हिन्दी साहित्य में नारी विमर्श |Feminism in hindi literature
हिन्दी साहित्य में नारी विमर्श Feminism in Hindi literature
स्वतंत्रता पूर्व हिन्दी साहित्य में नारी विमर्श
- स्त्री की आजादी का प्रश्न हमारी सारी बहसों का मुख्य मुद्दा है । 'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता' के खयालों में केवल स्त्री को ऊंचा उठाया गया है, उसे मानवीय बनने नहीं दिया गया । उसे पूज्य भाव से सराहा गया है, मंदिरों की सीढ़ियाँ केवल चढ़ाई गई। कोरा आदर्शवादी चिंताधारा ने ही उसे अधिक रूढ़िवादी बना दिया है ।
- सभी क्षेत्रों में पुरुष रचनाकारों की तुलना में स्त्री रचनाधार्मिता हाशिये पर रही है । आर्य युग में हमें नारी रचनाशीलता और मानसिकता के अनेक उदाहरण मिलते हैं गार्गी, मैत्रेयी, सीता, सावित्री, अनुसूया आदि महिला शक्ति के यशस्वी उदाहरण हैं पर बाद के इतिहास में हजारों साल तक फिर सन्नाटा दिखाई पड़ता है ।
- मुश्किल से तीस-पैंतीस वर्ष हुए जब साहित्य में स्त्री विमर्श और दलित चेतना की आहट सुनाई पड़ी है । यूरोप के अनेक देश की कई भाषाओं में महिला रचनाकारों को बड़े-बड़े पुरस्कार यहाँ तक कि नोबुल पुरस्कार तक मिले ।
- स्त्री विमर्श भारतीय स्थितियों में और हिंदी साहित्य में पहली बार मध्यकाल में मीराबाई के काव्य और व्यक्तित्व में उभरता दिखाई पड़ता है। वह पंद्रहवीं शताब्दी की एक ऐसी विद्रोहिणी प्रतिभा थी जिसने नारी अस्मिता का एक अभूतपूर्व इतिहास रचा था । “मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई- अब तो बात फैल गई जाने सब कोई" तत्कालीन रूढ़ियों में जकड़े राज समाज में कितने ज्वालामुखी न फट पड़े होंगे ।
- मीरा के कई सौ वर्ष के बाद यह स्त्री चेतना की लहर हमें 20वीं सदी में सिर उठाती नजर आती है । यह पुनर्जागरण की लहर हमें राजा राममोहन राय और पं. विद्यासागर के स्त्री-मुक्ति प्रयासों में व्यक्त हुई स्वतंत्रता के पहले प्रयास 1857 में इसका प्रभाव हमें महारानी लक्ष्मीबाई के विद्रोह में परिलक्षित होता है । साहित्य जगत में भारतेंदु हरिश्चन्द्र और उनकी मंडली के कई रचनाकारों ने नारी की दयनीय स्थिति पर बहुत कुछ रचा । नारी स्वाधीनता की यह आकांक्षा 20वीं सदी के तीसरे दशक में महादेवी वर्मा व सुभद्रा कुमारी चौहान दोनों की जोड़ सिद्ध हुई हैं।
- कविता में रहस्यवादी निगूढ़ताओं में आनन्द लेने के बावजूद महादेवी वर्मा अपने गद्य लेखन में स्त्री स्वतंत्रता पर बल देती हैं। रेखाचित्रों में उन्होंने इस मुद्दे को लिया और इसका सौद्धान्तिक विवेचन 'श्रृंखला की कड़ियां' नामक ग्रंथ में भी किया। सुभद्राजी का राष्ट्रीय यज्ञ अनुष्ठान हिंदी में अनूठा है । जलियांवाला बाग में वसंत के प्रति कविता आज भी रक्त में उछाल लाने के लिए पर्याप्त है ।
- 'खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थीं' एक समय बलिदानियों का श्लोक थी । वे हिंदी वीर काव्य शृंखला की महत्वपूर्ण कड़ी हैं। अल्पायु पायी थी। उसका अधिकांश भाग कारागार में व्यतीत हुआ था । शिवरानी देवी, ऊषा मित्रा, विद्यावती कोकिल, कमला चौधरी, होमवती देवी आदि महिला रचनाकारों ने घर-परिवार समाज और देश सभी को अपनी दृष्टि के केंद्र में रखा है। इन्होंने कभी भी अपने कृतित्व को घोषित रख नारी विमर्श की संज्ञा नहीं दी । हम अस्सी दशक में पहली बार कुछ पत्र-पत्रिकाओं में स्त्री विमर्श और दलित विमर्श की अनुगूंजें सुनते हैं ।
