हिंदी की अन्य विधाओं में नारी विमर्श |Feminism in other genres of Hindi
हिंदी की अन्य विधाओं में नारी विमर्श (Feminism in other genres of Hindi)
गद्य साहित्य - में नारी विमर्श
- गद्य साहित्य की आलोचना करते समय हम नाट्य साहित्य से प्रारंभ करते हैं। जैसे कि हम जानते हैं नाट्य साहित्य गद्य की श्रेष्ठ विधा है। अपनी प्रतिभा को प्रदर्शित करने तथा समाज की बुराइयों को जन समाज के सामने लाने का श्रेय महिला साहित्यकारों में मन्नू भंडारी, मृदुला गर्ग, शोभना भूटानी, विमला लूथरा आदि को जाता है ।
- मन्नू भंडारी अपने नाटक 'बिना दीवार का घर' में समाज के उन वर्गों को सामने लाती है जो कि पुरुष वर्ग की ईर्ष्या की शिकार हुई हैं। विवाहित स्त्री पुरुषों की सामाजिक समस्याओं को उभारने में ये निपुण हैं शोभना भूटानी अपने नाटक 'शायद हाँ' में नया व्यंग्य और अर्थोत्पत्ति देती है ।
- उसी तरह मृदुला गर्ग ने भी सामाजिक संदर्भ में 'एक और अजनबी' लिखा, जिसमें जीवन की असंगतियों, तनावों, जटिल परिवेशगत स्थितियाँ, नये रूपतंत्र के कौशल से नाट्य-रचना-प्रक्रिया में अभिव्यक्ति दी । जो हिन्दी के नाट्य साहित्य के विकास की नींव है जिसमें वह आज तक टिकी है। महिला नाटककारों की लेखनी ने आज भी विराम नहीं लिया है और इस दौर में अपनी सत्ता कायम रखी हुई है ।
- कम समय में ज्यादा प्रभाव डालने वाली गद्य विधा में कहानी अनन्य है । सामाजिक यथार्थ चित्रण में यह पूर्ण सक्षम होती है। महिला साहित्यकारों ने साहित्य की बागडोर संभालते हुए पूरे हिन्दी साहित्य में अपनी जगह बनायी है । इनमें बंग महिला, सुभद्रा कुमारी चौहान, शिवरानी देवी, उषा मित्रा, मंनु भंडारी, कृष्णा सोबती, शिवानी, उषा प्रियंवदा, रजनी पनिक्कर, मेहरुन्निसा परवेज, विजय चौहान आदि हैं, जो हिन्दी के पहले चरण में आती हैं। इन्होंने हिन्दी कहानी को मजबूत नींव दी उसे कलात्मक ऊंचाई भी प्रदान की है ।
- बंग महिला की 'दुलाई वाली' से यह दौर शुरू होता है जो कि भारतेंदु युग की श्रेष्ठ कहानियों में एक थी । सामाजिक पारिवारिक जीवन के व्यावहारिक चित्रण के लिए विशेष प्रसिद्ध सुभद्रा कुमारी चौहान ने 'बिखरे मोती' और 'उन्मादिनी' नामक कहानी-संग्रहों में भारतीय नारी की परिस्थितियों, समस्याओं तथा भावनाओं का सहज चित्रण किया है । 'कौमुदि' में प्रकाशित प्रेमचंद की पत्नी की कहानियाँ हैं । जिनमें उन्होंने अपने पति की शैली को पूर्णत: अपनाया है। उषादेवी मित्रा की ‘पिउ कहाँ', 'मूर्त मृदंग', 'गोधूलि', 'देवदासी', 'मन का मोह' भावुकता भरी कल्पनामयी कहानियाँ हैं।
- इसके उपरान्त मन्नू भंडारी से लेकर विजय चौहान तक कहानीकारों ने आधुनिक नारी की मन: स्थिति, पारिवारिक जीवन में पति-पत्नी के संबंध आदि विषयों को लेकर कहानी रचना की है । मन्नु भंडारी के 'कृषक', 'मैं हार गई', 'तीन निगाहों की एक तस्वीर', यही सच है' आदि कहानी संग्रह हैं । उषा प्रियंवदा के ‘जिन्दगी और गुलाब के फूल' तथा 'एक कोई दूसरा' आदि कहानी-संग्रह हैं ।
- साठोत्तरी महिला कहानीकारों में ममता कालिया, सुधा अरोड़ा, मणिका मोहिनी, सिम्मी हर्षिता, कृष्णा अग्निहोत्री, शशिप्रभा शास्त्री, मृदुला गर्ग, प्रतिभा वर्मा, सूर्यबाला, नमिता सिंह, राजी सेठ, निरुपमा सेवती, अनिता औलक, वर्तिका अग्रवाल, दीप्ति खंडेलवाल हैं जिन्होंने आधुनिकता बोध एवं स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व के चित्र आंके हैं।
- ममता कालिया ने व्यंग और करुणा के सहारे युगीन अंतर्विरोध को समर्थ और चुटीली भाषा में व्यक्त किया है जो उनके 'एक अदद औरत', 'सीट नं. 69', 'काली साड़ी' आदि कहानी संग्रह में उपलब्ध है.
