इंग्लैंड में सत्रहवीं सदी के मध्य में औद्योगिक पूंजीवाद के आने के साथ ही महिलाओं को आश्चर्य हुआ कि नया समतावाद उनके लिए लागू क्यों नहीं हुआ (जेग्गार 1983: 27 ) । उदारवादी नारीवादियों का मानना है कि सभी मनुष्य बुद्धिसंपन्न कारक हैं और महिलाओं की अधीनता कुछ पारंपरिक मान्यताओं और कुछ कार्यों को करने में महिलाओं की अक्षमता की धारणा के आधार पर कानूनी बाधाओं के कारण है। जबकि पुरुषों को उनकी क्षमताओं के आधार पर आंका जाता है, कभी-कभी महिलाओं की क्षमताओं को उनके लिंग के कारण भी सीमित माना जाता है (जेग्गार 1983 176 ) ।
उदारवादी नारीवादियों का तर्क है कि पुरुषों और महिलाओं को समान अधिकार होना चाहिए और राज्य को ऐसे सुधार लाने चाहिए ताकि महिलाओं को पुरुषों के समान अवसर मिलें। उन्नीसवीं शताब्दी में उदारवादी नारीवादियों ने महिलाओं के संपत्ति के अधिकार के लिए आवाज उठाई और अमेरिका में एलिजाबेथ कैडी स्टैंटन जैसे महिला मताधिकारवादियों ने महिलाओं को मत देने के अधिकार के लिए संघर्ष किया, जो अंततः 1920 में महिलाओं को प्रदान किया गया। बीसवीं शताब्दी में उन्होंने उन कानूनों के खिलाफ संघर्ष किया जो महिलाओं के विपरीत पुरुषों को अधिक अधिकार देता था।
उदारवादी नारीवादियों का महिला उत्पीड़न पर विश्लेषण
1 मैरी वोलस्टोंनक्राफ्ट-का महिला उत्पीड़न पर विश्लेषण
उदारवादी नारीवादी मैरी वूलस्टोनक्राफ्ट (1759-1799) ने जॉन स्टुअर्ट मिल की पुस्तक 'सब्जेक्शन ऑफ वोमैन' में विंडिकेशन ऑफ़ दा राइट ऑफ़ वोमैन' नामक के लेख लिखा। उन्होंने उन महिलाओं के मुद्दों को संबोधित किया जिन्होंने औद्योगिक पूंजीवाद की आंधी के कारण अपनी सामाजिक स्थिति में गिरावट का अनुभव किया। उन्होंने कहा कि लड़कियों को लड़कों के समान शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए ताकि वे अपनी तर्कसंगत क्षमताओं को विकसित कर सकें।
कुछ आधुनिक दार्शनिकों (जेग्गार 1983 35) जैसे ह्यूम, रूसो, कांट और हेगेल को संदेह था कि क्या महिलाएं पूरी तरह से तर्कसंगत थीं। मैरी वोलस्टोनक्राफ्ट ने तर्क दिया कि महिलाएं पुरुषों की तरह ही सक्षम और तर्कसंगत थीं। उन्होंने कहा कि महिलाएं पूरी तरह से अपनी योग्यता का एहसास नहीं कर सकती थीं क्योंकि उन्हें शिक्षा से वंचित और घरेलू क्षेत्र तक ही सीमित रखा जाता था। उनके लिए महिलाओं की आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है लेकिन महिलाओं की अधीनता को समाप्त करने के लिए अंतिम उपाय नहीं है। उन्होंने दावा किया कि एक महिला को मन और शरीर से मजबूत होना चाहिए, एक पूरी तरह से तर्कसंगत मानस जो आत्मनिर्धारण के लिए सक्षम है (टोंग 1983 15 ) ।
2 हैरियट टेलर और जॉन स्टुअर्ट मिल- का महिला उत्पीड़न पर विश्लेषण
उन्नीसवीं शताब्दी में उदारवादी नारीवादियों के रूप में हैरियट टेलर और जॉन स्टुअर्ट मिल ने 1832 में अर्ली एस्सेज़ ऑन मैरिज एन्ड डिवोर्स' नाम की पुस्तक का सह-लेखन किया । 1851 में हेरिएट टेलर ने एन्फ्रान्चिस्मेंट ऑफ वोमैन' और 1869 में मिल ने सब्जेक्षन ऑफ वोमैन' लिखी। ये निबंध काफी हद तक विवाह और तलाक जैसे मुद्दों पर केंद्रित थे।
मिसाल के तौर पर हैरियट टेलर ने महिलाओं को कुछ ही बच्चे पैदा करने के लिए आगाह किया क्योंकि उन्हें लगा कि तलाक की स्थिति में महिलाओं को उन्हें अकेले पाले का दायित्व उठाना पड़ेगा। दूसरी ओर जॉन स्टुअर्ट मिल का मानना था कि तलाकशुदा पुरुषों और महिलाओं दोनों को ही बच्चों के जीवन में कुछ भूमिकाएं निभानी होती हैं।
हेरिएट टेलर और जॉन स्टुअर्ट मिल ने कहा कि लैंगिक न्याय लाने के लिए महिलाओं को पुरुषों के समान शिक्षा के अलावा राजनीतिक और आर्थिक अवसर भी उपलब्ध होने चाहिए। हैरियट टेलर ने कहा कि पत्नी तभी पति के समकक्ष हो सकती है जब वह घर से बाहर काम करके परिवार में आर्थिक रूप से योगदान दे लेकिन इसके लिए महिलाओं को घरेलू कामकाज और बच्चे के पालन-पोषण के लिए नौकरों की फौज की जरूरत होगी। उदारवादी नारीवादियों जैसे मैरी वोलस्टोनक्राफ्ट और हैरियट टेलर की महिलाओं के विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के मुद्दों को संबोधित करने के लिए आलोचना की जाती है।
