भारत में महिलाओं की जन-भागीदारी हेतु मुद्दे |महिलाओं के संगठन एवं संघटन|Public Participation of Women in India
भारत में महिलाओं की जन-भागीदारी हेतु मुद्दे
भारत में महिलाओं की जन-भागीदारी हेतु मुद्दे
- भारत में नारी आन्दोलन के मुद्दों को औपनिवेशिक अतीत के पृष्ठपर और स्वतंत्रता पश्चात विकासशील राष्ट्र की पदास्थिति वाले एक लोकतांत्रिक समाजवादी दंश के रूप में समझना होता है।
- आधुनिक युग में भारतीय महिला जन भागीदारी की शुरुआत 18वीं शती उत्तरार्ध एवं 19वीं शती पूर्वाद्ध में हुई जैसा कि पहले कहा गया, 19वीं शती पूर्वार्द्ध में महिला संघटन हेतु मुख्य मुद्दा औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ था; शताब्दी के अंत तक आते-आते उनका विषेषाधिकार समाज-सुधार हो गया। तभी से महिला संघटन का एकाग्रता केन्द्र काल-विशेष से संबंधित मुख्य मुद्दों पर निर्भर करते हुए नानाविधि रूप से बदलता रहा।
- यद्यपि ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने इस काल में अभिजात्य और गैर-अभिजात्य महिलाओं की राजनीतिक वचनबद्धता को गहराई से प्रभावित किया, उनकी प्रतिबद्धता के स्वरूप एवं उद्देष्यों पर उसका प्रभाव बहुत भिन्न था। गैर- अभिजात्य महिलाएँ ब्रिटिष उपनिवेष वादियों के खिलाफ लड़ी।
- अपने बच्चों को भूख से तड़पते देख अपनी आजीविका के एक मात्र साधन यानी जमीन के अंग्रेजों द्वारा हड़प लिए जाने, उन् दमनकारी कराधानों से कराह उठीं महिलाओं ने पुरुषों के साथ मिलकर 18वीं शती उत्तरार्ध एवं 19वीं शती पूर्वार्द्ध में दुर्भिक्ष विद्रोहों के साथ-साथ 19वीं शताब्दी में हुए अन्य कई विप्लवों में भी हिस्सा लिया।
19वीं सदी के सुधारवादी आन्दोलन में महिलाएँ
- भारत में सुधारवादी आन्दोलन जो 19वीं शती उत्तरार्ध के आसपास शुरू हुआ, अधिकांष रूप में भारतीय समाज एवं परिवार के प्राधार को प्रभावित करते परिवर्तनों से जुड़े हैं। 19वीं शताब्दी के सुधारकों का ध्यान आकृष्ट करने वाले कारण थे समाज में अपनाई जाने वाली उत्पीड़नकारी प्रथाएँ, जैसे सती प्रथा, विधवाओं से किया जाने वाला दुर्व्यवहार, विधवा पुर्नविवाह पर प्रतिबंध, बहुपत्नी प्रथा, बाल विवाह और महिलाओं को संपत्ति अधिकारों से इंकार। ये बुराइयाँ विशेष तौर पर भारतीय नारीत्व के प्रति दुष्प्रयुक्त थीं।
- 19वीं शती - उत्तरार्ध में समाज सुधार एवं महिलाओं के लिए सामाजिक न्याय के प्रवर्तक अपेक्षाकृत उच्च जातियों एवं वर्गों से आये अधिकांषतः शिक्षित एवं प्रबुद्ध पुरुष थे जिन्होंने समानता, स्वतंत्रता एवं राष्ट्रीयता आदि विचारों को आत्मसात किया, जो कि उनके सुषिक्षित हो जाने का ही परिणाम ।
