स्वातंत्र्योत्तर काल में संस्थागत पहल और महिलाओं से जुड़े मुद्दे| issues related to women in India
स्वातंत्र्योत्तर काल में संस्थागत पहल और महिलाओं से जुड़े मुद्दे
स्वातंत्र्योत्तर काल में संस्थागत पहल और महिलाओं से जुड़े मुद्दे
- स्वतंत्रता पश्चात् के काल में समाज में महिलाओं के उद्धार के लिए संस्थागत पहल की एक श्रृंखला को प्रारम्भ किया गया। इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण पहल महिलाओं के लिए संवैधानिक प्रावधान और सामाजिक कानून तथा नियोजित आर्थिक विकास से संबंधित थी। इस समय के महिला आंदोलन इन विस्तृत सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं से पर्याप्त मात्रा में प्रभावित थे। आइए अब इन प्रक्रियाओं के कुछ महत्वपूर्ण पहलूओं और बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में इन्होनें महिला आंदोलन को किस ढंग से प्रभावित किया इसकी व्याख्या करें।
1 संवैधानिक प्रावधान और सामाजिक कानून
- स्वतन्त्र भारत के संविधान ने महिला समानता के आधारभूत सिद्धांत का अनुसरण उसी रूप में किया है जिस रूप में कराची कांग्रेस के मौलिक अधिकार प्रस्ताव में स्वीकृत किया गया था। अनुच्छेद 15 (3) उपबंध, जो राज्य को महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान बनाने का अधिकार देता है, यह सुझाव देता है कि महिलाओं की प्रतिकूल स्थिति को महसूस किया गया है और राज्य को आवश्यकता है कि उन्हें पुरुषों की बराबरी में खड़ा करने के लिए विशिष्ट उपायों को लागू करें। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान यह महसूस किया गया कि राष्ट्र की स्वतंत्रता के साथ महिलाओं की बहुत सी असमर्थताएँ और समस्याएँ, जिनके लिए औपनिवेशिक राज उत्तरदायी था समाप्त हो जाएगी। राष्ट्रीय सरकार ने उन सभी कानूनी असमर्थताओं को हटाने का जिम्मा उठाया जिनके द्वारा महिलाओं को बहुत कष्ट उठाने पड़े थे और हिन्दू परिवार कानूनों में महत्वपूर्ण सुधार करने का सूत्रपात किया था 1950 में कानूनी सुधारों ने हिन्दू महिलाओं को विवाह, उत्तराधिकार और संरक्षणता के विस्तृत अधिकार प्रदान किए। हालाकि ये कानूनी और सामाजिक यथार्थता के बीच की खाई को कम करने में असफल रहे। इसी प्रकार अन्य समुदायों जैसे मुस्लिम, ईसाई, पारसी, यहूदियों के परिवार कानूनों में परिवर्तन राजनीतिक प्रतिरोधों के कारण नहीं लाए जा सके जबकि राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत स्पष्ट रूप से समुदायों के लिए एक जैसे कानून की बात करते हैं।
- 1950 के दशक में इन वैधानिक उपायों के साथ महिला संगठन निष्क्रिय बन गए और स्वतंत्रता से पूर्व काल में दिखया गया उत्साह भी समाप्त हो गया था। इनमें क्रियाकलाप उनके अनुदान के अनुरूप बदल गए। इनमें प्रमुख थे जैसे वयस्क शिक्षा, बच्चों के लिए पोषण आहार कार्यक्रम, व्यवसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम के अंतर्गत सिलाई कक्षाएं और परिवार नियोजन कार्यक्रम। इनमें से अधिकांश संस्थाएँ शहरी थी और इनका नेतृत्व मध्यम और उच्च वर्ग की शिक्षित महिलाओं द्वारा किया गया। स्वातंत्र्योत्तर काल में ग्रामीण महिलाओं के लिए दो महत्वपूर्ण संस्थाएँ कस्तूरबा मैमोरियल ट्रस्ट और भारतीय ग्रामीण महिला संघ स्थापित की गई। इनका मुख्य उद्देश्य ग्रामीण महिलाओं में नेतृत्व क्षमता के विकास में सहायता करना था।