टेलर और मिल दोनों ने महिलाओं के मताधिकार प्राप्त करने की दिशा में काम किया और माना कि यह मताधिकार ही है जो व्यक्तियों को सामाजिक व्यवस्था को बदलने की शक्ति देता है। जे.एस. मिल ने महिलाओं को मताधिकार दिलाने की दिशा में कार्य करना प्रारंभ किया क्योंकि उनका मानना था कि केवल तभी महिलाएं व्यक्तिगत परिवारों की बजाय बड़े समाज की भलाई की दिशा में कार्य कर सकेंगी। हालांकि उनका मानना था कि सही मायने में स्वतंत्र हुई महिलाओं का झुकाव परिवार और बच्चे के पालन-पोषण की ओर ज्यादा होगा।
नेशनल आर्गेनाइजेशन फॉर वोमैन ( एन ओ डब्ल्यू)
बीसवीं शताब्दी में अन्य विद्रोही उदारवादी नारीवादियों ने दावा किया कि मताधिकार के अलावा महिलाओं को आर्थिक अवसरों, यौन स्वतंत्रता और नागरिक स्वाधीनता की भी आवश्यकता है। 1960 में महिलाओं के मुक्ति आंदोलन के उदय के साथ ही कई नारीवादी दृष्टिकोण रहे जिन्होंने महिलाओं की अधीनता की व्याख्या की और इसने नारीवाद को भी मज़बूत किया। इस प्रकार 1960 के दशक में नेशनल आर्गेनाइजेषन फॉर वोमैन ( एन ओ डब्लू) का गठन किया गया जो तर्क देता है कि लैंगिक न्याय तभी प्राप्त किया जा सकता है जब पुरुषों और महिलाओं के बीच संसाधनों का समान वितरण हो (टोंग 2009: 2 ) |.
बेट्टी फ्राइडन जिन्होंने 'द फेमिनिन मिस्टिक' लिखी थी, को 1966 में एन ओ डब्लू की पहली अध्यक्षा चुना गया। बेट्टी फ्राइडन ने लिखा कि किस प्रकार लड़कियों और लड़कों के साथ अलग-अलग व्यवहार किया जाता है और कैसे जन्म के समय से ही लिंग आधारित कार्य का अस्तित्व है। फ्राइडन ने बड़े पैमाने पर अमेरिकी उपनगरों की श्वेत मध्यम वर्गीय शिक्षित महिलाओं के मुद्दों को संबोधित किया, जिन्होंने मां और पत्नी की परंपरागत नैत्यकवादीय भूमिकाओं को असंतोशजनक पाया। फ्राइडन ने माना कि सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं के एकीकरण से पुरुषों और बच्चों को गृहकार्य में कुछ भागीदारी निभाने के लिए प्ररित करेगा। उन्होंने कहा कि महिलाएं यदि केवल एक माँ और पत्नी होने के अलावा भी विचार करें तो वे एक पूर्ण मानव व्यक्तित्व भी हो सकती हैं, और वह कार्यबल में भी समन्वित हो है ( टोंग 2009: 31 )। हालांकि, फ्राइडन की आलोचना उस जटिलता को न देखपाने के लिए की जाती है जिसका सामना महिलाएं समाज में संरचनात्मक परिवर्तन लाए बिना परिवार और कामकाजी जीवन के बीच सामंजस्य बैठाने के प्रयास में करती है।
उदारवादी नारीवादी निजी क्षेत्र में राज्य का हस्तक्षेप कम चाहते हैं, लेकिन उनका मानना है कि संपत्ति के अधिकार की गारंटी, मतदान के अधिकार और बोलने की स्वतंत्रता जैसे मामलों में सार्वजनिक क्षेत्र में राज्य का हस्तक्षेप होना चाहिए। दूसरी ओर समकालीन उदारवादी नारीवादी, विशेष रूप से कल्याणकारी उदारवादी अर्थव्यवस्था में विशेष रूप से उन परिवारों को जिनमें आश्रित सदस्य हैं को कानूनी सहायता प्रदान करने या कम लागत में आवास प्रदान करने के लिए सरकार के हस्तक्षेप का आह्वान करते हैं।
उदारवादी नारीवादियों का मानना है कि उभयलिंगिता एक आदर्श है जो मनुष्य को अपनी पूरी मानव क्षमता विकसित करने की अनुमति देता है। एक उभयलिंगि समाज वह होगा जिसमें पुरुष और महिला शारीरिक रूप से पुरुष और महिला तो होंगे लेकिन वे अत्यंत पुरुष और स्त्री गुणों को नहीं दिखाएंगे जो पारंपरिक रूप से पुरुषों और महिलाओं में होते हैं। यदि पुरुषों और महिलाओं को अपनी क्षमता विकसित करने के समान अवसर दिए जाएंगे तो उन्हें पुरुषों के साथ जुड़े तर्कसंगतता, स्वावलम्बी आक्रामक, साहसी, असंवेदनशील और भावनाओं की अभिव्यक्ति से विमुख और महिलाओं के साथ जुड़े सहज, निर्भर, दयालु और भावनात्मक जैसे पारंपरिक मनोवैज्ञानिक लक्षणों के रूप में परिभाशित नहीं किया जायेगा।
Post a Comment