- 'खामोशी को पीते हुए', 'आतंक बीज', 'काले खरगोश', 'कच्चा मकान' एवं 'भीड़ में गुम' आदि कहानी संग्रह निरुमपा सेवती का हिन्दी साहित्य के प्रति अनन्य अवदान है। उनकी कहानियों में यंत्रणा, संत्रास, एवं तनाव से मुक्त होने की इच्छा एवं अस्तित्व की तलाश का सार्थक प्रयास मिलता है ।
- सामाजिक मनोवैज्ञानिक समस्याओं का विश्लेषण करते हुए महिला कहानीकार शशिप्रभा शास्त्री अपने कहानी-संग्रहों जैसे 'वीरान रास्ते', 'झरना', 'सीढ़ियाँ', 'परछाइयों के पीछे' और 'क्योंकि ये स्त्रियाँ' के द्वारा कहानी साहित्य को समृद्ध बनाने में सक्षम हो पाती हैं ।
- इनके अलावा शिवानी के 'रति विलाप', 'लाल हवेली', 'करिए छिमा', 'स्वयं सिद्धा' । मेहरुन्निसा परवेज की 'आदम और हवा', 'गलत पुरुष', 'आकाश नील', अंतिम चढ़ाई' आदि, नमिता सिंह की 'नाले पार का आदमी' आदि कहानी संग्रह हिन्दी साहित्य को विकसित होने में महत्व रखती है ।
- कहानी के उपरांत उपन्यास आधुनिक युग की अत्यंत लोकप्रिय एवं भावात्मक विधा है। आदर्शवाद के खोखलेपन को नकारते हुए यथार्थवाद को उपन्यास साहित्य ने अपनाया । उपन्यास रचना के प्रारंभिक काल में सामाजिक विसंगतियों जैसे स्त्री शिक्षा का अभाव, बाल विवाह, पुरुषों का एकछत्रवाद, नारी समाज की दयनीय अवस्था का पर्दाफाश करती हुई महिला उपन्यास लेखिका साध्वी सती, प्रियंवदा देवी, हेमन्त कुमारी चौधरी, यशोदा देवी, ब्रह्मकुमारी, भगवान कुमारी दुबे, श्रीमती रुक्मिणी देवी, लीलावती देवी आदि प्रमुख हैं।
- हिन्दी उपन्यास की प्रारंभिक अवस्था में साध्वी सती अपनी 'सुहासिनी' नामक चरित्र प्रधान सामाजिक उपन्यास लिखा । सरस्वती गुप्ता का 'राजकुमार' । प्रियंवदा के 'लक्ष्मी' तथा 'कलयुगी परिवार' का एक दृश्य जो क्रमशः स्त्री शिक्षा एवं पारिवारिक समस्याओं का विशद चित्रण है । हेमंत कुमारी चौधरी की रचनाओं में 'आदर्श माता' और 'जागरण' प्रमुख है ।
- यशोदा देवी का ‘वीर पत्नी’ एक ऐतिहासिक उपन्यास है । ब्रह्मकुमारी भगवान दुबे का 'सौंदर्य कुमारी' एक सामाजिक उपन्यास है। इसमें स्त्री की तरह पुरुष को भी पवित्र रहने का उपदेश दिया गया है । उद्देश्य और आदर्श की दृष्टि से इसे तत्कालीन विशिष्ट रचना कह सकते हैं । रूक्मिणी देवी का 'मेम और साहब' एक हास्य-व्यंग्य प्रधान उपन्यास है। लीलावती देवी के 'सती दमयंती' तथा 'सती सावित्री' नारी समाज के समक्ष भारतीय सतियों के आदर्श चित्र: प्रस्तुत करते हैं ।
- आगे चलकर हिन्दी उपन्यास साहित्य के विकास काल में उषा देवी, कांचनबाला सब्बरवाल, लक्ष्मी देवी, पूर्णशशि देवी, प्रभावती भटनागर ने अपनी लेखनी चलाई और दहेज प्रथा, कन्या विक्रय, अनमेल विवाह, पुरुषों के दुराचार, निरक्षरता पर भी प्रकाश डाला है । पर्दा प्रथा, बहु विवाह आदि समकालीन सामाजिक कुरीतियों तथा उषा देवी 'वचन का मोल', 'प्रिया', 'जीवन की मुस्कान', 'पथचारी सोहिनी', 'सम्मोहिता', 'नष्टनीड़ ' जैसे उपन्यासों में भारतीय नारी की गरिमा का गान करते हुए पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण का निर्मम खंडन किया है और उच्छृंखलता, फैशनपरस्ती, कर्त्तव्य के प्रति उदासीनता आदि आधुनिक सभ्यता के दोषों पर करारा व्यंग्य किया है ।
