मराठा शक्ति का उदय सैद्धांतिक ढाँचा | मराठा शक्ति का उदय और विद्वानों के दृष्टिकोण | Maratha Shakti Ka Uday
मराठा शक्ति का उदय सैद्धांतिक ढाँचा
मराठा शक्ति का उदय सामान्य परिचय
- मराठा शक्ति के उदय पर बातचीत करने से पहले, आइए आपको मराठा इतिहास के स्रोत और मराठों द्वारा शासित प्रदेश के भूगोल से परिचित करा दें।
स्रोत
- इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण मराठी ग्रंथ 1694 ई० में सभासद द्वारा लिखित शिवाजी की जीवनी (बखर) है। चित्रगुप्त ने इसे और विस्तृत किया। रामचंद्र पंत आमात्य द्वारा लिखित शम्भाजी का अदनापात्र या मराठशाहितिल राजनीति (1716) अन्य ऐसे प्रमुख मराठी ग्रंथ है जिनमें शिवाजी से लेकर शम्भाजी तक की घटनाओं का जिक्र किया गया है। जयराम पिण्डे के राधामाघव विलास चम्पू (संस्कृत) भी एक अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसमें मुख्य रूप से शिवाजी के जीवन का वर्णन किया गया है। भीमसेन की नुस्खा ए दिलकुशा (फारसी) में भी मुगल-मराठा संबंधों की जानकारी दी गयी है।
भूगोल
- महाराष्ट्र प्रदेश में सहयाद्री पहाड़ी श्रृंखला (जिसे पश्चिमी घाट के नाम से भी जाना जाता है) और पश्चिमी समुद्र तट के बीच स्थित कोंकण प्रदेश शामिल है, सहयाद्री श्रृंखला के शीर्ष पर घटमाथा है, और निचली घाटी का देस क्षेत्र शामिल है। इसके उत्तर में पश्चिम की ओर सहयाद्री पर्वत श्रृंखला है जबकि पूर्व से पश्चिम तक सतपुड़ा और विध्य पहाड़ी श्रृंखलाएं हैं। इसके पहाड़ी-किले प्राकृतिक सुरक्षा प्रदान करते थे। सामरिक रूप से यह भारत का सर्वश्रेष्ठ किलाबंद क्षेत्र है। इसकी पर्वत शृंखला और अभेद्य दुर्ग व्यावहारिक रूप से आक्रमणकारियों के लिए अभेद्य थे। इस इलाके की भूमि कृषि की दृष्टि से कम उपजाऊ है। परंतु इसकी प्राकृतिक संरचना ने यहां के लोगों को मेहनती और से कठोर बना दिया। दक्खनी पठार की जमीन काली और उपजाऊ है। हालांकि यहां वर्षा कम होती है, परंतु इस क्षेत्र में फसल अच्छी होती है।
मराठा शक्ति का उदय और विद्वानों के दृष्टिकोण
मराठा शक्ति का उदय सैद्धांतिक ढाँचा
- मराठा शक्ति के
उदय के संदर्भ में विद्वानों ने विभिन्न प्रकार के दृष्टिकोण और राय प्रस्तुत की
है। ग्रांट डफ इसे ही के जंगलों में विद्रोही गतिविधियों के परिणाम के रूप में
देखते हैं। परन्तु एम. जी. रानाडे का मानना है कि यह एक आकस्मिक घटनाक्रम से कहीं
कुछ ज्यादा था। वे इसे विदेशी शासन के खिलाफ "राष्ट्रीय संघर्ष" के रूप
में देखते हैं। यह विचार इस आधार पर विवादग्रस्त हो जाता है कि अगर मुगल विदेशी थे
तो उतने ही विदेशी बीजापुर और अहमदनगर के शासक भी थे। अगर मराठा एक शक्ति का
आधिपत्य स्वीकार कर सकते थे तो मुगलों का क्यों नहीं?
