नारीवादी सिद्धान्त का एक महत्वपूर्ण योगदान 'यौन' (sex) तथा लिंग (gender) के बीच विभेद करना है। यौन पुरुष और नारी के बीच जीव विज्ञानीय विभेद है और लिंग, उस मौलिक विभेद के साथ जुड़े अनेक सांस्कृतिक अर्थों के विस्तृत क्षेत्र को इंगित करता है। नारीवाद के लिए यह विभेद करना महत्वपूर्ण है। नारियों के अधीनस्थ स्थिति को मौलिक तौर पर पुरुष व नारी के जीव विज्ञानीय विभेदों के आधारों पर न्यायोचित्त ठहराया जाता है। इस तरह का जीव विज्ञानीय निश्चयवाद सदियों से नारी दमन के वैध उपकरणों में से सबसे महत्वपूर्ण है। इसीलिए, जीव विज्ञानीय निश्चयवाद को चुनौती देना नारीवादी राजनीति के लिए अत्यंत आवश्यक है।
2 पुरुषत्व, नारीत्व और सांस्कृतिक विभेद
नारीवादी मानव-विज्ञानी जिनमें मारग्रेट मीड सबसे प्रसिद्ध हैं, उन्होंने यह प्रदर्शित किया है कि पुरुषत्व तथा नारीत्व की समझ विभिन्न संस्कृतियों में अलग-अलग है। दूसरे शब्दों में, न केवल विभिन्न समाज कुछ विशेषताओं की पहचान पुरुषत्व के रूप में तथा कुछ की पहचान नारीत्व के रूप में करते हैं, बल्कि विभिन्न संस्कृतियों के बीच इन विशेषताओं में समानता नहीं है। अतः नारीवादी यह दलील देते हैं कि पुरुषत्व व नारीत्व के साथ जुड़े गुणों के बीच कोई परस्पर सम्बंध नहीं है। बल्कि यह तो शिशु पालन के व्यवहार हैं, जो कि यौनों के बीच कुछ विभेद को स्थापित एवं सनातन करते हैं, अर्थात् बचपन से ही लड़के एवं लड़कियों को समुचित लैंगिक विशिट स्वरूप के व्यवहार, खेल, कपड़ों, आदि में प्रशिक्षित किया जाता है। यह प्रशिक्षण निरन्तर और अधिकांश समय सूक्ष्म होता है, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर उसमें अनुरूपता लाने के लिए सजाएँ भी निहित हैं। इसीलिए नारीवादियों की यह दलील है कि यौन-विशिष्ट गुणों (उदाहरणार्थ पुरुषत्व में वीरता एवं विश्वास और नारीत्व में संवेदनशीलता व शर्मीलापन) तथा समाज द्वारा दिये जाने वाले उनको मूल्य, ये उन संस्थाओं तथा विश्वासों के परिणाम हैं जो कि लड़का व लड़की का भिन्न रूप से समाजीकरण करते हैं। जैसा कि सीमों द बोवोअर कहती हैं कि'नारी जन्म से नहीं होती बल्कि बनाई जाती है।
इसके अतिरिक्त समाज आमतौर पर पुरुषत्व-गुणों को नारीत्व-गुणों से श्रेस्ठ मानते हैं और इसी के साथ -साथ पुरुष और नारी जोकि इन गुणों के अनुरूप नहीं रहते, उन्हें समुचित व्यवहार के लिए निरंतर अनुशासित किया जाता है।
इसलिए, श्रम के यौन विभाजन में कोई "प्राकृतिकता" नहीं है। इस तथ्य का तात्पर्य है कि पुरुष और नारी परिवार के भीतर व बाहर जो अलग प्रकार के कार्य करते हैं, उनका जीव विज्ञान से कोई सम्बंध नहीं है। गर्भवती होने की प्रक्रिया ही जीव विज्ञानीय है तथा वे कार्य जैसे खाना बनाना, सफाई करना व बच्चों की देखभाल करना आदि (दूसरे शब्दों में कार्यों का समग्र क्षेत्र, जिसे हम आंतरिक श्रम कहेंगे) जिन्हें नारियों को करने पड़ते हैं, पुरुष द्वारा भी समान रूप से किए जा सकते हैं। लेकिन ये कार्य केवल "नारियों के कार्य" माने जाते हैं।
3 श्रम तथा कार्यस्थान का यौन विभाजन
