महिला विरुद्ध अपराध क्या है? |महिला के साथ हिंसा |Violence against women
महिला विरुद्ध अपराध क्या है? , महिला के साथ हिंसा
महिलाओं के विरूद्ध हिंसा के अन्य रूप
- देश की स्वतंत्रता के पश्चात महिलाओं को कई कानूनी अधिकार प्राप्त हुए तथापि सामाजिक स्तर पर अभी भी शोचनीय स्थिति बनी हुई है। गर्भस्थ कन्या भ्रूण से लेकर जीवन के अंतिम पड़ाव तक परिवार तथा समाज द्वारा स्त्रियाँ आज भी प्रताड़ित हो रहीं है। इस प्रताड़ना की शुरूआत गर्भ से ही हो जाती है तथा जीवन भर अपने विभिन्न स्वरूपों में स्त्री जीवन को प्रभावित करती है।
कन्या शिशु हत्या
- यह प्रवृत्ति मध्ययुग की देन है। लड़कियों की सुरक्षा उस समय बहुत बड़ा प्रश्न माना जाता था विवाह में दहेज का प्रचलन बढ़ने लगा। पुत्रवती स्त्रियाँ सम्मान की पात्र होती थीं। परिणाम स्वरूप विभिन्न समुदायों में असुरक्षा की भावना उभरी तथा दहेज जुटाने में असमर्थ माता-पिता जन्म लेते ही कन्या शिशु की हत्या कर देते थे। यह कुप्रवृत्ति अनेक समुदायों समाजों में आज भी देखी जा सकती है। हत्या के लिए जमीन में जिंदा गाड़ देना, ढेर सारा नमक अथवा तम्बाकू मुंह में भर देना माता के दूध से वंचित कर कई दिनों तक भूखा रखना आदि उपाय किये जाते थे। चंबल क्षेत्र के सुदूर गांवों में आज भी एक रिवाज है जिसमे लड़की पैदा होने पर उसके मुंह में तम्बाकू भरकर झूले में झूलाते हुए एक गीत गाया जाता है जिसका सार है- लाली जा लाला को ले आ । इसी प्रकार बिटिया को मौत की नींद सुलाते समय पंजाब में यह लोरी गायी जाती है गुड़ खावीं खा के जावीं वीर नूं घल्लीं, आप ना आवीं ।
कन्या शिशु हत्या के कारणः
कन्या भ्रूण हत्या तथा कन्या शिशु हत्या के पीछे भारतीय समाज में व्याप्त पुत्र-पुत्री में भेद करने वाली अनेक प्रचिलित धारणाएं उत्तरदायी हैं। जैसे-
- पुत्र ही वंश को आगे बढ़ाता है। पुत्र बुढ़ापे की लाठी है। पुत्र नहीं होने पर सद्गति प्राप्त नहीं होती पुत्री पराया धन है।
- लिंग आधारित भ्रूण हत्या बात कुछ ही दिन पहले की है। एक महिला चिकित्सक के सामने एक युवती गिड़गिड़ा रही थी- मैडम बता दीजिए लड़का है या लड़की, मेरी पहले से ही तीन लड़कियां हैं, अगर इस बार भी लड़की हुई तो ससुराल वाले मार डालेंगे। महिला चिकित्सिक ने उसके परिवार वालों को बुलाकर समझाना चाहा पर वे टस से मस नहीं हुए। तब चिकित्सक ने अंतिम हथियार के रूप में उन्हें उस कानून के बारे में बताया जिसमें लिंग परीक्षण गैरकानूनी बताया गया है। उस लड़की के ससुराल वाले उस वक्त तो लौट गए मगर पता चला उस लड़की को यह कहकर मायके भेज दिया गया कि अगर लड़का हुआ तभी वापस आना। अब लड़की के मायके वाले गैर कानूनी तरीके से लिंग परीक्षण का ठिकाना ढूंढने में व्यस्त हो गए।
- भ्रूण नष्ट कर देने की यह प्रवृत्ति कन्या भ्रूण हत्या के नाम से जानी जाती है। प्रश्न उठता है क्या कन्या भ्रूण को नष्ट करना हत्या है? यह एक सामाजिक धारणा है कि वंश पुत्र से चलता है। पुत्र ही परिवार की जिम्मेदारी उठा सकता है। पुत्र के द्वारा किये गये संस्कारों से वह सीधे स्वर्ग पहुंचता है। कन्या कमजोर और पराया धन होती है। पुत्री के विवाह की रकम जमा करते-करते पिता कमजोर होकर कर्ज में डूब जाता है। पुत्र के जन्म से ऐसी परेशानियाँ नहीं आतीं हैं। अतः लैंगिक दुर्भावना से प्रेरित होकर यह जानकारी होते ही कि गर्भस्थ शिशु कन्या है गर्भपात करा दिया जाता है। कन्या भ्रूण की पहचान हो जाने के बाद करवाया जाने वाला यह कृत्य भले ही बोलचाल की भाषा में गर्भपात कहा जाए पर वास्तव में यह लिंग आधारित भ्रूण हत्या है।