- इस प्रकार, विशेष रूप से 19वीं शताब्दी में संस्कृतियों के संघर्ष भारतीय समाज के परंपरागत प्राधारों एवं पाष्चात्य शिक्षा के बीच के रूप में महिला-अधिकारों हेतु माँगों की अभिव्यक्ति देखी गई। इस काल के समाज सुधारकों, जैसे राजा राममोहन राय, ईष्वरचंद्र विद्यासागर, ज्योतिबा फुले, आदि ने देष के विभिन्न भागों में समाज के पुनरुद्धार और दमनकारी सामाजिक प्रथाओं की समाप्ति हेतु माँग उठाई।
- ब्रह्म समाज व प्रार्थना समाज जैसे आन्दोलनों तथा आर्य समाज रामकृष्ण मिशन एवं रानाडे द्वारा शुरू किए गए पुनर्जागरणवादी आन्दोलनों ने समाज सुधार के लिए भरसक प्रयास किए। इन सुधारों के मुख्य मोर्चे थे नारी षिक्षा, महिलाओं को संपत्ति अधिकारों का दिया जाना और विवाह रूढ़ियों में सुधार। उनका मानना था कि ये सब उपाय सामाजिक सुधार का अंग है और केवल महिलाओं के ही नहीं अपितु समस्त समाज के उत्थान के लिए आवश्यक हैं।
- अपनी साथी बहनों के उत्थान के लिए आह्वान से प्रेरित हो, महिलाएँ मुख्यतः जो अभिजात्यों परिवारों से आई थीं, इस आन्दोलन में शामिल हो गईं। वास्तव में, एक तरीके से तत्कालीन समाज के सामाजिक परिवेष ने महिलाओं की जन भागीदारी में काफी मदद की। 19वीं शताब्दी के अंत तक, भारत में अंग्रेजों की विजय के कारण तेजी से आए परिवर्तनों के परिणामस्वरूप, मुट्ठी भर महिलाएँ ऐसी थीं जो सुषिक्षित, सुव्यक्त और सक्रिय थीं, जिसने परिणामतः सार्वजनिक गतिविधियों में उनके शामिल होने की ओर प्रवृत्त किया।
- ग्रामीण परिवेश में जीवन पर घर का प्रबल प्रभाव रहता है पुरुषों के लिए भी और महिलाओं के लिए भी । बढ़े शहरीकरण और औपनिवेषिक शासन से जुड़े नए व्यवसायों की वृद्धि के चलते रोज़गार घर से उत्तरोत्तर दूर होता गया। इस परिवर्तन के समान्तर ही नई शैक्षिक, धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं की स्थापना हुई। चूँकि परिवार अपने गाँवों से निकल कर अब शहरों की ओर आ गए, उन्होंने विदेशियों से अपने संपर्क बढ़ा लिए और परंपरागत घरेलू कार्यकलापों का अपकर्ष देखने में आया।
- ऐसे परिवारों की कुछ लड़कियाँ शिक्षा संस्थाओं, इतर-परिवारिक मामलों पर होने वाली सामाजिक सभाओं और नए धार्मिक समारोहों में भाग लेने लगीं। ये "नयी नारियाँ" जो कि उन्हें संज्ञा दी गई, एक आधुनिकीकरण आन्दोलन का हिस्सा थीं ( फोर्ब, जिराल्दें 1996 में उद्धृत)। महारानी तमस्विनी, पंडिता रमाबाई, स्वर्ण कुमारी देवी, रानी माताजी, फ्रेंकीना सोरबजी, लेडी हरनाम सिंह, एनी बेसेन्ट, चिम्ना बाई, हन्सा मेहता, धवन्ती रामाराव, मुत्थु लक्ष्मी रेड्डी, सिस्टर निवेदिता, आदि कुछ प्रमुख विभूतियाँ थीं जिन्होंने देश के विभिन्न भागों में आन्दोलन छेड़े या उनमें शामिल हुई।
क्या आप जानते हैं?
