भारत में नारी आन्दोलन- पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण मुद्दों पर आवाज़ उठाना|Feminist movement in Hindi
भारत में नारी आन्दोलन- पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण मुद्दों पर आवाज़ उठाना
भारत में नारी आन्दोलन- पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण मुद्दों पर आवाज़ उठाना
- 'सत्तर के दशक में देश के विभिन्न भागों में बड़े पैमाने पर महिलाओं का संघटन होते देखा गया; हालाँकि नारी दमन हेतु विशिष्ट मुद्दे एवं विश्लेषण मामले मामले के हिसाब से भिन्न भिन्न रहे। इस काल के अनेक आंदोलनों ने राज्य द्वारा अपनाए जाने वाली विकास नीति के बुनियादी सिद्धांतों को चुनौती दी। ये आंदोलन विद्यमान राज्यीय नीतियों हेतु विकल्पों के सशक्त कथन बन गए। उदाहरण के लिए चिपको आन्दोलन ने पर्यावरणीय आधार पर वाणिज्यिक वानिकी और वनाधारित औद्योगीकरण को चुनौती दी। साथ ही ये आंदोलन महिलाओं के प्रमुख सक्रिय प्रतिभागियों के रूप में सामने उठते ही एक नारी-विषिष्ट संदर्ष के रूप में विकसित हो गए।
चिपको आंदोलन
- चिपको आंदोलन व्यवसायिक हितों की खातिर अंधाधुंध पेड़ों की कटाई के विरुद्ध 'सत्तर के दषक के आसपास शुरू हुआ (हालाँकि इस आंदोलन के बीज ब्रिटिष काल में ही बोए जा चुके थे)। 'चिपको का अभिप्राय वृक्षों से चिपकने या लिपट जाने से ही है, जो कि गढ़वाल की महिलाओं ने सामूहिक रूप से वाणिज्यिक हितों के अंधाधुंध वनों की कटाई को रोकने के लिए किया। जबकि इस क्षेत्र के पुरुष स्वीकार करते थे कि सरकार को जंगल कटाई का विषेषाधिकार है, महिलाओं ने पारिस्थितिकीय आधार पर इसका विरोध किया। परवर्ती का कहना था कि वन जीवन के सार तत्त्व मिट्टी, जल व शुद्ध वायु से सीधे जुड़ा है। इस आंदोलन में पर्यावरणीय अपकर्ष का मुद्दा ऐसे अपकर्ष से ईंधन व चारे के लिए उन्हें अधिक मषक्कत करने से जुड़ा था, और यहीं से जन्मा यह विचार कि महिलाओं को अपने स्वयं की प्रकृति से जुड़ी गतिविधियों के आधार पर प्रकृति के प्रति एक विषेष रूप से पालन पोषण का रुझान रखने का अधिकार है।
- जब यूरोप का वन आवरण कम हो गया तो अंग्रेजों ने लकड़ी की आपूर्ति के लिए अपने उपनिवेषों की ओर देखा तदनुसार एक वन नीति अपनाई गई, जो कि वृक्षों की अंधाधुंध कटाई के पक्ष में थी। भारत के साथ भी यही हुआ। भारत में औपनिवेषिक काल में उपनिवेषवादियों की वन नीति के खिलाफ लोगों ने अपना विरोध जताया। यह नीति स्वतंत्रताप्राप्ति पष्चात् भी जारी रही और वाणिज्यिक एवं विकासात्मक गतिविधियों के चलते वनों की कटाई की जाती रही। लोगों ने मिलकर सरकारी नीति का विरोध किया। अंगु वृक्ष गिराने के लिए ठेकेदारों को अनुमति देने हेतु सरकारी निर्णय के खिलाफ लोगों ने विरोध और रोष प्रदर्षन किया। लोगों की माँग में शामिल थे वन दोहन की ठेकेदारी व्यवस्था की समाप्ति, वन अपादों की ग्रामवासियों को रियायती दरों पर आपूर्ति और वन राजस्व बंदोबस्त। उन्होंने वृक्षों की कटाई न करने देने की प्रतिज्ञा दोहराई।