- जदुनाथ सरकार और जी. एस. सरदेसाई मराठा शक्ति के उदय को औरंगजेब की "साम्प्रदायिक" नीतियों के खिलाफ "हिंदू" प्रतिक्रिया के रूप में देखते हैं। किंतु सतीश चन्द्र का मानना है कि शिवाजी ने अकबर की "सुलह कुल" की नीति की प्रशंसा की। उनके अनुसार हिंदू प्रतिक्रिया के तर्क का आधार भी बहुत ठोस नहीं है। यहां तक कि उनके आरंभिक संरक्षक मुसलमान ही थे, जैसे कि बीजापुर और अहमदनगर के शासक। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र के बाहर शिवाजी ने कभी भी हिंदुओं के हित या कल्याण के लिए लड़ाई नहीं लड़ी। यहां तक कि महाराष्ट्र के भीतर भी वे सामाजिक सुधारों की ओर ध्यान न दे सके! दूसरी ओर महाराष्ट्र के बाहर वे हिंदू किसानों से कठोरता से पेश आये और उन्हें निर्ममता से लूटा। यह भी तर्क दिया जाता है कि अपने राज्यारोहण के समय उन्होंने हिन्दू धर्मोद्धारक की पदवी धारण की थी वह इस काल के लिए कोई नयी चीज नहीं थी।
- आन्द्रे विक का मानना है कि दक्खन के सुल्तानों पर पड़ते मुगल दबात के परिणामस्वरूप मराठों का उदय हुआ। यहां तक कि ग्रांट डफ भी उनके उदय में मुगल तत्व को स्वीकार करते हैं। परन्तु उनके उदय में यही तत्व शामिल नहीं था अन्य तत्व भी इसमें क्रियाशील थे।
- सतीश चन्द्र मराठों के उदय में सामाजिक-आर्थिक तत्वों की भूमिका पर बल देते हैं शिवाजी की सफलता का राज अपने इलाके के किसानों को संगठित करना था। आम मान्यता यह है कि उसने जागीरदारी और जमींदारी प्रथा समाप्त कर किसानों के साथ सीधा सम्पर्क स्थापित कर उन्हें शोषण से मुक्त किया था। परंतु सतीश चन्द्र का मानना है कि वह इस प्रथा को पूरी तरह समाप्त नहीं कर सका। उसने बड़े देशमुखों की ताकत कम कर दी, गलत प्रथाओं को सुधारा और आवश्यक निरीक्षण की व्यवस्था की। इस प्रकार उसने पुरानी व्यवस्था में ही सुधार किया और उसे अच्छा बनाया।
- इसके अलावा उसने देशमुखों की सैनिक संख्या कम करके उनकी सैनिक जिम्मेदारी भी कम कर दी। यही मुख्य कारण था कि शिवाजी की सैन्य शक्ति बड़े देशमुखों की "सायंती सेनाओं" पर आधारित नहीं थी। बड़े देशमुखों पर निर्भर छोटे भूमिपतियों को शिवाजी की इस नीति से लाभ हुआ। वस्तुतः ये छोटे भूमिपति ही उसकी शक्ति थे। उदाहरण के लिए, शिवाजी का सबसे पहले पक्ष लेने वाले मावले के देशमुख मूलतः छोटे भूमिपति ही थे। जावली के मोरे, उतरौली के खोपड़े और फल्टन के निम्बालकर भी छोटे भूमिपति ही थे। इसके अलावा शिवाजी ने कृषि के विस्तार और विकास पर बल दिया। इससे किसानों के साथ-साथ खास तौर पर इन छोटे भूमिपतियों को भी फायदा हुआ।
- जमीम पर हक हासिल करने के लिए बड़े, मंझोले और छोटे देशमुखों, मिरासियों (खेतिहर मालिक) और उपरासियों (बाहरी किसान) के बीच संघर्ष हुआ करता था। अपने वतन को बढ़ाना उनका एक जुनून था। उस समय जमीन पर नियंत्रण के आधार पर ही राजनैतिक सत्ता निर्धारित होती थी।
- इरफान हबीब मराठा शक्ति के उदय और शोषित किसानों की विद्रोह चेतना के बीच एक प्रकार का संबंध देखते हैं।
- मराठा आंदोलन के उदय में सामाजिक तत्व भी निहित हैं। शिवाजी ने शिर्के, मोरे, निम्बालकर जैसे प्रमुख देशमुख परिवारों से वैवाहिक संबंध स्थापित कर अपने परिवार का सामाजिक दृष्टिकोण से स्तर ऊपर उठाने की कोशिश की। इस प्रकार उसने दोहरी नीति अपनायी, एक तरफ उसने बड़े देशमुखों की राजनैतिक शक्ति में कटौती की और दूसरी तरफ उनके सामाजिक स्तर तक पहुंचने के लिए उनसे वैवाहिक संबंध भी स्थापित किये। राज्यारोहण (1674 ई.) द्वारा उसने न केवल अन्य मराठा जातियों से अपने परिवार को ऊँचा दर्जा दिलवाया बल्कि अपने को दक्खनी शासकों के समकक्ष पहुंचा दिया।