श्रम का यौन विभाजन केवल घर तक सीमित नहीं है, यह "सार्वजनिक" क्षेत्र में भी वैतनिक कार्य पर भी लागू होता है और फिर से इसका "यौन" (जीव विज्ञान से कोई सम्बंध नहीं है। हाँ, इसका पूरा सम्बंध लिंग (संस्कृति) के साथ है।
कुछ कार्य "नारियों के कार्य" माने जाते हैं और अन्य पुरुषों के। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है कि नारी जो भी काम करती है, उसको उनके लिए कम वेतन मिलता है और उनके कार्य का मूल्य भी कम आंका जाता है। उदाहरण के लिए, नर्सिंग तथा अध्यापन (विशेष रूप में निम्न श्रेणियों में) को मुख्य तौर पर नारी व्यवसाय माना जाता है और अपेक्षाकृत उन्हें अन्य सफेदपोशी व्यवसायों से जिन्हें कि मध्यम वर्ग करता है, कम वेतन मिलता है। नारीवादी यह बताते हैं कि अध्यापन तथा नर्सिंग का नारीकरण इसलिए होता है, क्योंकि ये कार्य नारी द्वारा घर में किए जाने वाले पालन-पोण के कार्य के विस्तार के रूप में देखे जाते हैं।
4 श्रम के यौन विभाजन के पीछे विचारधारात्मक कल्पनाएँ
सच्चाई तो यह है कि श्रम के यौन विभाजन के पीछे कोई "प्राकृतिक" जीव विज्ञानीय विभेद नहीं है, बल्कि उनके पीछे कुछ विचारधारात्मक कल्पनाएँ हैं। एक तरफ तो नारियों को शारीरिक रूप से कमजोर और इसीलिए भारी शारीरिक श्रम के अयोग्य माना जाता है और दूसरी ओर वे घर के भीतर और बाहर के सबसे भारी काम जैसे पानी तथा जलाऊ लकड़ी को लादना, अनाज पीसना, धान रोपण करना, खदान व निर्माण कार्य में भारी बोझा ढोना करती हैं। लेकिन जब उसी शारीरिक कार्य का मशीनीकरण हो जाता है, जोकि उस कार्य को हल्का और बेहतर वेतन देने वाला बना देता है तो पुरुष को मशीन का उपयोग करने का प्रशिक्षण दिया जाता है और महिलाएँ बाहर कर दी जाती हैं। यह न केवल कारखानों में होता है, बल्कि समुदाय के भीतर पारम्परिक रूप से नारियों द्वारा किए गए कार्यों के साथ भी होता है। उदाहरण के लिए जब हाथ से चलने वाली चक्की का स्थान बिजली चलित चक्कियों ने लिया था, मछली पकड़ने के मशीन निर्मित नायलॉन के जालों ने परम्परागत तौर पर नारियों द्वारा हाथ से बनाने वाले जालों का स्थान ले लिया, तब भी पुरुषो को इन कार्यों को करने के लिए प्रशिक्षित किया गया और नारियों को और भी कम वेतन वाले तथा अधिक परिश्रमी शारीरिक कार्य सौंप दिये गये।
दूसरे शब्दों में नारियों की वर्तमान अधीनस्थ स्थिति का कारण अपरिवर्तनीय जीव विज्ञानीय विभेद नहीं हैं, बल्कि सामाजिक तथा सांस्कृतिक मूल्य, विचारधाराएँ तथा संस्थाएँ हैं जोकि नारी के लिएभौतिक तथा विचारधारात्मक अधीनस्था सुनिश्चित करते हैं। इस तरह से नारीवादी यौन-विभेदी कार्य, श्रम के यौन विभाजन के प्रश्न और अधिक मौलिक रूप में यौनता तथा पुनर्जनन जैसे प्रश्नों को 'जीव-विज्ञान' के क्षेत्र से बाहर निकालना चाहते हैं जिन्हें प्राकृतिक तथा अपरिवर्तनीय माना जाता है। नारीवादी इनका 'राजनीतिक' के क्षेत्र में पुनः स्थान निर्धारित करना चाहते हैं जिसका अर्थ हैं कि वे परिवर्तित हो सकते हैं और उन्हें ऐसा होना होगा।
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