परंपरागत रूप से
सामाजिक आन्दोलनों को अभीष्ट और संगठित सामूहिक कार्रवाइयों के रूप में देखा जाता
है, जो कुछ
सुपरिभाषित उद्देश्यों , सामूहिक संघटनों
हेतु कार्यप्रणाली, विशिष्ट विचारधारा, पहचान प्राप्त
नेतृत्व एवं संगठन पर आधारित होते हैं (सिंह रॉय 2004)।
सामाजिक आन्दोलन
में सामूहिक कार्रवाई शामिल होती है जो कि वैयक्तिक कार्रवाई से भिन्न होती है।
कोई सामूहिक कार्रवाई उस वक्त सामाजिक आन्दोलन का रूप ले लेती है जब वह कभी कभार
होने से भिन्न, कुछ लंबी चलने
लगती है। परंतु यह पर्याप्त रूप बड़ी संख्या में लोगों में रुचि एवं चेतना जागने
में सक्षम होना चाहिए।
तदनुसार, सामाजिक आन्दोलन में अनिवार्यतः अनौपचारिक अथवा औपचारिक
माध्यम से सतत सामूहिक संघटन का समावेष होता है। सामूहिक संघटन के अलावा, सामाजिक आन्दोलन
आमतौर पर संबंधों, मूल्यों एवं
मानदण्डों की वर्तमान प्रणाली में, आंषिक अथवा समग्र परिवर्तन लाने की ओर अभिमुख होता है ( राव, एम. एस. ए. 1979 ) ।
इसके अतिरिक्त, सामूहिक संघटन
में लिप्त व्यक्जिन ऐसा अपनी आम पहचान और हितों पर आधारित रहकर करते हैं। सामाजिक
आन्दोलन में अभिकर्ता की सामूहिक पहचान सामाजिक स्थिति संबंधी उसकी समझ से जुड़ी
होती है। सामूहिक पहचान के आधार पर ही किसी सामाजिक आन्दोलन को ऐसे व्यक्तियों
द्वारा गठित सामूहिक अभिकर्ता कहा जाता है जो स्वयं को साझा हित रखने वाला और अपनी
विद्यमानता के किसी न किसी महत्त्वपूर्ण भाग में साझा पहचान रखने वाला मानते हैं
(स्कॉट, ऐलन 1991 )
सामाजिक
आन्दोलनों को भिन्न-भिन्न रूप से श्रेणीबद्ध किया जाता है, जिनका आधार अनेक
निकष होते हैं, जैसे आन्दोलन के
परिणाम, आन्दोलन की
विस्थिति, आन्दोलन में भाग
लेने वाले विभिन्न समूहों की सामूहिक पहचान, आन्दोलन का मापदण्ड और स्थानिक प्रसार, आदि। तिस पर भी, यहाँ इस बात पर
जोर देना ज़रूरी है कि कोई भी वर्गीकरण केवल आन्दोलन के मुख्य अभिलक्षणों को
पहचानने में मदद करता है और यह आन्दोलन के किसी चरण विषेष के प्रति सापेक्ष होता
है। नारी आन्दोलन के उदाहरण में, अन्य सभी वर्गीकरणों से ऊपर, लिंग आन्दोलन में भाग लेने वाले बहुसंख्यक
लोगों की सामूहिक पहचान बन जाता है।
नारी आन्दोलन Feminist movement
नारी आन्दोलन, अन्य सामाजिक
आन्दोलनों की ही भाँति, वर्तमान सामाजिक
प्राधार में परिवर्तन ले आता है अथवा परिवर्तन लाने को उद्यत होता है। सामाजिक
परिवर्तन जो किसी आन्दोलन के परिणामस्वरूप होता है, प्रथमतः आन्दोलन से जुड़े तबके की दषाओं में
बदलावों के लिहाज से देखा जा सकता है, और दूसरे व्यापक समाज पर उनके प्रभाव के लिहाज से। नारी
