नारी विमर्श का इतिहास|पश्चिमी नारी विमर्श |प्राचीन भारत में नारी विमर्श |Feminism History in Hindi
नारी विमर्श का इतिहास (Feminism History in Hindi)
1 पश्चिमी नारी विमर्श :
- वैसे ‘नारी विमर्श' यह शब्द पाश्चिम में "Feminism" का हिंदी पर्याय है । परंतु पश्चिम और पूर्व में नारी को लेकर भिन्न दृष्टि है । वहाँ नारी किसी परंपरा को नहीं तोड़, वर्तमान से ही विद्रोह कर रही है । भारत में हजारों वर्ष की रूढ़ियों, परंपरा और प्रचलन को तोड़ नया कुछ करने की बात करती है मानो वह नारी अपनी अस्मिता का बोध लेकर अपनी मुक्ति की तरफ बढ़ रही है ।
- आज उसमें यह बोध जाग उठा है कि वह स्वयं भी पुरुष के समकक्ष एक इकाई है । अतः किसी रूप में गुलाम या अधीनस्थ नहीं । पुरुष उस पर वर्चस्व न जमाये । अतः वह चाहती है कि सभ्यता का अर्थ है मनुष्य पशु प्रवृत्ति पर विजय प्राप्त करे । स्त्री-पुरुष के बीच कोई पाशविक संपर्क नहीं रहना चाहिए । वह दोनों साथी बन कर रहें । यही मूल भावना है।
- इस प्रकार स्त्री विमर्श एक प्रकार की चिंतन धारा है। जहाँ स्त्री के प्रति एक विशेष दृष्टि से चिंतन वस्तु रूप में देखा । उसके गुण दोषों पर विचार ऐसे किया जैसे कोई बाह्य पदार्थ हो । इस कमोडी -फिकेशन में मनुष्य अस्मिता खत्म हो जाती है। उसे कमोडिटी, वस्तु, रत्नपदार्थ, अनमोल निधि कहा । इस शब्दावली में 'वह' वस्तु कही गई है । विमर्श के बाद यह दृष्टि बदल जाती है । नारी एक जीवंत सत्ता स्वीकार होती है। इस प्रकार औरत अपने को व्यक्ति समझने लगती है। अंतर्मन में यह चेतना जाग्रत करना ही नारी विमर्श या स्त्री विमर्श है । स्त्री विमर्श में औरत की चर्चा वस्तु रूप से हट कर व्यक्ति रूप में की जाती है । समाज में उसकी स्वतंत्र सत्ता का युगों से हनन हुआ है । इसके कारणों की चर्चा है । इसके संबंध में आज की स्थिति की चर्चा है। समाज में स्त्री का स्थान क्या है ? स्त्री-पुरुष में संबंधों और उनके अतीत तथा वर्तमान पर विवेचन विश्लेषण है। भारतीय परंपरा की रूढ़ियों और कुछ ग्रंथियों पर प्रकाश डालना है । स्वस्थ एवं गतिशील समाज के लिए स्त्री की भूमिका और दृष्टिकोण पर भी विचार होता है । कैसे उसकी रक्षा संभव है । इसमें उसके अधिकार और सामाजिक दायित्व दोनों पर संतुलित दृष्टि से चर्चा होनी है। तभी स्त्री विमर्श सार्थक सिद्ध होता है ।
- 1949 में सीमोन द बेउवौर ने 'The second sex' में नारी विमर्श पर पहली बार कटुतम शब्दों में लिखा । नारी को वस्तु रूप में प्रस्तुत करने पर टिप्पणी की। बाद में 'Modern women' में डोरोथी पार्कर ने इस बात की आलोचना की कि नारी को नारी रूप में देखा जाय । वह कहती है नारी पुरुष सब मानव प्राणी रूप में स्वीकार हैं। यह द्वैत मान्यता पराधीनता और सापेक्षता को जन्म देती है ।
