प्रोक्ति किसे कहते हैं |प्रोक्ति की संकल्पना | प्रोक्ति के प्रमुख भेद | Prokti Kise Khate Hain
प्रोक्ति क्या है , प्रोक्ति की संकल्पना, प्रोक्ति के प्रमुख भेद
प्रोक्ति किसे कहते हैं
- भाषा का काम केवल विचारों या भावों की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है बल्कि उसके माध्यम ये कही गयी बात को श्रोता तक सम्प्रेषित करना भी है। अपनी बात को सार्थक ढंग से कहने, श्रोता द्वारा उसे ठीक से समझने फिर उसका उचित जवाब देने की प्रक्रिया में एक से अधिक वाक्य सामने आते हैं जो अर्थ और प्रसंग की दृष्टि से एक दूसरे से सम्बद्ध रहते हैं। इस स्थिति में ही दो लोगों के बीच सम्प्रेषण सम्भव हो पाता है। सम्प्रेषण की इस इकाई को ही 'प्रोक्ति' कहा जाता है।
प्रोक्ति की संकल्पना
- आप जानते हैं कि वक्ता द्वारा विचारों को प्रकट करने और श्रोता द्वारा उसे सही सन्दर्भ और सही अर्थ में समझने में ही सम्प्रेषण सार्थक होता है। सम्प्रेषण में सन्दर्भ की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। क्योंकि वाक्य में सन्दर्भ की भिन्नता होने से अर्थ भी भिन्न हो जाता है।
उदाहरण के लिए एक वाक्य के विभिन्न सन्दर्भ देखें -
तुमने बहुत अच्छा किया ?
सन्दर्भ - 1
(व्यंग्य के अर्थ में)
माँ : क्या गिराया ?
बेटा : माँ, कप टूट गया।
माँ :तुमने बहुत अच्छा किया।
बेटा:
माँ : माँ,
बेटा : मैने आज एक अन्धे की मदद की।
माँ: तुमने बहुत अच्छा किया।
इसी तरह एक अन्य उदाहरण के लिए एक वाक्य देखें-
‘दस बज गए हैं।'
इस वाक्य का सामान्य अर्थ समय की जानकारी देना है किन्तु निम्नलिखित वार्तालाप में देखा जाय तो इसका अर्थ भिन्न हो जाता है-
पिता : बेटा, दस बज गए हैं।
पुत्र : बस पिताजी, अभी चलता हूँ।
यहाँ पिता, पुत्र से कहना चाहता है कि 'देर हो रही है।' अर्थात यह संदेश पिता अप्रत्यक्ष कथन के रूप मे पुत्र को दे रहा है। पुत्र इस संदेश का सन्दर्भ ग्रहण कर उचित उत्तर देता है । सन्दर्भ की जानकारी के अभाव में इस सन्देश के अन्य सम्भावित उत्तर भी हो सकते थे
पिता : बेटा, दस बज गए हैं।
पुत्र :
(1) तो मैं क्या करूँ ?
(2) यह घड़ी आगे चल रही है।
- स्पष्ट है कि विचारों का आदान-प्रदान तभी हो सकता है जब वक्ता और श्रोता दोनों को सन्दर्भ की जानकारी हो । अतः प्रोक्ति की संक्लपना के बारे में हम सार रूप में इस प्रकार समझा सकते हैं - 'प्रोक्ति किसी संदेश को संप्रेषित करने वाली वाक्य के ऊपर की वह इकाई है जिसका आधार - संलाप होता है। विचारों के आदान-प्रदान के लिए यह एक से अधिक वाक्यों की कड़ी के रूप में सामने आता है क्योंकि सभी वाक्य एक दूसरे के जुड़ने पर ही एक विशेष संदर्भ में सार्थकता पाते हैं। अर्थात उन सबके बीच एक व्यवस्था का होना आवश्यक होता है।'
प्रोक्ति के प्रमुख अभिलक्षण -
प्रोक्ति के संबंध में की गई उपर्युक्त चर्चा के आधार पर हम निम्नलिखित तथ्यों का उल्लेख कर सकते हैं -
1. जिस प्रकार वाक्य शब्दों के समूह से बनता है, उस प्रकार प्रोक्ति वाक्यों के समूह से बनती है। इसीलिए इसे वाक्य के ऊपर की इकाई माना गया है।
2. सभी वाक्यों का आपस में संबंध होना आवश्यक है। यदि वाक्यों के बीच पूर्वापर संबन्ध नहीं है तो उसे प्रोक्ति का उदाहरण नहीं माना जा सकता।