समाज-सुधार आन्दोलन और सामाजिक विधान
औपनिवेशिक काल का समाज सुधार आन्दोलन मुख्य रूप से पुरुषों द्वारा शुरू किया गया और दिषानिर्दिष्ट हुआ महिलाओं की स्थिति सुधारने की ओर । इस काल के सुधार आन्दोलन ने सामाजिक विधानों का एक सिलसिला शुरू कर दिया। उदाहरण के लिए, 1818 में शुरू हुआ राजा राममोहन राय का सती प्रथा के विरुद्ध अभियान 1829 में सती प्रथा को निषेध करते एक सरकारी अधिनियम में परिणत हुआ। ईष्वर चंद्र विद्यासागर द्वारा समर्थित विधवा पुनर्विवाह हेतु आन्दोलन हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 और विवाह योग्य आयु विधेयक, 1891 में परिणत हुआ। अंग्रजी हुकूमत के दौर में अन्य प्रमुख अधिनियम जो महिलाओं की स्थिति सुधारे जाने पर अभिलक्षित थे, इस प्रकार थे: जाति अयोग्यता निवारण अधिनियम 1850, तृतीय विषेष विवाह अधिनियम 1872, विवाहित महिला संपत्ति अधिनियम 1874, बाल विवाह रोकथाम अधिनियम 1929, हिन्दू आय लाब्ध अधिनियम 1930 हिन्दू महिला संपत्ति अधिकार अधिनियम 1937, ईसाई विवाह आन्नद विवाह अधिनियम 1939 |
- इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य था सती की अपमानजनक प्रथा पर रोक लगाना, बाल विवाह पर रोक लगाना व विधवा पुनर्विहाह को बढ़ावा देना तथा उभनते मध्यवर्ग की आवश्यकताओं के अनुसार ही पत्नी और माँ की भूमिकाएँ निभाने हेतु नारी शिक्षा को प्रोत्साहन देना । नारी षिक्षा को समाज में महिलाओं की सामजिक स्थिति सुधारने हेतु मुख्य मुद्दे के रूप में देखा गया, हालाँकि मुख्य उद्देष्य के रूप में ज़ोर बेहतर कुषलता वाली परिवारिक भूमिकाओं को निभाने हेतु महिलाओं को तैयार करके पारिवारिक प्राधार को मजबूत करने पर रहा। प्रयास था महिलाओं को बेहतर पत्नियाँ एवं माताएँ बनाने का, अथवा कह सकते हैं सर्वगुणसंपन्न पत्नी की भूमिका को पुनर्परिभाषित करने का मुख्य रूप से महिलाओं के जीवन को प्रभावित करने वाली सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध संघर्ष में ज़ोर नारी समानता पर इतना नहीं था, बल्कि समाज में महिलाओं व पुरुषों की विलगता और संपूरकता पर अधिक था। उन्होंने न तो पितृसत्तात्मकता को चुनौती दी, न ही उन मूलभूत प्राधारों की आलोचना की जो समाज में महिलाओं को गौण समझते थे। तिस पर भी ऐसे प्रभावों ने बाद में नारी संघर्षों के उद्गमन हेतु नींव डालने का काम आसान किया।
क्या आप जानते हैं?
यद्यपि सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई और समाज में उनकी स्थिति में प्रगति संकेत अधिक मिलने लगे जिस माहौल में ये महिलाएँ रहती थीं, बहुत रुखा और गैर-दोस्ताना होता था। जब महाराष्ट्र की प्रथम महिला उपन्यासकार, काषीबाई कनित्कर, और प्रथम योग्यता प्राप्त महिला निर्देषक आनन्दी बाई जोशी पहली बार जूते पहनकर और छाता लेकर बाहर निकलीं तो गली में लोगों ने उन पर पत्थर मारे, क्यों कि जूते और छतरी जैसे पुरुष प्रतीक इस्तेमाल करने की उन्होंने गुस्ताखी की थी।
2 महिलाओं की सामाजिक प्रतिबद्धताएँ और राष्ट्रवादी आन्दोलन