- 1960 ई. में केटमिलेट ने रूढ़िवाद पर कहा - " पुरुष स्त्रियों की समस्या पर सोचना ही नहीं चाहता स्त्रियों को अपनी खामोशी तोड़नी होगी । युगों से हो रहे अत्याचारों पर दुनिया को बताना होगा । सत्तर के दशक में बेट्टी फ्रिडन ने कहा- गृहणी यानी घरेलू औरत समाज में पराजीवी है । वह अर्धमानव की कतार में है ।
- इसी को विश्लेषण कर गिलीमन ने 1993 ई. में 'In a Different voice' से कहा बचपन में सशक्त दिखती लड़की औरत होने पर कमजोर क्यों दिखती है ? आत्मविश्वास ढह जाता है । वह बड़ी होकर पत्थर की मूरत बन जाती है ।
- अब 20वीं सदी सूचना क्रांति लायी । संचार क्रांति में जनमानस को नियंत्रण में लाने का प्रयास है । व्यक्तिगत स्तर पर संवेदना शून्य किया जाए । मानव अस्तित्व के सामने यह एक संकट है। भौतिकतावाद और उपभोगतावाद की संस्कृति इहलौकितावादी सोच का यह परिमाण है । विश्व सोच रहा है कि सामूहिक प्रयास से संस्कृति का प्रवाह कैसे अक्षुण्ण रहे ।
- आज नारीवाद में परिवार और विवाह पर प्रश्न चिन्ह लगाया है। उसे स्त्री दासता का चिन्ह कहा । नारीवाद में परिवार को जेल रचना कहा ।
- हालांकि पहले पुरुष को दुश्मन कहा, आज स्त्रीवाद की दृष्टि से उपभोक्ता संस्कृति पर फल फूल रही व्यवस्था है जो स्त्री-पुरुष दोनों को समान रूप से गुलाम बना रही है । भूमंडलीकरण के दौर में स्त्री नये सवाल उठा रही है । इसे नवनारीवाद कहते हैं। हमने अपने भीतर की औरत को खोज निकाला है । हमारे पूर्वजों ने अपने औरतपन को नकारा । जो हासिल किया, वह ठीक है। पर वे अपने प्रति उदासीन रही । तो उदास, अकेली चिड़चिड़ी हुई । जिन्दगी जी नहीं, भोगी नहीं । आज पुरुष बदल रहे हैं । औरत भी बदल रही है ।
- नारीवाद से उत्तर आधुनिकतावाद कहता है हमसे हमारी मस्ती मत छीनो, चूड़ियां बालियां सैंडिल अच्छे लगते हैं। सादगी की बात छोड़ो, बहुत दंबा लिया । वह कहती है अतीत और वर्तमान जहाँ मिलते हैं। वहीं हमारी संस्कृति के सारे उत्तर मिलते हैं ।
- एनीले क्लाक कहती है - हमें भाषा की खोज करनी है । ऐसी भाषा जिसमें स्त्रीत्व की रक्षा हो सके । स्त्रियों को जो भाषा मिलती है वह पुलिंग नियंत्रित है ।
- आज वह नारी स्वतंत्रता के नाम पर उन्मुक्त जीवन यापन, स्वच्छ यौनाचार से विकसित एड्स जैसी बीमारी, मनोवैज्ञानिक विकृतियां, उत्तर दायित्व की स्वतंत्रता, उपभोगतावादी, भौतिकतावादी मानसिकतावाद अनिश्चय भविष्य की सूचना में घिरी है ।
2 प्राचीन पश्चिम में नारी विमर्श
- विश्व में नारी चर्चा का इतिहास, भारत में बहुत पुराना है। परंतु वह लिखित नहीं है । अतः पश्चिम की चर्चा पहले कर रहे हैं ।