- कंचनलता सब्बरवाल ने भी अपने भोली भूल, संकल्प, भटकती आत्मा, मूक तपस्वी त्रिवेणी, स्वतंत्रता की ओर, पुनरुद्धार, अनचाहा, नयामोड़, स्नेह के दावेदार जैसे उपन्यासों में जन सेवा की आवश्यकता एवं श्रेष्ठता पर बल दिया है । लक्ष्मी देवी का 'शिवसती', 'गिरिजा का 'कमला कुसुम', 'शैल कुमार देवी का 'उमा सुन्दरी', उषारानी का ' फांसी कैसे', शीलो का 'ग्रेजुएट लड़की' आदि प्रमुख उपन्यास हैं ।
- स्वातंत्र्योत्तर युग में श्रीमती रजनी के उपन्यास जैसे 'ठोकर', 'पानी की दीवार', 'मोम के मोती’, ‘प्यासे बादल', 'जाड़े की धूप', 'काली लड़की', एक लड़की दो रूप', 'महानगर की सीता', बदलते रंग', 'सोनाल दी' आदि सामाजिक एवं नारी की विवक्षताओं को और उसके उत्तरदायी सामाजिक परिस्थितियों का सफल चित्रण किया है। श्रीमती वसंत प्रभा के 'सांझ के साथी' और 'अधूरे तस्वीर' भी उसी सीमा में आते हैं ।
- कृष्णा सोबती ने 'डार से बिछुड़ी', 'ग्यारह सपनों का देश', 'सूरजमुखी अंधेरे के', 'यारों के यार', 'तीन पहाड़' हिंदी साहित्य को समर्पित किए हैं। इस समय के अन्य महिला उपन्यासकारों में लीला अवस्थी, चंद्र किरण, कुमारी अन्नपूर्णा तोगड़ी, श्रीमती विमल वैद आदि चर्चित हैं ।
- अद्यतन महिला उपन्यासकारों में ममता कालिया, मन्नु भंडारी, शिवानी, उषा प्रियंवदा, कुमारी कमलेश, निर्मला वाजपेयी तथा ऐसे कुछ उपन्यासकार हिन्दी उपन्यास साहित्य को मजबूत एवं समृद्ध करते हैं ।
- ममता कालिया के 'छुटकारा' कथा 'बेघर', मन्नु भंडारी के 'आपका बंटी' और 'एक इंच , शिबानी के 'मायापुरी', 'भैरवी', 'कृष्णाकली', 'श्मशानचंपा', 'चौदह फेरे', उषा मुस्कान' पियंवदा के 'पचपन खंभे लाल दीवार', कुमारी कमलेश के 'शाप और वरदान', निर्मला वाजपेयी के 'सूखा सैलाब जैसे उपन्यासों ने हिन्दी साहित्य के विकास में प्रमुख योगदान दिया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उपन्यास रचना के क्षेत्र में लेखिका और लेखकों में विभाजन रेखा नहीं खींची जा सकती।
- देश की राजनीति, समाज सुधार, धर्म, आध्यात्मिक, आर्थिक दुर्दशा, महा पुरुषों की जीवनी जैसे विषय साहित्य के निबंध विधा के पहले चरण में आये। आगे चलकर समाज की हीनावस्था, आर्थिक विषमता, धार्मिक पतन और व्यापक राष्ट्रीय समस्याओं को भी निबंधकारों ने अपना विषय चुना, जिसमें ताजगी महसूस होती रही। समाज के साथ ताल में ताल मिलाकर मनोविकार साहित्य सिद्धांत, साहित्यालोचन संबंधी निबंध लिखे। इस कार्य में विशेष योगदान देने में महिला निबंधकार पीछे नहीं हटी । इसमें सबसे पहले महादेवी वर्मा का नाम आता है ।