- चिकित्सा विज्ञान में अल्ट्रासाउंड टेस्ट एक चमत्कार माना जा सकता है। इस टेस्ट से गर्भस्थ शिशु में होने वाली समस्याओं तथा प्रसवकालीन समस्याओं के निदान में चिकित्सा जगत को अपार सफलता मिली। इस टेस्ट से गर्भस्थ शिशु का लिंग भी उजागर होने लगा। परिणामस्वरूप लिंग आधारित भ्रूण हत्या की प्रवृत्ति सामने आई जो समय के साथ बढ़ती चली गई।
घरेलू हिंसा (घरेलू हिंसा क्या है)
- भारतीय समाज में स्त्रियों के साथ होने वाली घरेलू हिंसा की जड़ें बहुत गहरी हैं। अनेक परिवारों में छोटी-छोटी बातों पर स्त्रियों पर हाथ उठा देना, उसे गाली देना, सुविधाओं से वंचित रखना आम बात है। समाजिक व्यवस्था द्वारा स्वीकृत होने के कारण स्त्रियाँ इसका विरोध करने का साहस नहीं कर पाती हैं। प्रायः अपने साथ हुए हिंसा के विषय में जैसे ही वह मुंह खोलती है रिश्तेदार तथा समाज उन्हें बदचलन घोषित कर देता है।
घरेलू हिंसा क्या है इसकी परिभाषा :
- देश में वर्ष 2005 में घरेलू हिसा अधिनियम लागू हुआ। इसे विस्तृत अर्थ में परिभाषित करते हुए इसमें शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार की प्रताड़नाओं का उल्लेख किया गया है।
घरेलू हिंसा के कारण :
- पारिवारिक व्यवस्था में सहज रूप से लड़की को कमजोर तथा लड़के को साहसी बहादुर आदि मान लिया जाता है। इस व्यवस्था में शादी होते ही पुरुष को पत्नी पर हाथ उठाने का अधिकार मिल जाता है। कुछ परिवारों में तो स्त्रियां परम्परागत रूप से पशुवत समझीं जाती हैं। इस लिए परिवार के सभी सदस्यों में उन्हें हीन समझने की प्रवृत्ति होती है। परंतु घरेलू हिंसा के ज्यादातर मामलों में दहेज, पुत्र न होना, पति का शराबी तथा जुआरी होना, विवाहेत्तर संबंध अथवा शक प्रमुख कारण होते हैं।
- कानून के प्रति समाज का रवैया स्त्रियों के साथ घर में होने वाली हिंसा पर अंकुश लगा पाना देश की कानून व्यवस्था के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। किसी भी कानून का सफल क्रियान्वयन तभी संभव है जब उसमें समाज की सक्रिय भागीदारी होती है। घरेलू हिंसा की रोकथाम के लिए बने कानून के प्रति समाज प्रारंभ से ही उदासीन रहा है क्योंकि यह उन्हें विरासत में स्त्री को मारने-पीटने के विशेषाधिकार से वंचित करता है। समाज की बनावट एवं बुनावट इस प्रकार की है कि स्त्रियाँ कानून का सहारा लेने की हिम्मत नहीं कर पाती हैं।
स्त्रियाँ कानून का सहारा लेने से क्यों कतराती हैं इस समस्या के पीछे कई कारण हैं जिनकी विवेचना निम्नांकित रूप से की जा सकती है-
परम्परा
- अनेक परिवारों में बच्चे बचपन से ही माता को पिता से प्रताड़ित होते हुए तथा माता को चुपचाप सहते हुए देखते हैं। मातायें पुत्रियों को सिखाती हैं कि स्त्री को सहनशील होना चाहिए। ऐसे वातावरण में पलने वाला पुत्र माता की दयनीय स्थिति को देखकर क्रोधित अवश्य होता है परंतु स्वयं पति बनने के बाद वैसा ही बर्ताव अपनी पत्नी के साथ करता है। बचपन में देखा हुआ व्यवहार युवावस्था तक आते-आते सीख बन जाता है। दूसरी तरफ लड़कियां जब पत्नी बनती हैं तो अपने साथ हुए दुर्व्यवहार को सामान्य समझकर स्वीकार कर लेती हैं।
अशिक्षा
- अशिक्षित स्त्रियाँ स्वाभिमान तथा अपने अधिकारों के प्रति न सचेत होती हैं न उनमें प्रतिरोध की क्षमता विकसित हो पाती है।
आर्थिक रूप से आश्रित होना