आन्दोलन के परिणामों में एक नारी उत्पीड़न के सवाल पर तीव्र संवेदनशीलता का
अनुप्रेरक, और जीवन एवं
अध्ययन के सभी क्षेत्रों को उनका योगदान रहा है। (गाँधी, नंदिता 1990 ) ।
भारतीय नारी
आन्दोलन के आयाम
पश्चिमी देशों में नारी आन्दोलन से भिन्न,
भारतीय नारी
आन्दोलन औपनिवेषिक शासन एवं इस शासन से मुक्ति पाने हेतु प्रतिबद्धता के साये में
शुरू हुआ। इस प्रकार, भारतीय नारी
आन्दोलन विश्व के अन्य भागों, खासकर पश्चिम में जहाँ मुख्य ध्येय निजी व सार्वजनिक
क्षेत्रों में महिलाओं व पुरुषों के बीच संबंध बतलाना था, चल रहे नारी
मुक्ति संघर्षो से भिन्न,
सीमित लिंग
प्राधार से बढ़कर ही रहा।
स्वाधीनता और औपनिवेषिक सत्ता से मुक्ति संबंधी सवाल
असमाधेय रूप से भारतीय नारी आन्दोलन की चेतना से जुड़े हुए थे, यथा महिलाओं की
चेतना व्यापक के संबंध में न सिर्फ पुरुषों के संबंध में 19वीं शती के
उत्तरकाल से ही भारतीय समाज एक सक्रिय नारीवादी आन्दोलन देख रहा है। उन दशाओं को
सुधारने के लिए जिनके तहत भारतीय नारी रह रही थी, प्रारंभिक प्रयास मुख्य रूप से पाशचात्य शिक्षा प्राप्त मध्य एवं उच्च वर्गीय पुरुष द्वारा किए जा रहे थे। जल्द ही उनके
परिवारों की और ऐसी ही पृष्ठभूमि के अन्य परिवारों की महिलाएँ भी उनके साथ जुड़ गई। पुरुषों के
साथ मिलकर इन महिलाओं ने दमनकारी सामाजिक प्रथाओं के खिलाफ लड़ते हुए संगठित
आन्दोलन शुरू कर दिए, जैसे मादा- शिशु -हत्या, सती, बाल-विवाह, विधवा-विवाह
निषेध कानून, आदि ।
मध्यम एवं उच्च
जाति एवं वर्ग पृष्ठभूमि वाली इन महिलाओं की जन-भागीदारी ने 20वीं शती-आरंभ में
महिला संगठनों के जन्म की ओर प्रवृत्त किया। उन्होंने नारी प्रतिष्ठा एवं
नारी-अधिकारों के लिए संघर्ष शुरू कर दिया, परंतु यह काम असंदिग्ध रूप से पूरी तरह स्वाधीनता संग्राम
की कार्यसूची के अंतर्गत ही था। समूचे राष्ट्रीय आन्दोलन से परे, पूँजीपति वर्गीय
उदारवादी जो मुख्य रूप से उस संप्रदायवाद और विभाजन के परिणाम, यानी
स्वतंत्रताप्राप्ति के साथ ही हुई घोर हिंसा के प्रति चिंतित थे। महिला संगठनों को
प्रारंभ में ही हिंसा पीड़ितों, समुदायवाद, और अपने-अपने धार्मिक समुदायों के आधार पर महिलाओं में
विभाजन से दो-चार होना पड़ा।
नारी आन्दोलन में
एक अन्य सूत्र मोटे तौर पर इसी दौर में विकसित हुआ। नारी आन्दोलन में वाम- अतिवादी
प्रवृत्ति कामगार वर्ग की महिलाओं के बीच उनकी गतिविधियों द्वारा ही रूपायित हुई
वाम राजनीतिक दिशा में जाने वाली महिलाएँ संगठित हुई और यह आन्दोलन तेजी से बढ़ा।
फिर इसने संगठित वाम राजनीतिक के साथ प्राधारिक संपर्क बना लिए। वाम राजनीतिक
