स्वतंत्र भारत में नारी आन्दोलन के सामाजिक महत्त्व- कृषक विद्रोहों में महिलाएँ, बोधगया मठ संघर्ष|Social importance of women's movement

स्वतंत्र भारत में नारी आन्दोलन के सामाजिक महत्त्व

 

स्वतंत्र भारत में नारी आन्दोलन के सामाजिक महत्त्व- कृषक विद्रोहों में महिलाएँ, बोधगया मठ संघर्ष|Social importance of women's movement

स्वतंत्र भारत में नारी आन्दोलन के सामाजिक महत्त्व

  • राष्ट्रीय आन्दोलन की समाप्ति होने और लिंगों के बीच समानता संबंधी संवैधानिक अधिकारों के अनुदान के साथ ही संचलनशील महिलाओं के लिए प्रत्यक्ष कारण ओझल हो गए। अखिल भारतीय महिला सम्मेलन जैसे अनेक महिला संगठनों ने स्वयं को छात्रावासविद्यालयआदि चलाने और अल्प कार्य-अवसर उपलब्ध कराने वालेआदि जैसे मुख्य रूप से सामाजिक संगठनों के रूप में ढाल लिया। अनेक प्रमुख राजनीतिक दलों ने नैमित्तिक महिला मोर्चों को खड़ा कर दिया। परंतु यह प्रसुप्ति की अवस्था अधिक नहीं चली। अनेक समस्याओं से निबटने में जो कि स्वतंत्रता के अनेक दषक बीच जाने पर भी बनी हुई थींविफलता के कारण सरकार के प्रति लोगों के बीच असंतोष और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिला संघटनों ने भारतीय महिलाओं को पर्याप्त कारण प्रदान किए कि वे उन मुद्दों को केन्द्र में रखकर पुनः संगठित हों जो महिलाओं और व्यापक समाज दोनों से संबद्ध थे।

 

  • 'साठ के दशक में नारी आन्दोलन का प्रोत्कर्ष देखा गया जोकि उस गहरी निष्ठुरता के परिणामस्वरूप हुआ जिसने देष को जकड़ा हुआ था और संसदीय सरकार उससे उबरने में विफल रही थी। व्यापक बेरोजगारीपरिस्थिति की सासबेकाबू गरीबीआदि की सूरत में संसदीय विपक्ष का एक पूरी तरह निष्प्रभावी राजनीतिक ताकत के रूप में चेहरा सामने आ गया। इस स्थिति में देष में राजनीतिक कार्रवाई का एक नया जोश पैदा हो गया । लोग इस स्थिति का विरोध प्रकट करने के लिए विभिन्न मुद्दों को लेकर विभिन्न झण्डों के तले संगठित हो गए। राष्ट्रव्यापी हलचल की एक नई लहर उठी और एक बार फिर महिलाएँ प्रभावशाली अगुवा बनकर आगे चलीं ( इलिना सेन 1990)। तभी से महिलाएँ राजनीतिक दलों के मोरचे के तहत विभिन्न मुद्दों को लेकर संघटित हो गईं और साथ ही स्वायत्त संघटन भी देखे गए।

 

'सत्तर के दशक से भारतीय नारी आन्दोलन विभिन्न एवं असंख्य मुद्दों पर केन्द्रित हो गया। इस दौर में भारतीय नारी आन्दोलन में महिला संगठनों का मुख्य उद्देश्य था-

  • (क) सरकार में महिला प्रतिनिधित्व 
  • (ख) विकास प्रक्रिया में महिलाओं की अनदेखी (संवैधानिक एवं कानूनी गारण्टियों और नारी जीवन की वास्तविकताओं के बीच बढ़ती खाई) और 
  • (ग) नारी विरुद्ध हिंसा (स्वरूप ) । अनेक मुद्दों पर नारी उत्पीड़न का बुनियादी कारण ही उनके राजनीतिक संघटनों के रूप में संग्रहित रहता है।


 भारत में हुए कृषक संघर्षों में महिला भागीदारी की प्रकृति एवं विस्तार ?