3. वक्ता/लेखक द्वारा बोला गया वाक्य सार्थक होना चाहिए जिसका अर्थ या भाव ग्रहण कर श्रोता/पाठक उत्तर दे सके। निरर्थक वाक्यों का प्रोक्ति में स्थान नहीं होता। अर्थात जिस अभिव्यक्ति से विचारों का आदान-प्रदान न हो, उसे प्रोक्ति नहीं माना जा सकता।
4. प्रोक्ति का स्वरूप उसके आकार से निर्धारित नहीं होता, बल्कि उसके प्रकार्य से निर्धारित होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रोक्ति अपने आप में पूर्ण होती है। इसका संबंध एक शब्द, एक वाक्य, पूरी एक घटना, प्रसंग या पूरे जीवनवृत से हो सकता है। प्रोक्ति की संरचना का आधार संलाप होता है। इसीलिए संलाप को प्रोक्ति की सार्थक इकाई स्वीकार किया जाता है।
6. प्रोक्ति में संप्रेषणीयता का तत्व विद्यमान रहता है, जो संदर्भ (context) की माँग करता है। यही संदर्भ वक्ता/लेखक और श्रोता/पाठक के कथन या संदेश को एक दूसरे से जोड़ता है।
7. संप्रेषण की इकाई होने के कारण प्रोक्ति संदेश को श्रोता तक केवल पहुँचाती ही नहीं, बल्कि श्रोता की प्रतिक्रिया को वक्ता तक भी पहुँचाती है। इसके कारण ही संलाप की स्थिति बन पाती है। वास्तव में संप्रेषण का सशक्त और स्वाभाविक माध्यम संलाप है।
8. प्रोक्ति के माध्यम से विचारों को विभिन्न रूपों में तथा तर्क संगत ढंग से अभिव्यक्त के किया जा सकता है।
9. किसी संप्रेषण प्रक्रिया में वक्ता/लेखक, श्रोता/पाठक, संदेश, संदर्भ, अभिव्यक्ति के मौखिक/लिखित रूप तथा कोड का होना अनिवार्य है।
- निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि 'भाषिक संप्रेषण की इकाई प्रोक्ति है।'
प्रोक्ति के प्रमुख भेद
- आप यह समझ गए हैं कि प्रोक्ति में संवाद अनिवार्य है क्योंकि इसका सम्बन्ध भाषा व्यवहार से है। भाषा व्यवहार दो या दो से अधिक लोगों के बीच होता है जिसे 'संलाप' कहते हैं। जहाँ एक ही व्यक्ति वक्ता और श्रोता होता है, वहाँ 'एकालाप' होता है। प्रायः भावावेश की स्थिति में एकालाप की स्थिति होती है।
अतः मोटे तौर पर प्रोक्ति के दो प्रमुख भेद किए जा सकते हैं-
1 संलाप
2 एकालाप
वक्ता और श्रोता की भूमिका के आधार पर संलाप और एकालाप के भी दो-दो उपभेद किए जा सकते हैं -
1. संलाप - (1) गत्यात्मक संलाप (2) स्थिर संलाप
2. एकालाप (1) गत्यात्मक एकालाप (2) स्थिर एकालाप
अब हम भेदों और उपभेदों पर क्रमशः विस्तार से चर्चा करेगें।
संलाप की संकल्पना
- सभी तरह के भाषा व्यवहार संलाप के अन्तर्गत आते हैं। इसके लिए कम - से कम दो व्यक्तियों का होना आवश्यक है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि 'संलाप भाषा व्यवहार की वह इकाई है जिसमें कम से कम दो पात्रों (वक्ता और श्रोता) के बीच विचारों का परस्पर आदान-प्रदान होता है।' संलाप में वक्ता तथा श्रोता के अनुभवों में साम्य होना जरूरी है। नहीं तो सम्प्रेषण में बाधा आयेगी। इसे दो उदाहरणों से समझा जा सकता है।
माँ : बेटा, क्या कर रहे हो ?
बेटा : स्कूल का काम कर रहा हूँ।
माँ: बहुत देर हो गयी है।
बेटा : बस, अभी सोता हूँ।
यहाँ माँ-बेटे में अनुभव की समानता के कारण संवाद सहज रूप में हो रहा है। अब दूसरे उदाहरण देखें -
व्यक्ति :क्या चाय में चीनी डाली है ?