- महात्मा गाँधी के आह्वान पर स्वतंत्रता हेतु राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने को जीवन के हर स्तर से महिलाएँ चाहे वे अभिजात वर्ग की हों या फिर जन साधारण वर्ग की एक जुट हो गयीं। स्वतंत्रता आन्दोलन में अनेक प्रकरण देखने में आए। इनमें कुछ थे 1921-22 के असहयोग आन्दोलन एवं खिलाफत आन्दोलन, 1930-31 का सविनय अवज्ञा आन्दोलन, 1931 का नमक सत्याग्रह, 1941 का व्यक्ति सत्याग्रह आन्दोलन, और 1941 का भारत छोड़ो आन्दोलन । महिलाओं ने बड़ी संख्या में इन आन्दोलनों में भाग लिया। महिलाएँ राष्ट्रीय पोषाक स्वरूप हाथ से कती और हाथ से बुनी खादी के वस्त्र ही पहना करती थीं और नमक बनाया करती थीं। उन्होंने दमनकारी नमक कानूनों के अवज्ञा स्वरूप नमक कर भी नहीं चुकाए। उन्होंने शराब और विदेषी कपड़ों की दुकानों दिया, विलायती कपड़ों की होली जलाई, लाठियाँ खाई और जेल भी गईं। स्वतंत्रता आन्दोलन के जेलयात्रियों में लगभग दस प्रतिषत महिलाएँ ऐसी थीं जिनकी गोद में दुधमुँहे बच्चे थे। वे महिलाएँ जो जेल नहीं गईं अथवा आन्दोलन की गतिविधियों से सीधे नहीं जुड़ी थीं, अपने आदमियों के जेल में रहते परिवार का बोझ सहर्ष उठाती रहीं। इसके अतिरिक्त, उन्होंने सतत विकास संबंधी गाँधीवादी विचारधारा पर आधारित वैकल्पिक जीवन स्वयं को समर्पित कर दिया।
क्या आप जानते हैं?
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में महिला भागीदारी की वीरगाथा लगभग 19वीं शती पूर्वार्ध से आरंभ मानी जा सकती है। अंग्रेजी शासकों के खिलाफ लड़ने वाली कुछ महिलाएँ काफी विख्यात् हैं। सन् 1817 में भीमाबाई होल्कर ने ब्रिटिश कर्नल मैल्कम का डटकर मुकाबला किया और छापामार युद्ध में उसे हरा दिया। 1924 में कित्तूर की रानी चेन्नम्मा ने ईस्ट इंडिया कंपनी की सषस्त्र शक्ति का बहादुरी से सामना किया। झांसी की रानी ने 1858 में हँसते-हँसते अपनी जान न्यौछावर कर दी। 1857-1858 के महाविप्लव में महिलाओं द्वारा निभाई गई भूमिका की प्रसंषा अंग्रेजों तक ने की। सर ह्यू रोज़ ने झाँसी की रानी को उस समय की सबसे वीर महिला और राजद्रोहियों का सर्वोत्तम सेनापति बताया। स्रोत : उषा बाला 1986
- महिलाएँ अपनी सभाएँ गलियों में किया करती थीं। राष्ट्रीय कोष के लिए उन्होंने अपने आभूषण तक दे दिए। उस समय की महिला नेताओं ने नारी षिक्षा में सुधार लाने के साथ साथ भारतीय राष्ट्रीयता के सिद्धांत को भी बढ़ावा दिया। महिला भागीदारी के बिना स्वदेषी आन्दोलन को सफलता नहीं मिल सकती थी। उन्होंने महात्मा गाँधी के नेतृत्व में बड़ी संख्या में सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लिया। प्रथम विष्वयुद्ध की समाप्ति तक महिलाएँ देष के सामाजिक राजनीतिक मामलों में काफी रुचि दिखाने लगीं। उन्होंने बड़ी संख्या में गाँधी जी के असहयोग और सविनय अवज्ञा आन्दोलनों में भी हिस्सा लिया। इस प्रकार, स्वाधीनता संग्राम में उनकी बहुपक्षीय भागीदारी ने सिद्ध कर दिया कि देष के लिए आज़ादी हासिल करना पुरुषों की ही जिम्मेदारी नहीं थी और जिम्मेदारी सौंपे जाने पर वे पुरुषों के समान ही सफलतापूर्वक मार्गानुसरण कर सकती हैं।
3 महिलाओं के संगठन एवं संघटन
- 20वीं शती की शुरुआत के साथ ही भारत में नारी नेतृत्व में महिलाओं हेतु अनन्य अनेक संगठन क्षितिज पर उभरे। वर्ष 1913 के आरंभ में नलिनी दत्त, एक उच्च वर्ग एवं जाति से आयी शिक्षित भारतीय महिला ने बंगाल के कई कस्बों / नगरों में महिला समितियाँ शुरू की।