- प्लेटो इतिहास में पहला चिंतक है, जिसके संवाद मिलते हैं। प्लेटो ने लगभग तीस संवाद लिखे । ये सारे पुरुषों के संग हुए । स्त्रियों को कोई स्थान नहीं था । प्लेटो की एकादेमी में भी एक्जीथिया और लास्थीनिया को छोड़कर किसी स्त्री को विशेष महत्व नहीं दिया । बस घरेलू महत्व तक सीमित रखा ।
- अरस्तू के समय में घर का कामकाज और बच्चे बड़े करने में फुरसत नहीं पा सकती । इस प्रकार नारियाँ भौतिक जीवन में सीमित रहें ।
- डेकार्ट्स के अनुसार घर-बार, बच्चों के बंधन से मुक्त होना संभव नहीं । अत: निम्न स्तर पर रहना, बौद्धिक श्रम से थके मानव का भोग का सामान बनना मात्र रहा ।
- कीट ने आगे चल कर कहा - "A single moral person" अर्थत् दोनों की समझदारी पर जोर दिया । परंतु हीगल का मानना है कि पुरुषों का विकास पशुओं के साथ तुलनीय है जब कि स्त्रियों का विकास वनस्पतियों के साथ तुल्य है ।
- मार्क्स के साथ नारी के प्रति दृष्टिकोण में बड़ा परिवर्तन दिखाई देता है। पूंजीवादी और साम्यवादी संघर्ष में वे स्त्री की भागीदारी का स्वागत करते हैं । वृहत्तर सामाजिक दायित्व पूरा करने में नारी भी सक्षम है । नारी को प्रोलिटेरियत और पुरुष को बूजुआ के रूप में नहीं देखते । पर प्रजन को उत्पादन से जोड़कर नहीं देखा गया । नारी की सारी प्राकृतिक क्षमताओं को आध्यात्मिक मानता है । तो फिर उसके चिंतन में पुरुष प्रधानता ही दिखाई पड़ती है।
- पश्चिम में जान स्टुअर्ट मिल पहला दार्शनिक था जिसने मताधिकार, शिक्षा और रोजगार में नारियों को पुरुषों की बराबरी की चर्चा की है। आगे चल कर मिल का मानना था - घर में नौकर हो तो "It is good that the mistress of a family with herself do the work of servants."
- फिर भी पश्चिमी चिंतन प्रवाह प्रकृति और पुरुष के रिश्तों में बार-बार यह कहा गया है कि प्रकृति पर पुरुष की विजय दिखती है । अर्थात् प्राकृतिक शक्तियों को लगातार दमित रखना ही पौरुष का प्रतीक माना गया है ।
3 प्राचीन भारत में नारी विमर्श
- भारत में नारी विषयक चिंतन का इतिहास बहुत पुराना है। प्राचीन काल में यहाँ नारी को लगभग समान स्थान दिया गया है। क्योंकि उसके बिना कोई राजकार्य, धर्म कार्य, दान दक्षिणादि संभव नहीं होता । उसी प्रकार नारी को समाज में हर क्षेत्र में पूरा अधिकार एवं दायित्व था । वह वेदाध्ययन ही नहीं, वेदों की ऋचाओं की स्रष्टा रही है। यज्ञादि उसके बिना संपन्न नहीं हो सकते थे। उसी प्रकार जो भी पुरुष संकल्प करता नारी बिना संभव न था वह संन्यास या अन्य आश्रम में जाता, स्त्री से अनुमति जरूरी थी । शुरू से उसमें लिंगाधारित कोई समस्या ही न थी । कोई शोषण न था । धीरे-धीरे बाह्य संस्पर्श में आता गया । मनुष्य का भिन्न संस्कृति से संबंध होना और फैलाव के कारण विभिन्न समस्यायें पैदा हुई ।
यहाँ हम आर्ष ग्रंथों से एक उदाहरण ले रहे हैं :