- कविता में सप्तक परंपरा में आई कवयित्रियों में कीर्ति चौधरी, शकुंत माथुर आदि में स्त्री मानसिकता के चित्र मिल जाते हैं। रघुवीर सहाय की दो छोटी-छोटी कविताएँ 'सीढ़ियों पर धूप' संकलन में संगृहीत हैं। प्रयोग में निहित उनकी व्यंग्यात्मकता मानवीय मुक्ति की परिणति है। पहली कविता 'पढ़िए गीता' किसी मूर्ख की ही परिणति है । निज घर बार बसाए / होय कटीली/ आँख गीली / लड़की नीली, तबियत ढीली / घर की सबसे बड़ी पतीली / भर कर भात पसाहिए । दूसरी कविता है 'नारी' नारी विचारी / पुरुष की मारी / तब से क्षुधित / मन से मुदित / लपक कर झपक कर / अंत में चित" बोधिसत्व की कविता का शीर्षक है 'वहाँ औरत' ।
औरत की रची-बसी जिन्दगी की अन्दरूनी स्थितियों की कवि की सूक्ष्म दृष्टि गई है :
- वहाँ औरत बरतन मांजकर / लेऊ लगा रही है / वहाँ औरतें धो और सुखा रही हैं केश. गूंथ रही हैं चोटियाँ, भर रही हैं पांव/ लेप रही हैं दु:ख के गलके पर / नोना माटी । पूछ रही हैं कुशल क्षेम । वहाँ औरतें, लड़ रही हैं । कर रही है विलाप, बच्चों की खातिर जो चले गए हैं कहीं । वहाँ औरतें / बहा और पोंछ रही हैं आंसू । देवी प्रसाद मिश्र ने स्त्री की स्वतंत्रता को सामाजिक प्रतिमान के संदर्भ में देखा है 'औरत का हालचाल' शीर्षक कविता में 'एक सर्विल युवती/ मैली कुचैली साड़ी में लिपटी । औरत प्रकट होती है । वह कोशिश करती है कि सरलतम हिंदी में अपने पति के बारे में अधिक से अधिक बातकर / वह अपने होने को अर्थवान करे । उनकी एक और कविता 'औरतें यहाँ नहीं दिखती' जिसमें हमारी नैतिकता सिमटती-सिकुड़ती है :- औरतें यहाँ नहीं दिखती / वे आटे में पिस गई होंगी । या चटनी में पुदीने की तरह 'महक रही होंगी / वे तेल की तरह खौल रही होंगी उनमें' घर की सबसे जरूरी सब्जी पक रही होगी । ..... स्त्री की बेबसी ।
शकुंत माथुर के कविता -
- संकलन 'लहर नहीं रहूंगी' की कविता 'जी ले ने दो' जिसमें नारी की अस्मिता की तलाश पहचानी गई है : जी लेने दो / मुझे / वह कोरा अर्थ / मेरे लिए अपना है/ रख लेने दो मुझे / वही मेरे पास / जो नितान्त मेरा अपना है/ पी लेने दो वह / वह चाह / वह रस / जो मेरे लिए अच्छा है । संचित कर लेने दो वह / जो / घूम रहा नस-नस में / हर धड़कन में जीवन / जिसको जीकर मैं जान सकूं/ मैंने भी कुछ/ अपनी तरह जिया है ।” समकालीन कविता के महिला लेखन के परिदृश्य में कात्यायनी का नाम भी महत्वपूर्ण है । कविता संकलन 'सात भाइयों के बीच चंपा' है कात्यायनी में नारी की अदम्य इच्छा है जो उन्हें पुरुष खे मे में नहीं धकेल देती । इस कविता में चंपा सिर्फ एक युवती होकर भी संवेदनात्मक धरातल पर नारी दृष्टि का प्रतीक बन जाती है ।
- सात भाइयों के बीच सहानी चंपा / एक दिन घर की छत से / लटकती पाई गई / तालाब में जलकुंभी के जालों के बीच / दबा दी गई/ वहाँ एक नीलकमल तैर गया/ जलकुंभी के जालों से ऊपर उठकर/ चंपा फिर घर आ गई / देवता पर चढ़ाई गई ।
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