1 कृषक विद्रोहों में महिलाएँ

 

तिभागा और तेलंगाना आन्दोलन

  • तिभागा और तेलंगाना में कृषक संघर्ष दो रूपों में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय ही जन्मा पूर्व से उत्तर स्वतंत्रता काल के सातव्यक के रूप मेंऔर तत्कालीन राजनीतिक एवं सामाजिक-आर्थिक दषाओं के बीच सेतु के रूप में बंगाल में तिभागा आन्दोलन (1946-50) और आंध्र प्रदेष में तेलंगाना आन्दोलन भूमि के अधिक साम्यिक वितरण पाने के उद्देष्य से शुरू किए गए थे। दोनों ही आन्दोलनों में पुलिस के अत्याचारों के खिलाफ़ गाँवोंघरों और बच्चों को बचाने के लिए महिलाओं ने 'नारी सेतुबनाये थे और आत्म-रक्षा के लिए छापामार प्रषिक्षण प्राप्त किया था। इन दोनों आन्दोलनों ने पचास के दषकारंभ में भारत के अनेक राज्यों में जमींदारी उन्मूलन अधिनियमों के पारित होने की ओर प्रवृत्त कियाजिसने भूमि जोतने वालों को भी कुछ अधिकार दिलाए ।

 

  • बंगाल और उत्तर बिहार में तिभागा आन्दोलन 1946 में शुरू हुआ और 1950 के आसपास शान्त हो गया। यद्यपि यह मूल रूप से एक बटाईदारों के अधिकारों हेतु आन्दोलन थाअनेक स्थानों पर इसने एक सषस्त्र छापामार विद्रोह का रूप ले लिया। इसने सरकारी दमन का पूरा झटका झेला और महिलाएँ आन्दोलन के सभी स्तरों पर प्रभावषाली ऐतिहासिक भागीदारों के रूप में उभरी (इलिना सेन 1990)। इस आन्दोलन की महिलाएँ एक पृथक् मंच पर संगठित हुईं नारी वाहिनीऔर प्रभावित क्षेत्रों में घर-घर जाकर संपर्क बनाया । आन्दोलन के दौरान पार्टी की महिलाएँ ग्रामीण महिलाओं के साथ एक जुट हुईं ताकि उन तमाम मुद्दों को उठाया जा सके जो आम तौर पर वर्ग उत्पीड़न और विषेष रूप से महिलाओं के जाति उत्पीड़न से जुड़े थेजैसे हिन्दू महिलाओं की प्रस्थिति में आवष्यक कानूनी बदलावऔर अर्थप्रबंध एवं संपत्ति हेतु नारी अधिकार ।

 

  • ग्राम स्तरीय महिला आत्मरक्षा समितियों के माध्यम से उन्होंने पत्नी प्रताड़ना जैसी प्रचलित पितृसत्तात्मक अभिव्यक्तियों की कड़ी आलोचना की। तथापियह संघर्ष स्वतंत्रताप्राप्ति की पूर्वसंध्या पर वापस ले लिया गया। तिभागा आन्दोलन कड़ा परिश्रम करती महिलाओं के लिए एक खास बपौती बनकर रहाजिसको कि वे भविष्य में पुनर्प्राप्त कर सकती थीं (वही)।

 

  • अनेक तरीकों से तेलंगाना आन्दोलनजो कि स्वभावतः विद्रोहकारी भी थातिभागा आन्दोलन के समान ही थाक्योंकि दोनों ग्रामीण जमींदारों के सामंती दमन के विरुद्ध दिषा निर्देषित थे। तथापितेलंगाना आन्दोलन विषेष रूप से निज़ाम के शासन के विरुद्ध संघर्ष हेतु दिषानिर्देषित था। यहाँ भी महिलाएँ छापामार लड़ाई लड़ने में और सरकार द्वारा हिंसा दमन का सामना करने में वीर प्रतिभागियों के रूप में सामने आयीं।