- वर्ष 1910 में अभिजात्य पृष्ठभूमि की ही सरलादेवी चौधरानी ने भारत स्त्री महामंडल की स्थापना की इस दौर में अखिल भारतीय स्तर के अन्य कई संगठन अस्तित्व में आये। एनी बेसेंट ने 1917 में मद्रास में महिला भारत संघ (WIA) की स्थापना की। उन्होंने भारतीय महिलाओं से होमरूप लीग और स्वदेषी आन्दोलन में शामिल होने का आग्रह किया।
- लेडी अबरदीन और लेडी टाटा ने 1925 में राष्ट्रीय महिला परिषद् (NCWI) की स्थापना की। मार्गरेट कजन्स के प्रयासों से 1927 में अखिल भारतीय महिला सम्मेलन (AIWC) की स्थापना हुई। इन सभी संगठनों ने स्वयं को महिलाओं की सामाजिक समस्याएँ दूर करने व उन्हें शिक्षित करने से जोड़ा। इसके साथ उनसे निकलकर एक सषक्त राष्ट्रवादी प्रवृत्ति जन्म हुआ।
- राष्ट्रवादी आन्दोलन में भाग लेते और राजनीति मुद्दों को उठाते समय ये संगठन नारी अधिकारियों को पाने के लिए भी उठ खड़े हुए। वर्ष 1917 के आरंभ में ही महिला भारत संघ ने महिला मताधिकार का मुद्दा उठाया। इसके लिए समर्थन जुटाना कुछ हद तक सफल रहा और यह भारत सरकार अधिनियम 1917 के अंगीकरण को प्रभावित कर सका, जिसने महिलाओं को सीमित मताधिकार प्रदान कर दिया। महिलाओं को पत्नीत्व, संपत्तिस्वामित्व एवं षिक्षा लब्धि, आदि शर्तों पर आधारित प्रान्तीय विधानसभाओं में वोट देने का अधिकार दे दिया गया। तदन्तर इस अधिनियम में दो बार संषोधन किए गए ताकि वोट देने का अधिकार महिलाओं समेत समाज के अन्य कई तबकों को भी दिया जा सके।
- यह सामाजिक एवं शैक्षिक परिप्रेक्ष्य में काम करते हुए अखिल भारतीय महिला सम्मेलन के मूल उद्देष्यों में से एक था षिक्षा प्रणाली में सुधारों की माँग करने हेतु महिलाओं को संगठित करना (मैत्रेयी 1992)। इसने समाज को महिलाओं हेतु पुरुषवत् शिक्षा के राजनीतिक खतरे के प्रति आगाह किया, जो कि उन व्यवसायों के लिए अंततः एक असमान संघर्ष में परिणत हो सकता था जिनके लिए अंत में इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता था कि पुरुष कहीं अधिक उपयुक्त हैं।
- अंग्रेजों को देश से निकाल बाहर करने के लिए राजनीतिक दलों व राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ काम करते हुए महिला संगठन नारी स्वतंत्रता को भारत की स्वतंत्रता से जोड़ रही थीं। नारी संगठनों के दबाव के जवाब में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1931 में अपने कराची अधिवेशन में स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात त् लिंग समानता और वयस्क मताधिकार के सिद्धांत अपनाने का वचन दिया। तदन्तर, समानता संबंधी ये प्रतिज्ञाएँ भारतीय संविधान में भी जारी रखी गईं।
- हालाँकि लिंगों के बीच समानता का मूल सिद्धांत संवैधानिक कानून में विहित किया गया, व्यवहार में सभी अनियमितताओं और भेदभाव को दूर नहीं किया गया। भारत में महिलाएँ निरंतर घर के अंदर और बाहर भेदभाव के अनेक रूपों का षिकार बनी रहीं (इलिना सेन) । ये लिंग आधारित भेदभाव व अन्य कई सामाजिक मुद्दे तदन्तर व्यापक नारी संघटन हेतु आधार बन गए।
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