- उनके 'श्रृंखला की कड़ियाँ', ‘अतीत के चलचित्र' और 'स्मृति की रेखाएँ' में उन्होंने भावनात्मक शैली में अति निपुण ढंग से अपने विचारों को व्यक्त किया है । जिसमें समकालीन सामाजिक समस्याएँ स्पष्ट दिखाई देता है । श्रृंखला की कड़ियाँ में भारतीय नारी की करुण दशा और दूसरी ओर उसकी प्रच्छन्न शक्ति गरिमा का उच्चास पूर्ण चित्रण है । जीवन के शाश्वत मूल्यों से पोषित उनके साहित्य कला संबंधी 'साहित्यकार की आस्था के नाम से प्रकाशित है । महादेवी की तरह अनेक महिला निबंधकार आज तक इस काम को करती आ रही हैं।
आलोचना साहित्य में नारी विमर्श
- आलोचना साहित्य सभी गद्य विधाओं में अपना विशेष स्थान रखता है। इसकी विषयवस्तु अन्य साहित्य विधा ही है । आलोचना साहित्य में भी महिला आलोचकों का स्थान विशेष है। इस क्षेत्र में महादेवी वर्मा का नाम पहले आता है। उन्होंने अपनी प्रकाशित पुस्तकों की भूमिका में जो आलोचनात्मक लेख लिखे हैं वे किसी अन्य आलोचक के लेख से कम नहीं है। उसमें साहित्यिक विधा की समीक्षा के साथ-साथ शैली की निपुणता के कारण पाठक के हृदय को स्पर्श कर जाते हैं । आगे चलकर डर्डा. निर्मला जैन ने इस कार्य को संभाला। उनकी 'रस सिद्धांत और सौंदर्य शास्त्र' एक सिद्धांतपरक आलोचना है। साठोत्तरी युग में जन्मी अनेक महिला आलोचक इस कार्य में कर्मरत हैं ।
रेखाचित्र में नारी विमर्श
- महिला साहित्यकारों ने रेखाचित्र के विकास में प्रसिद्धि देने में प्रमुख भूमिका निभायी है। जिसमें महादेवी वर्मा, कुंतल गोयल, पद्मिनी मेनन, कृष्णा सोबती, कुरंगी बहन देसाई आदि प्रमुख हैं।
- हिन्दी साहित्य के संस्मरणात्मक रेखाचित्र साहित्य की श्रीवृद्धि में महादेवी वर्मा ने अत्यधिक योगदान दिया है। 'अतीत के चलचित्र', 'स्मृति की रेखाएँ', 'पथ के साथी', "स्मारिका और मेरा परिवार' उनके उल्लेखनीय रेखाचित्र संग्रह हैं। अपने संपर्क में आए शोषित व्यक्तियों, दीन-हीन नारियों, साहित्यकारों, जीवजंतुओं आदि का संवेदनात्मक चित्रण उन्होंने बड़े ही मार्मिक ढंग से किया है । उनके रेखाचित्रों में चित्रमयता का अनायास समाविष्ट हो गया है ।
- आगे चलकर कुंतल गोयल के 'कुछ रेखाएँ कुछ चित्र', पद्मिनी मेनन के 'चांद', कृष्णा सोबती के 'हम हसमत' आदि रेखाचित्रों को भी बहुत प्रसिद्धि मिली है। अनूदित रेखाचित्रों में कुरंगी बहन देसाई को 'बा मेरी माँ', 'मनु बहन' आदि गांधीजी कृत गुजराती रचना का हिन्दी अनुवाद है, जो हिन्दी के श्रेष्ठ रेखाचित्रों में भी गिने जाते हैं ।
- जीवनी में महिला साहित्यकारों में यशोदादेवी, मनोरमा बाई, मिलखा सिंह आदि हैं । यशोदा देवी ने ‘आदर्श महिलाएँ', मनोरमा बाई ने 'विद्योत्तमा' लिखी । बाकी साहित्यकार ने विदेशी लेखकों की जीवनी का अनुवाद कर प्रसिद्धि लाभ की, जिसमें महिला लेखकों ने अपना स्थान कायम रखा । अबला दुर्बला कही जाने वाली भारतीय महिला ने सामाजिक आर्थिक दृष्टि से उपेक्षित होकर भी कभी हार नहीं मानी । स्वतंत्रता से पहले संग्राम में हो या राजनीति, कभी भी वह पुरुषों के पीछे नहीं रही । कदम से कदम मिलाकर कंधे से कंधा मिलाकर चली हैं ।
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