- महिलाओं ने एक अनोखी रणनीति अपनाई जब भी ठेकेदार लोग पेड़ों की कटाई के लिए आते, ये महिलाएँ पेड़ों से आलिंगनबद्ध हो चिपक जातीं। महिलाओं ने विरोध प्रदर्शन के और भी कई शांतिपूर्ण तरीके अपनाए । केन्द्र सरकार ने अंततः महिलाओं की माँग मान ली और हरे पेड़ों की कटाई पर रोक लगाने का आदेष दे दिया। परंतु चिपको आन्दोलन वाणिज्यिक वन कटाई समाप्ति तक ही सीमित नहीं रहा। सक्रिय प्रतिभागी तदन्तर गाँवों में षिक्षा कार्य में जुट गए। महिलाओं में इस आन्दोलन से काफी आत्मविश्वास आ गया और अब वे इस स्थिति में थीं कि अपनी दीर्घकालीन आवष्यकताओं को स्पष्टतया व्यक्त कर सकें।
केरल में आदिवासी महिलाओं की सफलता कथा
- कुछ वर्ष पूर्व केरल के पालघाट स्थित एक छोटी-से उपग्रह प्लाचीमाड़ा में आदिवासी महिलाओं ने कोका-कोला के विरुद्ध एक आन्दोलन छेड़ दिया। प्लाचीमाड़ा में कोका कोला संयंत्र को मार्च 2000 में कोका-कोला, फैन्टा, स्प्राइट, लिम्का, थम्स अप, किन्ली सोडा, माज़ा, आदि की 12,24,000 बोतलें बनाने का आदेष प्राप्त हुआ। पंचायत ने पानी खींचने के लिए मोटर लगाने हेतु एक शर्त लाइसेंस जारी कर दिया। तथापि, कंपनी ने मृद पेयों की लाखों बोतलें बनाने के लिहाज से बिजली के पम्प लगाकर 6 से भी अधिक कुँए खोदकर गैर-कानूनी रूप से लाखों लीटर स्वच्छ जल खींचना शुरू कर दिया। स्थानीय लोगों के अनुसार, कोका-कोला कम्पनी 15 लाख लीटर जल प्रतिदिन खींच रही थी। परिणामतः जल-स्तर 150 फीट से गिर कर 500 फीट पर पहुँच गया। न सिर्फ कोका-कोला ने स्थानीय समुदाय का जल "चुराया बल्कि शेष जन को प्रदूषित भी कर दिया। कम्पनी अपना ठोस अपषिष्ट निपटाने के लिए कम्पनी के अहाते में ही सूखे कुँओं में अपजल छोड़ती थी। पहले वह यह अपषिष्ट कम्पनी के अहाते के बाहर जमा कर देती थी जो बरसात के मौसम में बहकर धान के खेतों, नहरों, व कुँओं में पहुँचता था और स्वास्थ्य को खतरा पैदा करता था। इसके परिणामस्वरूप 260 कुँए जो सरकारी अधिकारियों द्वारा पेय जन कृषि कार्यों के लिए खुदवाए गए थे, सूख गए ।
- वर्ष 2003 में जिला चिकित्सा अधिकारी ने प्लाचीमाड़ा के लोगों को बताया कि उनका जल पीने योग्य नहीं है। महिलाएँ पहले ही जानती थीं कि जल विषाक्त हैं अपने घरों में बने कुँओं से पानी खींचने की बजाय वे मीलों दूर से पानी लाया करती थीं । कोका-कोला ने एक पानी से भरपूर क्षेत्र में पानी का अभाव पैदा कर दिया था। प्लाचीमाड़ा की महिलाओं के यह "जल-डकैती" मंजूर नहीं थी। अतः उन्होंने कोका-कोला के दरवाज़ों पर "घरना" देना शुरू कर दिया। स्थानीय आदिवासी महिलाओं द्वारा इस आन्दोलन ने अपने समर्थन में लोगों में ऊर्जा की एक राष्ट्रीय और विष्वस्तरीय लहर पैदा कर दी। साल भर चली इस कानूनी लड़ाई में अनेक बार कंपनी का बंद होना- खुलना देखा गया । अन्ततोगत्वा वर्ष - 2006 में महिलाओं को जीत उस वक्त हासिल हुई जब केरल की वामपंथी सरकार ने राज्य में कोका-कोला के उत्पादन एवं उपभोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया।
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