स्वर आज भी हमारी भाषा और भाव का एक अविभाज्य अंग है। परंतु आगे चलकर मध्यकाल में सतीदाह प्रथा, बालविवाह एवं विधवाओं को हेय दृष्टि से देखना जैसी कुरीतियाँ पनपने लगी।
मध्यकालीन कवि कबीर दास के दोहे से नारी की अवहेलना का स्पष्ट चित्र मिलता है-
“नारी तो हम भी करी जान नहीं विचार,
जब जाना तब परिहरी नारी बड़ा विकार ।
नारी की छाईं परत ही अंधा होत भुजंग
कबिरा तिन की कौन गति, नित नारी को संग ।
आधुनिककाल में तो इन रीतियों की हत्या कर दी गई । परंतु दहेज प्रथा, अपहरण, बलात्कार आदि कुरीतियाँ तमाम हद को पार कर गई । जिस दुःखदायी दशा को देखकर कवि रो उठता है और गुप्तजी के शब्दों में -
'अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी
आंचल में है दूध और आँखों में पानी"
- साहित्य समाज का दर्पण है। समाज की बुराइयों का पर्दाफाश करने तथा उसे सुधारने में साहित्य का बड़ा योगदान रहता है। नारी की इस उपेक्षित अवस्था ने हजारों महिला साहित्यकारों को जन्म दिया है । प्राय: संस्कृत से लेकर आज तक लगभग सभी भाषाओं में इन लोगों ने अपनी लेखनी चलाई और पुरुष साहित्यकारों की तरह प्रशंसा और सम्मान भी हासिल किया ।
- हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है । इस भाषा के प्रचार-प्रसार से लेकर उसे परिपुष्ट करने में महिला साहित्यकारों का अनन्य योगदान है। साहित्य के विभिन्न पक्ष जैसे काव्य, निबंध, नाटक, कहानी, आलोचना, एकांकी में इन्होंने अपनी योग्यता को दर्शाया । हिन्दी साहित्य के पन्ने पलटने से हजारों महिला साहित्यकार हमारे सामने आयेंगे जो कि पुरुष साहित्यकारों के समकक्ष कंधे से कंधा मिलाकर अपने लक्ष्य में अडिग हैं और रहेंगी। जिसके फल स्वरूप अनेक सम्मान से ये लोग सम्मानित हुई हैं। महिलाओं को प्रेरणा देते हुए पंत ने सही कहा है-
“मुक्त करो नारी को मानव,
चिर बंदिनी नारी को
युग-युग की निर्मम कारा से.
जननी, सखी प्यारी को ।”
समाज को सुधारते हुए नारी को आगे बढ़ाने और उसे दृढ़ बनाने के लिए प्रसाद भी लिखते हैं-
'नारी तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास - रजत - नग-पग-तल में ।
पीयूष स्रोत सी बहा करो
जीवन के सुन्दर समतल में ।"
- हिन्दी साहित्य के गहन अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि एक हजार साल के इतिहास में महिला साहित्यकारों की रचना प्रायत: मध्ययुग यानी भक्तिकाल से ही शुरू होती है। आदिकाल में मुसलमानी शासकों ने नारी को स्वछंद रूप से प्रकट नहीं होने दिया । भक्तिकाल में शोषित हिन्दी समाज में भक्ति का प्लावन फैलाते हुए मीराबाई ने भारतीय समाज को कृष्ण भक्ति से विमुग्ध कर दिया। उनकी कोमल वाणी ने भारतीय साहित्य में प्रेम और आशा से भरी हुई वह पावन सरिता प्रवाहित की जिसकी वेगवती धारा आज भी भारतीय अंतरात्मा में ज्यों की त्यों अबाध गति से बह रही है ।