- प्रायः स्त्रियाँ इसलिए भी प्रतिरोध नहीं कर पाती हैं क्योंकि विरोध करते ही उन्हें घर से निकाल दिए जाने का भय होता है। ऐसे में अपनी तथा अपने बच्चे के भविष्य की चिंता उन्हें सब कुछ चुपचाप सहने पर मजबूर कर देती है।
सामाजिक प्रताड़ना
- भारतीय सामाजिक व्यवस्था जुझारू तथा हिम्मती स्त्री को प्रोत्साहित नहीं करती। स्त्री ने पति को छोड़ा अथवा पति ने स्त्री को छोड़ा दोनों ही स्थिति में वह परित्यक्ता ही कही जाती है। ऐसी स्त्री को बदचलन करार देना आम बात है। यदि इसके बाद भी कोई स्त्री ऐसी हिम्मत करती है तो समाज का पुरुष वर्ग उसे सहज उपलब्ध मान लेता है।
कानूनी समझ का अभाव
- हमारे समाज में आज भी अनेक सुशिक्षित स्त्रियों को भी अपने कानूनी अधिकार का ज्ञान नहीं है। जब अधिकार का ही ज्ञान नहीं तो उसे प्राप्त करने का सवाल कहां उठता है।
जटिल कानूनी प्रक्रिया:
- घरेलू हिंसा का विरोध कर रही स्त्रियाँ प्रायः लम्बी कानूनी लड़ाई से तंग आकर समझौता कर लेती हैं।
भावुकता
- घरेलू हिंसा के खिलाफ भले ही सभी स्त्रियाँ कानून का सहारा नहीं लेती हों लेकिन कई उदाहरणों में वह घर छोड़कर चली जाती हैं तथा अपनी शिक्षा अथवा हुनर के अनुसार आजीविका चलाने लगती हैं। ऐसे मामलों में देखा गया कि पति तथा ससुराल वाले पैरों पर गिरकर माफी मांगने लगते हैं, घर तथा बच्चों के भविष्य की दुहाई देते हैं, यदि तब भी स्त्री नहीं पिघलती तो पुरुष उसके प्रति अपने प्रेम का वास्ता देता है। इस बिंदु पर आकर मजबूत से मजबूत स्त्री मोम की तरह पिघल जाती है। बिना किसी ठोस आश्वासन के घर लौट जाती है। जहां कुछ ही दिन बाद पुराना किस्सा दोहराया जाने लगता है। कई बार ऐसे मामलों में स्त्रियों की हत्या भी कर दी जाती है।
यौन हिंसा:
- आज के समय में यौन हिंसा के तहत सिर्फ बलात्कार को ही नहीं रखा गया है। भारतीय कानून में बलात्कार के अतिरिक्त घूरना, गलत नियत से छूने का प्रयास करना, गंदे इशारे तथा टिप्पणी करना आदि भी इस हिंसा में शामिल हैं।
बलात्कार की समस्या
- आए दिन समाचार पत्रों में बलात्कार की खबरें प्रकाशित होती रहती हैं। बलात्कारियों में सिर्फ सड़क पर चलने वाले असामाजिक तत्व नहीं वरन् पिता, भाई, शिक्षक, चिकित्सक जैसे सम्मानित नामों का आना इस बात की गवाही देता है कि व्यक्ति आज भी स्त्रियों को मात्र उपभोग की वस्तु समझता है। भले ही वह बेटी ही क्यों न हो।
- 16 दिसम्बर 2014 को दिल्ली में एक युवती अपने पुरुष मित्र के साथ सिनेमा देखने गई। लौटते वक्त उसे देर हो जाती है। वह एक चाटर्ड बस में लिफ्ट लेती है। उस बस में सवार ड्राइवर और उसके अन्य तीन साथी जिसमें एक नाबालिग भी होता है उसके साथ सामूहिक बलात्कार करते हैं। वह युवती अंत तक संघर्ष करती है और उसे मृत मानते हुये सड़क के किनारे फेंक देते हैं। इस घटना ने देश भर को झकझोर दिया। प्रतिरोध का ऐसा स्वर इससे पहले कभी नहीं सुना गया। लोग सड़कों पर उतर आए। इसके बाद कानून में बलात्कार के रेयरेस्ट ऑफ रेयर अर्थात दुर्लभ मामलों को फॉस्ट ट्रेक कोर्ट में सुनवाई का प्रावधान बना।
इस घटना को हम निर्भया काण्ड के नाम से जानते हैं। दामिनी काण्ड इस घटना के बाद देश भर में बहस छिड़ गई। कुछ सम्मानित पुरुषवादियों द्वारा उस लड़की को दोषी ठहराते हुए जो तर्क दिये गए उस पर भी दृष्टिपात करना आवश्यक है-
- लड़कियाँ भड़काउ कपड़े पहनती हैं इसलिए बलात्कार होता है।
- जब जब लड़कियाँ मर्यादा की लक्ष्मण रेखा लाघेंगी तब-तब बलात्कार होगा ही।
- एक नेता ने बलात्कारियों का पक्ष लेते हुए कहा- लड़कों से गलती हो ही जाती है।
- वह इतनी रात को निकली ही क्यों?