झुकाव वाली महिलाएँ कामगार वर्ग एवं क्रांतिकारी कृषक संघर्षों में शामिल थीं, जैसे तेलंगाना
में हुए संघर्ष में।
स्वतंत्रता
प्राप्ति पश्चात अनेक पूँजीपतिवर्गीय उदारवादी प्रवृत्ति के लोग यह मानने लगे थे
कि एक बार आज़ादी हाथ में आ जाने के बाद सत्ता का नया प्राधार नारी समस्याओं को
उठाने हेतु पर्याप्त अवसर प्रदान करेगा। तदनुसार, महिलाओं का इस प्रणाली और यथापूर्व स्थिति में
रहकर प्रतिनिधित्व किए जाने की आवष्यकता थी, जिसके बाद उनकी माँगें पूरी होतीं। यह पूँजीपतिवर्गीय
उदारवादी नारी आन्दोलन, जो फिर मुख्यतया
कांग्रेस से संबद्ध हो गया,
महिलाओं के लिए
एक समतल खेल का मैदान चाहता था (वृंदा कारथ 1997 ) ।
'साठ के उत्तरार्ध और 'सत्तर के पूर्वाद्ध में नारी आन्दोलन का प्रोत्कर्ष देखा
गया, जो कि उन
समस्याओं का अप्रत्यक्ष प्रभुत्व था जो राष्ट्रीय मोर्चे पर, और
अंतर्राष्ट्रीय मोर्चे पर महिलाओं के सक्रिय संघटनों में प्रकट हुई थीं। वाम महिला
संघटन महिलाओं को ऐसे नारी - विषिष्ट मुद्दों पर सफलतापूर्वक जीवन के हर सामाजिक
स्तर से संगठित कर सकता था जो विषेष रूप से महिलाओं और साथ ही समग्र समाज से भी
संबद्ध हों, उदाहरण के लिए
मूल्य वृद्धि विरुद्ध संघर्ष।
आपातस्थिति के
विरुद्ध संघर्ष में अनेक नए महिला समूहों का उदय दिखाई दिया, जिन्होंने पूर्व
महिला संगठनों की नीतियों को अस्वीकार कर दिया। ये समूह लोकतंत्र के पक्ष में और
लिंगभेद के विरुद्ध आन्दोलन के हिस्से के रूप में उठ खड़े हुए और बाद में बिना
किसी सुव्यक्त पार्टी संबद्धता के स्वायत्त संगठनों के रूप में उभरे, हालाँकि उनमें से
कई राजनीतिक दलों से ही निकले थे। इनका मुख्य उद्देश्य जन संगठनों में नारी विषयक
मुद्दों को उठाना होता था,
जैसे श्रमिक संघ
अथवा किसान समितियाँ।
अनेक स्वायत्त समूह, जो कि अधिकतर केवल महिलाएँ समूह थे, पार्टी संबंधों
और परंपरागत सोपानिक संगठनात्मक प्राधारों के बगैर ही बने। 'सत्तर के
उत्तरार्ध एवं अस्सी के दशकारंभ में नारी आन्दोलन पर महिलाओं के ऐसे स्वायत्त
महिला समूहों का प्रभुत्व रहा जो अधिकतर शहर आधारित थे। इसी समय कुछ ग्रामीण
आन्दोलनों में भी नारी चेतना जागी।
पत्नी प्रताड़ना जैसे नारी विषयों को सामने
रखते कुछ आन्दोलनों में स्वतंत्र महिला स्कंध बना। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि
भारतीय नारी आन्दोलन में उनके संबंधों के लिहाज से तीन प्रवृत्तियाँ देखने में आई:
पूँजीपतिवर्गीय उदारवादी,
वाम अतिवादी और
स्वायत्त समूह |
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