पश्चिम में आधुनिक नारी विमर्श |Modern Feminism in the West in Hindi
पश्चिम में आधुनिक नारी विमर्श Modern Feminism in the West in Hindi
पश्चिम में आधुनिक नारी विमर्श
- आज नारी विमर्श एक देश, जाति या धर्म का आंदोलन नहीं है । बीसवीं सदी में इसने अनेक रूप लिए और अनेक ढंग से चर्चा हुई । उनमें कुछ नामों की चर्चा की जा रही है :
1) लिबरल फेमिनिज्म-
- अमेरिका में जे एफ कनेडी ने 1961 में 'कमीशन आन द - स्टेटस आफ वीमन' गठित किया । पर काम बहुत ढीला चला तो वहीं बेटी फायडन आदि ने 'सिविल राइट्स संगठन' और 'नेशनल आर्गनाइजेशन फार विमन' गठित किया । संस्था का गठन 1966 ई. में हुआ । इनमें कामकाजी महिलाएँ थी । ये लिबरल फेमिनिज्म की विश्वासी थी । इन्होंने जेएस मिल से प्रेरणा ली । जो कहते है भार ढोने में महिला उन्नीस है । परंतु बौद्धिक और नैतिक क्षमता एक है ।
- ये राजनीतिक समानता हेतु लड़ें। वोट दें, चुनाव लड़ें। संपत्ति में समान अधिकार हो । ये भोली-भाली से अब समधिकार संपन्न होने लगी।
2) रेडिकल फेमिनिज्म
- 1968 में टाइग्रेस एटकिंसन के नेतृत्व में लिबरल ग्रुप रैडिकल ग्रुप से अलग हुआ । छिटपुट सुधारों से क्या हो ? यह लड़ाई पुरुष से नहीं पितृसत्तात्मक समाज से है। योजनाबद्ध ढंग से एक-एक संस्था में (जैसे परिवार, चर्च, युनिवर्सिटी, विधान सभा) राजनैतिक और आर्थिक ढंग से संरचनात्मक परिवर्तन घटायें । साहित्यिक आलोचना में "Images of women" इन्हीं रेडिकल फेमिनिज्म का चलाया है। विवाह तथा मातृत्व को मंथन कह कर जो छूट चाहें, मिलनी चाहिए । वे कहते हैं- गर्भधारण को बार्बरिक, अपने जन्मित शिशु के प्रति प्रेम को अंधा प्रेम कहा है । यहाँ तक कि इस धारा में पोर्नोग्राफी, वेश्यावृत्ति, बलात्कार, मारपीट, सती, •पर्दा, डायन दहन आदि शोषणों का आधार नारी देह है । सेक्स स्टीरियोटाइप तोड़ने को महत्व दिया । स्त्रियों के लिए कौमार्य, आत्मतृप्ति (Autoeroticisim) या लेस्बियनिज्म को उचित मान कर इन सब की वकालात की है।
- पितृसत्तात्मक समाज में यह धारणा है कि स्त्रियाँ क्रीतदासी या पण्य (Commodity ) की तरह उनकी पहुँच के भीतर रहने को लाचार है । स्त्रियों को पीठासीन देवी कह कर चरण छूते रहने से भी बात नहीं बनती - भारती इतिहास में इसके अनेक उदाहरण हैं । समझौते की बात पुरुषों की ओर से होनी चाहिए । वरना यह पृथकतावादी खाई बढ़ती जायेगी ।
3) मनोविश्लेषणात्मक स्त्रीवाद -
- यह सारा चिंतन फ्रायड से जुड़ा है । वहाँ पर वे कहते हैं कि शिश्न-बोध होते ही पुरुषों में प्राकूएडिपीय अवस्था के अत्यधिक मातृमोह से सायास मुक्त होने की कठिन प्रक्रिया शुरू हो जाती है । इसमें वह सामाजिकता, अनुशासनप्रियता और निर्णयात्मकता से भर जाता है । स्त्रियों को इस प्रक्रिया से गुजरना नहीं पड़ता । इसलिए वे कम अनुशासित कम सामाजिक और कोमल तथा कमजोर रह जाती हैं ।
