शब्द यदि शरीर है तो अर्थ उसके प्राण । इसलिए अर्थ को शब्द की आत्मा कहा गया है। भाषा की प्रकृति का अध्ययन उसके शब्द अर्थ के सम्बंध के आधार पर किया जाता है।
वेदांत दर्शन के अनुसार ब्रह्म को ओंकार (शब्द) कहा गया है। इस ओंकार की प्रतिध्वनि अर्थात छाया ही अर्थ के रूप में व्याप्त है। इस दृष्टि से अर्थ की स्वयंसत्ता स्वतः सिद्ध होती है।
यास्क भी ‘निरूक्त’ में लिखते हैं कि जिस प्रकार बिना अग्नि के शुष्क ईंधन भी प्रज्ज्वलित नहीं होता, उसी तह अर्थबोध के बिना शब्द को दोहराने मात्र से अभीप्सित विषय को व्यक्त नहीं किया जा सकता।
प्राचीन अर्थ वैज्ञानिकों के अनुसार अर्थ की अभिव्यक्ति चार चरणों में सम्पन्न होती है - परा लाकोत्तर भाव लोक है। पश्यंती के अन्तर्गत वक्ता अपने अभिप्रेत अर्थ की खोज करता है। मध्यमा में इस अभिप्रेत अर्थ का भाषा ध्वनियों के साथ अन्तःसम्बंध होता है और वैखरी के रूप में वक्ता के प्रयोज्य अर्थ को भाषा व्यक्त कर देती है जिसे सुनकर श्रोता वक्ता के अभिप्राय को समझने का प्रयत्न करता है।
श्रोता में अभिप्रयाय समझने की प्रक्रिया उक्त वक्ता क्रम के विपरीत चलती है जिसमें श्रोता वैखरी से होता हुआ परा तक पहुँचता है जहाँ एक स्फोट के रूप में वक्ता का अभिप्रेत अर्थ उद्भासित हो जाता है।
भर्तृहरि ने अपने 'वाक्यदीप' ग्रंथ में वाक्यार्थ के सन्दर्भ में 'स्फोटवाद' का प्रवर्तन किया है। अभिव्यक्ति के अंतिम चरण में अर्थ भाषा ध्वनियों से सम्पृक्त होकर 'शब्द' के रूप में प्रकट होता है। हम कह सकते हैं कि अर्थ के अभाव में शब्द निष्प्राण हैं।
अर्थ के कारण ही शब्द में चेतना का संचार है। चेतना से गति आती है क्योंकि चेतना का स्वभाव ही सक्रिय रहना है। इसलिए शब्द में निहित अर्थ चेतना उसे शब्द के विकास की यात्रा पर ले जाती है। यह यात्रा कब शुरू होती है, किस दिशा में और किन-किन दिशाओं में पहुँचते हुए कहाँ खत्म होती है, यह बहुत कुछ विविध परिस्थितियों, संदर्भों और विशेष भाषा भाषी समाज की मानसिकता और आवश्यकता पर करता है। जिनका अध्ययन हम अर्थ विज्ञान के अन्तर्गत करते रहे हैं।
भाषा यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था है। इसका अर्थ ये है कि भाषा के शब्द प्रतीक हैं। जैसे 'गाय' शब्द एक पशु विशेष का प्रतीक है जिसे समाज ने गाय शब्द के अर्थ के रूप में मान लिया है। 'गाय' शब्द कहने से केवल 'गाय' का ही बोध होगा अन्य किसी पशु का नहीं।
इसी को दृष्टि रखते हुए शब्द के साथ किसी वस्तु के सम्बंध-स्थापन को संकेतग्रह कहा गया है जिसके द्वारा शब्द अपने अर्थ विशेष का बोध कराता है। शब्द से अर्थ बोध होता है।
अतः शब्द बोधक- हैं और अर्थ बोध्य' | शब्द अर्थ के सम्बंध को वाक्य वाचक या बोध्य-बोधक सम्बंध कहा गया है। शब्द वाचक या बोधक है और अर्थ वाच्य या बोध्य।
संस्कृत काव्य शास्त्र में शब्द और अर्थ के सम्बंध को लेकर गहन चिन्तन मिलता है जो 'शब्द शक्ति' या 'वृत्ति निरूपण' नाम से प्रस्तुत किया गया है।
प्राचीन काव्यशास्त्र के अनुसार शब्द से होने वाले अर्थ तीन प्रकार के हैं वाच्य, लक्ष्य और व्यंग्या इसी आधार पर शब्द भी - तीन प्रकार के होते हैं - वाचक, लक्षक और व्यंजक। इन तीनों में विद्यमान शक्ति या वृत्ति को अभिधा, लक्षणा और व्यंजना कहा जाता है।
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