2 नियोजित विकास और महिलाओं से जुड़े मुद्दे
- स्वतंत्रता पश्चात् काल में यह अनुमान लागाया गया था कि आर्थिक विकास नीतियाँ जैसे कृषि विकास और आधुनिकीकरण, औद्योगीकरण, प्रौद्योगिकी विकास इत्यादि महिलाओं सहित प्रत्येक के लिए बेहतर जीवन प्रदान करेंगे। परन्तु संपूर्ण विकास रणनीतियाँ विद्यमान वर्ग, जाति और महिला पुरुष के बीच की असमानताओं की ओर ध्यान देने में असफल रही। भारत में नियोजित विकास ने सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को बढ़ाया है। आइए इस अवलोकन पर अधिक गहराई से विचार करें।
i) विकास नीतियों का जोर
- विकास नीतियों का प्रमुख ध्यान महिलाओं के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और कल्याण की व्यवस्था करना था। छठी पंचवर्षीय योजना तक महिलाओं की आर्थिक भूमिका के लिए नीतियों का निरंतर अभाव यह दर्शाता है कि महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता को कम प्राथमिकता दी गई। छठी योजना में पहली बार महिलाओं तथा विकास पर एक स्वतन्त्र अध्याय का समावेश किया गया। इसके अंतर्गत महिलाओं की परिस्थिति और हालात पर सामान्य तौर पर विचार किया गया और इससे यह निष्कर्ष निकला कि कानूनी तथा संवैधानिक गारंटी के बावजूद महिलाएँ लगभग हर क्षेत्र में पुरुषों से बहुत पीछे रह गई थी। पहली बार यह स्पष्ट तौर पर कहा गया कि आर्थिक स्वावलंबन से नारी की स्थिति में सुधार हो सकता है तथा यह सुझाव दिया गया कि जिला स्तर पर इकाईयाँ स्थापित की जाएं जो रोजगार प्रदान कर महिलाओं की सहभागिता को बढ़ावा दें। इसके बाद की पंचवर्षीय योजनाओं में महिलाओं की परिस्थिति सुधारने के लिए कार्यक्रम सुझाए गए। नौवीं योजना ने महिला सशक्तीकरण के लिए राष्ट्रीय नीति की आवश्यकता पर महिलाओं को सामाजिक परिवर्तन के प्रतिनिधि के रूप में सशक्त करने के लिए महिलाओं के आरक्षण की आवश्यकता पर भी चर्चा की गई। किन्तु यह कहना पड़ेगा कि योजनाबद्ध विकास में महिलाओं का हिस्सा अपेक्षा से बहुत ही कम है (सेठ 2001 )। इसके अलावा स्वतंत्रता पश्चात् के काल में आर्थिक विकास की प्रकृति ऐसी रही कि उससे केवल शहरी मध्यम तथा उच्च वर्ग के छोटे से भाग की महिलाएँ ही लाभान्वित हो सकी। इन महिलाओं की पहचान विधायकों, प्रशासकों, डाक्टरों, वकीलों, अध्यापिकाओं इत्यादि के रूप में सामने आई और इससे एक गलत विश्वास उत्पन्न हो गया कि महिलाओं ने बहुत उन्नति और समानता प्राप्त है कर ली है।
ii) महिलाओं की शैक्षणिक और आर्थिक स्थिति
- भारत में महिलाओं के मुद्दों पर वाद-विवाद के संदर्भ में महिलाओं की परिस्थिति पर गठित समिति की रिपोर्ट (1974) एक ऐतिहासिक घटना के रूप में सामने आई। • समिति ने महिला रोजगार में गिरावट के प्रमाण प्रस्तुत किए जो प्रौद्योगिकी परिवर्तनों, मालिक द्वारा महिला का स्थान पुरुषों और मशीनों को दिए जाने के कारण था। विशेष तौर पर अनुसूचित जाति, जनजाति, निर्धन ग्रामीण और शहरी महिलाओं के बीच निरक्षरता की उच्च दर को उनकी प्रशिक्षण सुविधाओं के अभाव के साथ जोड़ा गया। सन् 1981 में महिला साक्षरता की दर 29 प्रतिशत थी तथा 1991 और 2001 में यह बढ़कर क्रमश: 39.29 और 54.16 हो गयी थी। ग्रामीण क्षेत्रों में 1981 तथा 1991 में महिला साक्षरता दर क्रमशः 21 प्रतिशत तथा 30 प्रतिशत दर्ज की गई।