चाय वाला :
व्यक्ति :
चाय वाला :ओह, मैं समझा चीनी और चाहिए।
- यहाँ व्यक्ति और चाय वाले के अनुभवों में समानता नहीं है। इसलिए सम्प्रेषण में कठिनाई हो रही है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि विचारों के आदान-प्रदान अथवा संलाप के लिए वक्ता और श्रोता के बीच मानसिक स्तर पर भी साम्य होना जरूरी है।
जैसा कि हम पहले बता चुके हैं कि वक्ता और श्रोता की भूमिका के आधार पर संलाप के दो उपभेद होते हैं -
1. गत्यात्मक संलाप
2. स्थिर संलाप
1.गत्यात्मक संलाप -
- इसमें वक्ता तथा श्रोता सक्रियता से आगे बढ़ते हैं। यदि सक्रियता न हो तो संलाप आगे बढ़ ही नहीं सकता साथ ही इसमें वक्ता श्रोता की भूमिका बदलती रहती है। अर्थात वक्ता जो कहता है, उसे सुनकर श्रोता जवाब देता है, तब श्रोता वक्ता की भूमिका में आ जाता है और उसकी बात सुनने के कारण वक्ता, श्रोता हो जाता है।
2. स्थिर संलाप -
- गत्यात्मक संलाप की तुलना में स्थिर संलाप में श्रोता की भूमिका सक्रिय नहीं होती अर्थात वक्ता तो सक्रिय रहता है किन्तु श्रोता निष्क्रिय ही रहता है। वह अपने विचार उस रूप में प्रकट नहीं कर सकता जिससे संलाप आगे बढ़ सके। साथ ही स्थिर संलाप में वक्ता व श्रोता की भूमिका भी नहीं बदलती । रेडियो व दूरदर्शन आदि में प्रसारित होने वाले समाचार जैसे कार्यक्रम स्थिर संलाप के उदाहरण हैं।
एकालाप -
- ऐसे अवसरों पर जहाँ भावावेश में व्यक्ति स्वयं से कहता है और स्वयं ही उत्तर भी देता है, एकालाप की स्थिति होती है। इसमें भी वक्ता और श्रोता की स्थिति बनी रहती है। अन्तर केवल इतना ही है कि श्रोता वहाँ कोई दूसरा व्यक्ति नहीं होकर स्वयं वक्ता ही होता है।
संलाप की तरह एकालाप के भी दो भेद किए गए हैं
1. गत्यात्मक एकालाप
2. स्थिर एकालाप
1. गत्यात्मक एकालाप
- इस प्रकार के एकालाप में वक्ता ही स्वयं से प्रश्न करता है और स्वयं ही उसका उत्तर देता चलता है। इस प्रकार एक ही व्यक्ति वक्ता और श्रोता की भूमिका निभाता है। ऐसा लगता है कि मानों दो व्यक्ति परस्पर बातें कर रहे हों।
उदाहरण देखें - "कौन जाने कल क्या हो ? कल त्याग पत्र देने के बाद कौन जानता है कि क्या होगा ? सम्भव है यहाँ रहना न हो। तब क्या होगा ? क्या कहीं बाहर जाया जाएगा ? क्या पता ? सरो, गुणवंती, सुशीला, देवव्रत का क्या होगा? नहीं, यह नहीं हो सकता कि ये लोग अनाथ हो जाएँ। लेकिन माँ हैं ही। पिता चाहे अनासक्त हों, लेकिन माँ उन्हें अभी भी संबंधों से घेरे हुए हैं।' (यह पथ बंधु था)
2. स्थिर एकालाप
- गत्यात्मक एकालाप की तुलना में स्थिर एकालाप में वक्ता स्वयं से प्रश्न नहीं करता बल्कि स्थिर विचार के रूप में एक के बाद एक अपने भाव प्रकट करता है। स्थिर एकालाप को प्रायः 'स्वगत कथन' भी कहा जाता है। सैद्धान्तिक रूप से इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है किन्तु सूक्ष्म अन्तर यह है कि स्वगत कथन किसी को सुनाने के लिए नहीं होता जबकि एकालाप में व्यक्ति अपने मनोभावों को प्रकट करने के लिए स्वयं से बातें करता अर्थात वह स्वयं वक्ता और श्रोता होता है। स्वगत कथन में व्यक्ति केवल वक्ता होता है, श्रोता नहीं।
उदाहरण देखे -
- ‘सरो सवेरे से देर राम ऐसे ही, बस ऐसे ही बिताती रहती है। उस पर भी किसी को दर्द नहीं। दिनभर पलगँ पर बैठकर पान खाते हुए, हुकुम चलाते हुए भाभी को यह दर्द नहीं कि अब तो तीसरा पहर हो गया। खुद तो जाने क्या-क्या दवाइयों के नाम पर खा-पी लेती हैं तो भूख नहीं लगती, लेकिन इस बे-टके के चाकर को तो भूख लग सकती है न ?” (यह पथ बंधु था)
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