- इन तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष निकलता है कि वर्तमान समाज स्त्रियों को आज भी सात पर्दे के भीतर देखना चाहता है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि बलात्कार एक मनोविकार है जिसका कपड़ों से कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि बलात्कार की शिकार, दो महीने की बच्ची अथवा 75 साल की वृद्धा भी होती है। लक्ष्मण रेखा तथा मर्यादा ऐसे बलात्कार के बाद की स्थिति और भी भयावह हो जाती है। स्त्रियों के साथ 'इज्जत' शब्द जुड़ा होने के कारण वह सामाजिक उपहास तथा निंदा का कारण बन जाती है। कई बार पीड़िता को बदचलन मान लिया जाता है। यहां तक कि कोई उससे विवाह करने को भी तैयार नहीं होता। शारीरिक और मानसिक रूप से वह टूट जाती है। ऐसी अवस्था में कई लड़कियाँ मौत को गले लगा लेती हैं तो कई विक्षिप्त हो जाती हैं।
सम्मान के लिए हत्या (आनर किलिंग )
- जैसा कि नाम से ही जाहिर है इस प्रकार की हत्याएं सम्मान के लिए की जाती हैं। भारतीय समाज में स्त्रियाँ घर की इज्जत मानी जाती हैं। जाति से बाहर जाकर विवाह करना अथवा एक ही गोत्र में शादी कर लेना समाज में अप्रतिष्ठा का कारण बन जाता है। इस प्रतिष्ठा के कारण भारत में प्रति वर्ष एक हजार युवक-युवतियों की हत्या कर दी जाती है। वास्तविक आंकड़ा कभी भी सामने नहीं आ पाता है, क्योंकि कई मामले आत्महत्या या दुर्घटना करार देकर दबा दिए जाते हैं। इस मामले में युवक तथा युवती दोनों ही प्रायः जाति पंचायत के खूनी फैसलों के शिकार होते हैं। इनका कसूर सिर्फ इतना होता है कि ये अपने पसन्द से जीवन साथी चुन लेते हैं।
- कभी-कभी पंचायती फैसले न हों तो भी सम्मान का विषय मानकर माता-पिता रिश्तेदार आदि अपने ही बच्चों की हत्या कर बैठते हैं। वर्तमान युग में सम्मानपूर्वक जीने के लिए में उनका शिक्षित होना तथा आर्थिक रूप से सबल होना आवश्यक है। शिक्षिता, आत्मनिर्भर, आत्मसम्मान से भरी हुई एक स्त्री अनेक पीड़ितों के लिए एक मिसाल बन सकती है।
निराकरण
- मनुष्य ने जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए सामाजिक व्यवस्था को जन्म दिया। समाज में निरंतर परिवर्तन की प्रक्रिया चलती रहती है। जो नियम अथवा अनुशासन आज प्रासंगिक हैं वह कल अनुपयोगी भी सिद्ध हो सकते हैं। इसलिए कानून में भी संशोधन का प्रावधान किया जाता है। कोई भी सामाजिक नियम मनुष्य से ऊपर नहीं हो सकता। यह भी स्वीकार करना होगा कि एक झटके में कोई भी परिवर्तन संभव नहीं है इसके लिए सरकार, स्वयंसेवी संगठन तथा पीड़ित स्त्री समुदाय सभी को एक साथ मिलकर इस दिशा में काम करना होगा ।
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