- भारत में महिलाओं की प्रस्थिति पर गठित समिति का विचार था कि आयोजकों ( योजनाकर्ता), सरकारी अधिकारियों नियोक्ताओं और ट्रेड यूनियन नेताओं ने मध्यम वर्ग की यह सोच-कि महिलाओं की मुख्य भूमिका केवल घर बनाने वाली के रूप में है ना कि रोजी रोटी कमाने वाली के रूप में उस सोच को बरकरार बनाये रखा था। इस प्रकार का विचार ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में गरीब वर्गों में रहने वाली लाखों महिलाओं के प्रति सच्चाई को नजर अंदाज करता है जो परिवार के जीवन निर्वाह के लिए काम करती हैं। लाखों ग्रामीण महिलाएँ अपने परिवार के खेतों पर और घर के अंदर अवैतनिक मजदूर के रूप में कार्य करती हैं, ईधन, चारा और पानी एकत्रित करती हैं, शिल्पकार, दस्तकार (बुनाई, बेंत, बांस इत्यादि के काम) के रूप में अपने पुरुषों के साथ काम करती हैं, परन्तु इन्हें एक कामगार के रूप में न मानकर सहायक के के रूप में माना जाता है। जब वे वेतन मजदूर के रूप में काम करती है तो उन्हें पुरुषों के मुकाबले कम वेतन दिया जाता है। सरकार ने समान पारिश्रमिक अधिनियम (1976) पास किया परन्तु यह अप्रभावी ही रहा। महिलाओं की आर्थिक भूमिका की उपेक्षा के निम्न परिणाम हुए।
- महिला मजदूरों का शोषण, पुरुषों और महिलाओं के बीच समान काम के लिए असमान मजदूरी तथा वस्त्र, खनन, विनिर्माण और घरेलू उद्योगों जैसे परम्परागत क्षेत्रों में काम के अवसर खत्म होने के कारण अधिक बेरोजगारी ।
3 महिलाओं का राजनैतिक प्रतिनिधित्व
- बहुत सी महिला नेताओं ने जिन्होने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया था, लोकसभा और राज्यसभा (संसद के दो सदन) तथा राज्य विधानसभाओं में महत्वपूर्ण पद प्राप्त किए। वे गवर्नर, मुख्यमंत्री, केबिनेट मंत्री बनी और महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हुई। इन्दिरा गाँधी प्राधानमंत्री बनी। राजनीतिक नेतृत्व के सभी स्तरों पर कुछेक महिलाओं की विशिष्टता और उच्च स्पष्टता के बावजूद भी महिलाएँ सही प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं कर सकी। लोकसभा या राज्य विधानसभाओं में उनकी संख्या कभी भी सात प्रतिशत से ज्यादा नहीं हो सकी। 13 वीं लोकसभा में अड़तालीस महिला सांसद थी।
- 1970 तथा 1980 के दशक में महिला संस्थाओं के राजनीतिक कार्यक्रम में एक कमजोरी यह थी कि ये साधारण महिलाओं और उनसे संबंधित मुद्दों में गतिशीलता नहीं ला सकी। जनसाधारण तक पहुँचाने के प्रयासों और महिला आंदोलन के आधार में विस्तार की कमी ने इनकी प्रभावशीलता और बदलाव के कार्यक्रम को सीमित कर दिया। किसान और मजदूर महिलाओं की स्थिति बिगड़ती चली गई और केवल थोड़ी-सी अल्पसंख्यक महिलाएँ ही इससे लाभ उठा सकीं। हालाकि, 73 वें और 74 वें संविधान संशोधन ने पंचायत स्तर पर स्थानीय शासन में महिलाओं को 33.33 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया।
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