श्रीकृष्ण के साथ मीरा का प्रेम दांपत्य भाव का प्रेम था, श्रीकृष्ण उनके प्रियतम थे और वह उनकी विरहिणी प्रेयसी थी । श्रंगार के दोनों पक्षों में उनकी रचना भक्ति काल की श्रेष्ठ रचनाओं में मानी जाती है । कृष्ण का रूप वर्णन करते हुए वे कहती हैं-
“बसो मेरे नैनन में नन्दलाल
सांवरी सूरति मोहिनी मूरति नैना बने बिसाल
छुद्र घंटिका कटि तट सोभित उर बैजंती माल ।”
- मीराबाई को छोड़ कर भक्तिकाल में अनेक कवयित्रियों ने हिन्दी की विकास - धारा में अपना योगदान दिया है। जैसे रायप्रवीन, ताज प्रताप, कुंवरबाई, सुन्दरबाई, सुन्दर कुंवरबाई, चंद्रकला बाई, जुगुल प्रिया, जनाबाई, अक्कमहादेवी, ललद्य, गवरीबाई, गंगामती, पानबाई आदि । इनमें से अलग संत कवयित्रियों में बाबरी साहिबा, दयाबाई, सहजोबाई जैसी कवयित्रियों ने हिन्दी के विकास में अपना हाथ बंटाया ।
'बावरी रावरी का कहिये मन हयै के पतंग
भरे नित भंवरी
भंवरी जानहि संत सुजान जिन्हें हरिरूप
हिये दरसावरी"
भोगविलास में लिप्त राजाओं के स्तुति गान से भरे काव्य हिन्दी साहित्य के रीतिकाल में मिलते हैं । एक तरफ साहित्य सिद्धांत युक्त नखशिख वर्णन, दूसरी तरफ साहित्य का गहन अध्ययन इस काल खंड में किया गया । सुन्दरीकुंवरी बाई जैसी कवयित्री ने इस युग में आकर भक्ति, शृंगार और काव्यांगों पर अनेक रचनाएँ लिखी । सहजो बाई अपने गुरु के प्रति भक्ति प्रकट करते हुए लिखती हैं -
“चिऊंटी जहाँ न चढ़ि सकै सरसों न ठहराय
सहजो कूं वा देस मैं सतगुरु दई बसाय
सहजो गुरु रंग रेज सा सब ही कू रंग देत
जैसे-तैसे बसन हवै जो कोई आवै से न"
- रीतिकाल के कृष्णभक्त कवियों में विशेष स्थान रखनेवाली कवयित्री सुन्दरी कुंवरि बाई ने कृष्ण भक्ति परक दस काव्य की रचना की है । जिसमें 'नेहनिधि', 'वृन्दावन गोपी महात्म्य', 'संकेत युगल', 'रसपुंज', 'प्रेम संपुट', 'सार संग्रह', रंगझर', 'भावना प्रकाश' आदि प्रमुख है । इनकी कृतियों में भावों की सरस तथा कलामयी अभिव्यक्ति पायी जाती है । मृत प्राय हिन्दू जाति पर इन कवयित्रियों ने अपनी रसमयी काव्यधारा द्वारा ऐसी पीयूष वर्षा की कि वह आज तक सानन्द जीवित है ।
जैसे -
“स्याम रूप सागर में नैन बार-बार थके
नचत तरंग अंग-अंग रंगमय है
गाजन गहर धुनि बाजन मधुर बेनु
नागिन अलक जुग सोधै सगबगी है "
- हिन्दी साहित्य में भक्ति एवं रीति काल के इन साहित्यकारों की कृतियों को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद इन लोगों ने अपना स्वर बुलंद रखा और पुरुषों से अपने को कमजोर नहीं होने दिया। साथ ही हिन्दी की विकास धारा को आगे बढ़ाया ।
- आधुनिक काल में आते - आते खड़ी बोली का पूर्णरूपेण विकास हो जाता है तथा हिन्दी में पहली बार गद्य रचना शुरू हो जाती है । अंग्रेज शासन में रहकर भी नारी शिक्षा प्राप्त कर लेने पर ज्यादा जागरुक बन जाती है। उसकी लेखनी बहुत सशक्त, समाज सुधारक एवं प्रभावशाली बन जाती है । काव्य के साथ ही वे गद्य की सभी विधाओं में लिखना शुरू कर देती हैं। उनकी इन रचनाओं से हिन्दी साहित्य न केवल समृद्ध हुआ, बल्कि पूर्ण विकसित हुआ । इस चर्चा में हम पहले भारतेंदु युग से लेकर साठोत्तरी युग तक काव्य की और उसके उपरांत गद्य विधाओं की आलोचना करेंगे ।