- नेंसी शोदोरोव (प्रसिद्ध महिला मनोवैज्ञानिक) ने अनेक स्त्रियों की मातृमूलक संवेदनाओं का सूक्ष्म अध्ययन कर पूरी प्रक्रिया का विश्लेषण किया है । स्त्रियों को मां से अलग अपना प्रोजेक्ट करने की जरूरत नहीं होती ( शारीरिक तादात्म्यबोध के कारण) अतः इसका प्रभाव उनके व्यक्तित्व पर अच्छा पड़ता है । जिससे उनका जुड़ाव होता है, उनसे यह जुड़ाव पूरा होता है । किसी तरह के भावनात्मक स्खलन की शिकार वे जल्दी नहीं होती । पर, समर्पित और विलीन होने की उनकी क्षमता कई बार उनकी स्वतंत्र अस्मिता के विकास में वाधक होती है । प्राक्एडीपीय संवेदनाओं का प्रभाव ऐसा होता है कि स्त्री पुरुष में कुछ तात्विक स्वभावगत अंतर हो जाता है
- नस्ल (Race) एवं वर्ग (Class) भी संवेदनाओं को प्रभावित करनेवाले तत्व हैं । इलिजावेद स्पेलमेन ने Gender in the context of Race and class में इस पर चर्चा की है । श्वेत - अश्वेत, संपन्न - विपन्न माताओं की अंतश्चेतना बच्चों की अंतश्चेतना पर अलग-अलग ढंग से प्रभाव डालती है। अश्वेत / विभिन्न माताएँ अपने बच्चों को ज्यादातर जो कहानियां सुनाती हैं, वे दुखांत होती हैं - आने वाले दिनों में जो परेशानी और पराभव अन्यायपूर्ण व्यवस्था के कारण उनके हिस्से आना है, उसके लिए उन्हें तैयार करने वाली कहानियां । लेकिन समृद्ध देशों की खुशहाल, निश्चित माताएँ अपने बच्चों का मनोबल मजबूत करने वाली सुखांत परी कथाएँ सुनाती हैं ।
4) मार्क्सवादी / समाजवादी स्त्रीवाद -
- स्त्री के संदर्भ में फ्रेडरिक एंजेल्स ने "The origin of the Family, Private property and the stati" लिखा है । वे कहते हैं कि स्त्री का शोषण वहाँ से शुरू हुआ, जहाँ से बैयक्तिक संपत्ति का प्रावधान है । उत्पादन के साधनों पर जिन थोड़े-से लोगों का प्रभुत्व हुआ, वे मर्द थे और ‘कार्पोरेट कैपिटलिज्म' तथा इंपीरियलिज्म के साथ मेल शावेनिज्म उन्हीं की देन है पितृसत्तात्मक समाज के मूल में है पूंजीवाद यदि हर वर्ग, हर समुदाय की स्त्रियों का अभ्युदय होना है - वर्ग विशेष की चुनी हुई स्त्रियों का नहीं तो पूंजीवादी व्यवस्था ही ध्वस्त कर देनी होगी । समाजवादी व्यवस्था में किसी का किसी पर आर्थिक परावलंबन होना ही नहीं, तो स्त्रियाँ भी पुरुषों के शोषण चक्र से मुक्त हो लेंगी और तब वे किसी पुरुष से अपना संबंध जोड़ेंगी तो उस वरण को परिसीमित और कलंकित करने वाला कोई आर्थिक आधार नहीं होगा ।
- सोसलिस्ट फेमिनिस्ट नहीं मानते कि औरतों का कामकाजी होना ही उन्हें पुरुषों के समकक्ष बना देगा । मार्क्सवादी फेमिनिस्ट मानती हैं स्त्रियों की इस दुर्दशा की जिम्मेदार उत्पादन की संरचना (Struc- ture of production ) है । हीदी हार्टमेन (The unhappy Marriage of Marxism and F) में कहते हैं “वर्ग, रिजर्व आर्मी आफ लेबर, वेज लेबर आदि अवधारणाएँ इसकी व्याख्या नहीं कर पाती कि स्त्रियां अधीनस्थ कैसे हुई । जो रिश्ता मजदूरों का पूंजीपतियों से होता है, कमोबेश वही रिश्ता स्त्रियों का पुरुष से होता है ।
- साधनों का नियंत्रण स्त्रियों पर दलबद्ध नियंत्रण का स्रोत बनता है। क्योंकि पूंजीवाद और पितृसत्तात्मक समाज का गठबंधन पुराना है। कई बार ऐसी स्थिति हो जाती है स्त्रियों के बारे में - पितृसत्तात्मक समाज और पूंजीवादी शक्तियों का स्वार्थशोधक संबंध अलग-अलग ढंग से विकसित हो जाता है । जैसे - I9वीं सदी में इंग्लैंड का मजदूर यूनियन चाहता था कि उनकी स्त्रियां घर में रह कर उनकी अधिकाधिक देखभाल करें, शाम को वे थक कर घर लौटें तो चायपानी के साथ इंतजार करती मिलें, जब कि पूंजीपति निकाय चाहता था कि उनकी स्त्रियों के सिवा और सारी स्त्रियां बेजलेबर बाजार का हिस्सा बनें ।