- बनारस के ब्राह्मण गागा भट्ट की सहायता से अपने को सूर्यवंशी क्षत्रिय का सर्वोच्च सामाजिक स्तर हासिल करना इस दिशा में एक सोचा-समझा हुआ प्रयास था। शिवाजी ने अपने परिवार के लिए न केवल सूर्यवंशी क्षत्रिय की वंशावली तैयार करवायी जिसमें अपने परिवार को उसने इंद्र से जोड़ा। बल्कि उसने क्षत्रिय कुलवतम्सा (क्षत्रिय परिवारों का आभूषण) की उपाधि भी ग्रहण की। इस प्रकार मराठा परिवारों के बीच अपना सामाजिक स्तर ऊँचा करके उसने सरदेशमुखी वसूल करने का एकाधिकार हासिल कर लिया। अब तक शिर्के, घोरपडे आदि के संरक्षण में अन्य मराठा परिवार अधिकार का उपयोग किया करते थे।
- इन सबसे यह स्पष्ट होता है कि उस समय मराठा समाज में सामाजिक तनाव व्याप्त था। वे मुख्य रूप से किसान और लड़ाकू जाति के लोग थे । परंतु उन्हें क्षत्रिय स्तर प्राप्त नहीं था। अतः शिवाजी के सामाजिक आंदोलन से एक महत्वपूर्ण कार्य यह हुआ कि इसके कारण मराठा और कुनबी (खेतिहर वर्ग) आपस में जुड़ गये। शिवाजी के इर्द-गिर्द इकट्ठा होने वाले कुनबी कृषक, कोली और मावल प्रदेश के अन्य कबीले सामाजिक पदानुक्रम में अपना स्तर उठाने की इच्छा रखते थे। अतः मराठों का उदय विदेशी शासन के जुए को उतार फेंकने की इच्छा का परिणाम मात्र ही नहीं था बल्कि इसकी जड़ें गहरे सामाजिक-आर्थिक कारणों में समाई हुई थीं।
- उनके उदय के लिए बौद्धिक और वैचारिक ढाँचा भक्ति आंदोलन से प्राप्त हुआ जो "महाराष्ट्र धर्म" के रूप में रूपायित हुआ। इससे मराठों को एक सांस्कृतिक पहचान बनाने में भी मदद मिली। भक्ति संतों के समतावादी सिद्धांत से इन्हें बल मिला। इसके बल पर ये व्यक्तिगत या सामूहिक तौर पर वर्णानुक्रम में अपने स्तर को बढ़ाने की गतिशीलता को न्यायोचित ठहरा सकते थे। सिंधिया जैसे साधारण मूल के मराठों का सामाजिक स्तर पर आगे बढ़ना इस आंदोलन की सफलता का प्रमाण है।
- इस समय अनेक समूहों ने वर्णानुक्रम में अपनी स्थिति बेहतर कर ली और राजनैतिक शक्ति प्राप्त करने के अपने अधिकार को वैधता प्रदान करने की कोशिश की। एम. जी रानाडे (बाद में वी. के. राजवडे द्वारा समर्थित) के विचार में मराठों की राजनैतिक स्वतंत्रता "महाराष्ट्र धर्म" का ही परिणाम थी। इसे उन्होंने सहिष्णु (उदारवादी) हिंदुत्व के खिलाफ जयष्णु (आक्रामक) हिंदुत्व के रूप में व्याख्यायित किया है। "महाराष्ट्र धर्म की सर्वप्रथम चर्चा 15वीं शताब्दी की रचना गुरूचरित में मिलती है किंतु यहां इसे एक महान् प्रबुद्ध राज्य की एक नैतिक नीति के संदर्भ में उल्लेखित किया गया है।
- इसे राजनैतिक मोड़ देन का श्रेय 17वीं शताब्दी के संत-कवि रामदास को जाता है जिन्होंने तुर्की अफगान-मुग शासन के खिलाफ विचार व्यक्त किए थे। शिवाजी ने इसका लाभ उठाया। उन्होंने "महाराष्ट्र धर्म" के वैचारिक वक्तव्य का उपयोग दक्खनियों और मुगलों के खिलाफ किया। मराठों की धार्मिक निष्ठा तुलाजा भवानी, विठोबा और महादेव के प्रति थी। "हर हर महादेव" का युद्धनाद मराठा किसानों के हृदय को छूता था। परंतु जैसा कि पी. वी. रानाडे ने सही कहा है कि "मुस्लिम प्रभुत्व के खिलाफ हिंदू शत्रुता मध्यकालीन भारतीय राजनैतिक दृश्य का न तो प्रमुख प्रेरक कारक था न ही यह कोई उल्लेखनीय तत्व था।" इस विचारधारा का खोखलापन इस तथ्य से सिद्ध होता है कि शिवाजी और अन्य मराठा सरदार चोथ और सरदेशमुखी (एक वैघ लूट) अपनी सीमा के बाहर के क्षेत्रों से इकट्ठा करते थे। वस्तुतः इसने मराठा विस्तार के आरंभिक चरण में किसानों को इकट्ठा करने में "मनोवैज्ञानिक संबल" की भूमिका निभाई।
- यह मानना भी कठिन प्रतीत होता है कि शिवाजी "हिंदू स्वराज्य की स्थापना करना चाहते थे। वस्तुतः यह केन्द्रीकृत मुगल साम्राज्य के विरुद्ध एक क्षेत्रीय प्रतिक्रिया थी। मराठा अपने लिए एक बड़ा राज्य स्थापित करना चाहते थे। अहमदनगर के निजाम शाही शासन के पतन और मुगलों के आगमन ने इसके लिए आदर्श पृष्ठभूमि प्रदान की। सामान्यतया इसके सामाजिक-आर्थिक अंतर्विरोध से स्थानीय भूमिपतियों को इकट्ठा करने में मदद मिली।
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