 

बोधगया मठ संघर्ष : 

  • बढ़ता राजनीतिक दमन और लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए सशक्त आन्दोलन 'सत्तर के दषक के शुरुआती वर्षों की पहचान रही। 1975 में इंदिरा गाँधी सरकार द्वारा आपात काल की घोषणा का विरोध करते व्यापक जन-आन्दोलन हुए। उन्होंने लोकतांत्रिक अधिकारों तथा सामाजिक समानता एवं लिंग निष्पक्षता हेतु इस निर्विवाद विस्तारण की माँग की। इसी दौरान जय प्रकार नारयण ने संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया। यह आन्दोलन समाज और उसकी पूरी संरचना को अमूलचूल रूप से बदल डालने पर अभिलक्षित था। इसने इस विचार से पूरी तरह विमोह दर्षाया कि राजनीति ही लोगों के लिए अपना जीवन सुधारने का एकमात्र साधन है। जय प्रकाष नारायण के नेतृत्व में छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का जन्म हुआ। वाहिनी ने अनेक महिला कार्यकर्त्ताओं को संघटित किया और महिलाओं के सवाल पर वाहिनी नेताओं के बीच एक संघर्ष छेड़ दिया। उदाहरण के लिए भूमि एवं उत्पादन संसाधनों की सुलभता हेतु नारी अधिकारविवाह व्यवस्थापुरुष-स्त्री संबंधोंपितृसत्ता एवं सामाजिक-आर्थिक प्रक्रिया में नारी की भूमिका आदि पर बहस वाहिनी कार्यकर्त्ताओं के बीच अंतर संगठनात्मक एवं अंतर पारिवारिक संबंधों में भारी बदलाव ले आयी।

 

  • वाहिनी संपूर्ण क्रांति हेतु जनसामान्य को संगठित करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में गए। उनके सम्मिलन के प्रमुख स्थलों में एक बोधगया मठ रहाजहाँ वाहिनी ने उन गाँवों से गरीब किसानों को संगठित किया जिनमें बोधगया मठ सामन्ती एवं धार्मिक नियंत्रण रखता था। इन किसानों ने उन जमीनों पर कानूनी अधिकारों की माँग की जिनको वे व उनके परिवार पीढ़ियों से जोतते आए थेऔर इस माँग का अहम् हिस्सा था कि महिलाओं को अपने निजी नामों से वैयक्तिक रूप से भूमि अधिकार दिए जाएँ। महिलाओं ने महसूस किया कि भूमि पर स्वामित्व एवं नियंत्रण ही उनकी सामाजिक पहचान की दिषा में पहला कदम था।

 

  • बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएँ सरकारी अधिकारियों के साथ-साथ ऐसे पुरुषों के विरुद्ध भी संघर्ष करती आई थीं जो स्वतंत्र भूमि-अधिकार धारक उनके अपने ही समुदाय की महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रहों से ग्रसित थे। बिहार के एक ग्रामीण जिला गया में जहाँ अधिकांष लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि थामध्य काल से ही भूमिका एक बड़ा भाग बोधगया मठ के नियंत्रण में था। यह स्थिति स्वतंत्रता पष्चात् तक बनी रही। गरीब कृषक समूहों पर संपूर्ण सत्ता-अधिकार मठाधिकारियों के हाथ में ही थे। खेतों में काम करने वाले श्रमिकों के दमन एवं शोषण से न्यूनतम वेतन के सभी नियमों का खुल्लम खुल्ला विरोध सामने आ गया। महिलाएँ सर्वाधिक शोषित थीं। सत्तासीन लोग श्रमिकों एवं महिला निकायोंदोनों का शोषण करते थे।

 