- छायावाद काल में अपने पैर जमाते हुए महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी कवयित्रियों ने देशभक्ति परक, रहस्यवादी, शृंगार के दोनों पक्षों, हास्य-व्यंग जैसे काव्यों की रचना की । छायावाद युग भारत के लिए अस्मिता की खोज का युग है। सदियों की दासता के कारण भारतीय जनता आत्मकेंद्रित होती हुई रूढ़िग्रस्त हो गयी थी । ये कवयित्री पुनर्जागरण से गंभीर रूप से प्रभावित थी । इसलिए उनका क्षेत्र एकदम पलायन, मादकता और निराशा का नहीं था। उनके सामने जीवन का, व्यक्ति, जाति और मानव मात्र के जीवन का भावात्मक पक्ष भी था और इसलिए उनके काव्य में मूल्यों की अभिव्यक्ति व्यापक मानवीय स्तर पर हुई है। उनके स्वरों में देश के पराधीन समाज का स्वर झलक उठता है और असहयोग एवं बलिदान की प्रेरणा भी ।
सुभद्रा चौहान के शब्दों में -
'विजयिनी माँ के वीर सुपुत्र पाप से असहयोग ले ठान
गूंजा डालें स्वराज्य की तान और सब हो जावें बलिदान"
इनकी सारी कविताएँ 'त्रिधारा' और 'मुकुल' में संकलित हैं। छायावाद के चार स्तंभ माने जाने वाले कवियों में एक स्वतंत्र स्थान महादेवी वर्मा का है। उनके गीत अपनी सहज सहनशीलता, भावविदग्धता के कारण सजीव हैं। इनकी रचनाओं में 'नीहार', 'रश्मि', 'नीरजा', 'सांध्यगीत', 'यामा' आदि है । जिसमें विस्मय, जिज्ञासा, व्यथा एवं आध्यात्मिकता के भाव मिलते हैं। साथ ही वे अनुभूति और विचार के धरातल पर एकान्विति मिलती है। उन्होंने अज्ञात प्रियतम के प्रति प्रणय निवेदन किया है । जो प्राय: दुःख प्रधान है -
'मैं नीर भरी दुःख की बदली
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा
क्रंदन में आहत विश्व हँसा"
लेकिन वे अपने प्रियतम से मिलना भी नहीं चाहती क्योंकि उनके विचार में मिलन ही व्यक्तित्व का विनाश करता है ।
“मिलन का मत नाम लो
मैं विरह में चिर हूँ”
- हिन्दी साहित्य के उज्वल नक्षत्र महादेवी वर्मा हिन्दी साहित्य में अपने काव्यों के बदौलत अमर बन गयी । काव्य के इस दौर को आगे बढ़ाने हेतु इंदु जैन की 'आँख से भी छोटी चिड़िया', 'हम से भी', पहले लोग यहाँ थे' जैसे काव्य संग्रह तथा सुनीता जैन की 'हो जाने दो मुक्त' काव्य संग्रह ने बहुत बड़ा योगदान दिया ।
- इसके उपरान्त हिन्दी साहित्य को श्रेष्ठ और समृद्ध बनाने हेतु सेवा में लगी कवयित्रियों में सुमित्रा कुमारी सिंह, विद्यापति कोकिल, विद्यावति मिश्र, तारा पांडेय, शकुंतला, राजेश्वरी देवी, रजनी पणिक्कर, कंचनलता, शचीरानी गुर्टू आदि हैं; जिनके अवदान से आज तक यह पावन धारा बहती आ रही है ।
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