- पूंजीपतियों ने सामधान निकाला- पूरे परिवार के लिए 'फैमिली वेज' देने लगे । उनका तर्क था -पत्नी-बच्चे घर पर रहेंगे तो श्रमिकों का शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य सुधरेगा, वे परितृप्त भी रहेंगे । एक बार तृप्ति देकर उन पत्नी बच्चों को कम मजदूरी पर भी बाजार में खींच सकते हैं। क्योंकि सुविधापरस्ती एक बार रक्त में आ गई, तो निन्याववे का फेर वैसे भी लग जाता है । इस प्रकार घर के सिवा काम के स्थान पर स्त्रियों का दर्जा बदला- ज्यादा तनखावाली महत्वपूर्ण जगह पर पुरुष स्थापित हुए। कम तनख्वाह वाले काम स्त्रियों पर आ गए। अमरीका में औसत कार्यक्षेत्र में स्त्रियों की प्रति व्यक्ति .69 डालर की कमाई पर आज भी पुरुष एक डालर कमाते हैं। कई सर्वेक्षणों में से यह सामने आया है कामगार स्त्रियों के पति की अपेक्षा घर में रहने वाली स्त्रियों के पति घरेलू कामकाज में ज्यादा मददगार साबित होते हैं । इसमें मनोविज्ञान यह है वे वहाँ अपना प्रतिद्वंदी नहीं देखते, पूरा अपने अधीन देखते हैं । खिलाएंगे तो खायेंगी, नहीं खिलाएंगे तो भूखी मर जायेंगी इस करुण तथ्य से ही उनके अहं की पुष्टि बेहतर होती है ।
- हर्टमेन कहते हैं- स्त्रियों की लड़ाई के मोर्चे दो होने चाहिए - पितृसत्तात्मकता से घर में, और पूंजीवादी ताकतों से बाहर याने 'बराबर मजदूरी की बराबर पगार' और 'तुलनीय काम की तुलनीय पगार' - दोनों जरूरी है ।
- गरीब परिवार तीसरी दुनिया के देशों में ज्यादातर स्त्री मुखिया के अधीन चलते हैं । अत: उन्हें भरपूर मजदूरी के अलावा शैक्षिक, कानूनी और चिकित्सकीय सहायता भी समय-समय पर मिलती रहे तो एक सम्मानजनक स्वतंत्र जीवन जीने में मदद मिलेगी ।
5) पोस्टमाडर्न फैमिनिज्म-
- उत्तर आधुनिक मान्यताओं के मूल में केंद्र बहुलता वर्ग, नस्ल और संस्कृतियों के अनुसार स्त्री का अनूभूतिमंडल बदलता रहा है । किसी एक केंद्रीय, सतत, ठोस सत्य की उद्घोषणा स्त्री संदर्भ में भी असंभव है- पितृसत्तात्मक व्यवस्था ही सामान्यीकरण का दम भर सकती है। क्योंकि उसे बातों की सूक्ष्म तरंग पकड़ने का अभ्यास नहीं रहा । द्विपद विलोमों की शृंखला खड़ी कर रखी है। उन्हीं खानों में फिट करके वह चीजों को तोलती - परखती रही ।
ऐसे द्विपद विलोमों की सूची -
पुरुष - स्त्री
सजग -सुस्त
संस्कृति - प्रकृति
दिन- रात
ऊँचा - नीचा
लिखित - मौखिक
- इस सूची से स्पष्ट है द्विपद में एक उच्चाशय तो दूसरा निम्नाशय है । एक मूल है - दूसरा उसकी विकृति । प्रति कृति है । स्त्रियों की मान्यता अभी भी दोयम दर्जेवाली चीजों में है भाषा-पितृसत्तात्मक समाज की भाषा - उनके साथ न्याय नहीं करती, उनके प्रति पूर्वग्रह रखती है, इसलिए स्त्रियों को चाहिए कि भावात्मक द्वारा भाषा की सरहदें तोड़े । उनका मानना है कि पुरुष अपने पूर्वग्रहों और बासी तथ्यों को लेकर एकपक्षीय कुछ लिखते हैं । स्त्रियों का लेखन भी उनकी यौन-तंत्रियों की तरह भांति-भांति की झंकृतियों से भरा हुआ है, दूध की रोशनाई से उत्कीर्ण वैविध्यपूर्ण और प्रवाहपूर्ण होता है.
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