  • वाहिनी ने मठाधिकारियों के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया। पुरुष एवं महिलाएँ दोनों ही इस आन्दोलन के सदस्य थे। उन्होंने महिलाओं की समस्याओं को आम आन्दोलन के हिस्से के रूप में लिया। उनके अनुसार नारी मुक्ति हेतु संघर्ष संपूर्ण वर्तमान वर्ग-जाति आधारित सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक प्राधार के खिलाफ संघर्ष ही हैयथा ऐसा प्राधार जिसमें महिलाएँ पुरुषों एवं पुरुषत्व संबंधी उनकी अवधारणा से विशेष रूप से उत्पीड़ित होती हैं। अतएव उन्होंने महसूस किया कि पुरुषों द्वारा शोषण एवं उन पर निर्भरता से मुक्ति हेतु एक विषेष संघर्ष छेड़े जाने की आवष्यकता है। वाहिनी की महिलाओं ने जोर देकर कहा कि नारी आन्दोलन कोई सामाजिक सांस्कृतिक आन्दोलन नहीं हैबल्कि उत्पादन-साधनों में समान आयकरों एवं निर्णयन् के सभी क्षेत्रों में पूरी हिस्सेदारी हेतु आन्दोलन है।

 

  • इस प्रकारबोधगया मठ संघर्ष में पुरुष प्रधानसमाज की एक सशक्त समीक्षा उभर कर आई। महिलाओं ने नारी विषयक मुद्दों समेत सत्ता प्राधार के विषय में ढेरों सवाल उठाएन यथा परिवारकार्य-वितरणपारिवारिक हिंसा तथा पुरुष एवं महिलाओं द्वारा भोगे जाने वाले संसाधनों की असमान सुलभता विषयक प्रष्न: पुरुष स्त्री संबंधों एवं नारी लैंगिकता संबंधी मुद्दे।

 

  • 'सत्तर के दशकारंभ में शुरू महाराष्ट्र के धूलिया जिले में जनजातीय भील भूमिहीन श्रमिकों ने स्थानीय ज़मीदारों की दमनात्मक करतूतों के खिलाफ़ आन्दोलन किया। इन ज़मीदारों में अधिकांष गैर-जनजातीय लोग थे और वे जनजातीय लोगों से अवमानवीय व्यवहार करते थे। वर्ष 1972 में श्रमिक संगठन का गठन किया गयाजिसने अनावृष्टि और दुर्भिक्ष के पष्चात्बंजरभूमि घेर कर और जोतकर भूमि के अन्य हस्तान्तरण के विरुद्ध संघर्षों की शुरुआत कर दी।

 

  • महिलाओं ने श्रमिकों के बीच कहीं अधिक हिंसक भूमिका निभाई जो कि इस आन्दोलन में अधिक सक्रिय थीं। उन्होंने शेष प्रदर्षनों का नेतृत्व कियायुद्धकारी नारे बनाये और लगाएक्रांतिकारी गीत गए और जनसामान्य को संघटित किया। पुरुषों को आन्दोलित करने के लिए वे झोपड़ियों के दरवाज़े दरवाज़े गईं और उन्हें श्रमिक संगठन में शामिल होने की आवष्यकता समझायी। ज़मीदारों के साथ बातचीत में उन्होंने जता दिया कि वे पुरुषों से कहीं अधिक दृढ़ हैं। आन्दोलन के आगे बढ़ने के साथ ही महिलाओं ने समुदाय के रूप में अपनी दमन विषयक नवचेतना को लिंग आधारित दमन तक विस्तारित कर उन्होंने पत्नी प्रताड़ना जैसे लिंग आधारित मुद्दों को उठाना शुरू कर दिया। उन्होंने समाज मे पुरुषों की मद्यपान की आदत के खिलाफ विरोध प्रदर्षन किया और वे शराब के अड्डों को भी नष्ट करने निकल पड़ीं।

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