“युवां ह घोषा पर्यश्विना यतो राज ऊँचे दुहिता पुच्छे वा नरा ।
भूतं मे अहम् उत भूतमक्तवे श्वायते रथिनं शक्तकर्यते ॥”
मैं राजकन्या घोषा, सर्वत्र वेद की घोषणा करने वाली, वेद का संदेश सर्वत्र पहुँचानेवाली - स्तुति - पाठिका हूँ । हे देव, मैं सर्वत्र आपका ही यशोगान करती हूँ और विद्वानों से आपकी चर्चा करती हूँ । आप सदा मेरे पास रह कर मेरे इन इन्द्रियरूपी अश्वों से युक्त शरीर रूपी रथ के साथ मेरे मनरूपी अश्वका दमन करें । यहाँ आत्मानुशासन की अपेक्षा स्त्रियां स्वयं से करती हैं। वह परिष्कृत मनीषावाली समधीत स्त्री ब्रह्मवादिनी है। निश्चिंत होकर शास्थार्थ करती फिर सकती है। ये ब्रह्मचारिणी भौतिक सुखों से विरत नहीं हैं ।
घोषा कहती है -
“जीवनं रुदन्तिणि मन्यन्ते अध्वरे दीर्घ मनुप्रसीति दीघियुना:
वामं पितृभ्यो य इदं समेरिरेमय: पतिभ्यो: जनय: परिष्वजे ।”
- जब कोई ब्रह्मवादिनी कमनीय वर की कामना करे, उसे उसकी मनोदशा के अनुकूल वर मिले । पति के घर वधू को जीवन के सभी साधन सुलभ रहें और सदा उस गृह में दया, परोपकार, उदारता, शालीनता आदि गुण नदी की तरह प्रवाह की तरह गतिशील बने रहें ।
- पर्दा प्रथा तो थी ही नहीं । सास-ससुर एक साथ एक थाल में खाते थे । ऐसे अनुकूल परिवेश का प्रभाव था कि वागाम्भृणी आदि तेजस्वी स्त्रियों का आत्म विश्वास प्रखर था । वह सर्वव्यापी इयत्ता स्थापित करने कभी राजनीति करती ।
- वैयक्तिक संबंधों से ऊपर सामाजिक उद्देश्यों को प्रतिष्ठित करने वाली स्त्रियों की भी परंपरा है । तब न सती प्रथा थी और विधवा विवाह का भी प्रावधान था ।
'अपश्यं युवतिं नीयमानां जीवां मृतोय: परिलीयमानम्
अन्धेन यत्तमसा प्राकृतस्त्रीत्प्रोक्तो अपायीववयं तदेनाम् ।
- मृत पति के साथ चिता पर लेटी स्त्री को देखने के बाद मैंने उसे वहाँ से हटाया, जो शोक रूपी घनांधकार से आवृत थी ।
- लड़की का जन्म के समय विशेष स्वागत न हो, परंतु विकास के क्रम में वह हमेशा माता-पिता भाई, पितामह, चाचा, मामा सब की प्रिय हो जाती है ।
आदर्श पत्नी के कर्त्तव्य -
“समख्यो देव्या धिया सं, दक्षिशपोरुचक्षसा ।
मा म आयु प्रमोणीर्भोऽहं तव वीरं विदेय देवि संहशि ॥
- धारण - पोषण में समर्थ कार्यकुशल, दूरदर्शिनी पत्नी के माध्यम से मैं संपूर्ण कार्यों का संपादन करुं । मैं उसके तथा वह मेरे जीवन को कभी हानि न पहुँचाये और मैं उसके सम्यक दर्शन से वीर पुत्र को प्राप्त करूं ।
- 'धारण करना' और 'घर चलाना' स्त्री के मुख्य कर्त्तव्य हैं। पुरुष के कर्त्तव्य हैं- बाहरी आक्रमणों से बचाना, आक्रमण हेतु सदा प्रस्तुत रहना ।
- इसी के प्रतीक रूप शिव अर्धनाश्वीर रूप में प्रतिष्ठित होते हैं ।
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