हिन्दी कथा साहित्य में नारी | Women in Hindi fiction
हिन्दी कथा साहित्य में नारी (Women in Hindi fiction)
हिन्दी कथा साहित्य में नारी Women in Hindi fiction
- राजनीतिक सामाजिक स्तर पर नारी अस्मिता की स्थापना और गरिमा के लिए काफी प्रयास हुए। नारी का सुखद भविष्य उसे न्याय समानता और स्वतंत्रता प्रदान बिना संभव नहीं । परंपरागत नारियों का बंधन तोड़ना जरूरी था। इसमें मुख्य मुद्दे थे पुरुष स्त्री समानता, शिक्षा, विवाह, - नौकरी, हर क्षेत्र में राजनैतिक, व्यवसायआदि में दोनों लिंगों को समान अधिकार हो । आजादी के बाद संविधान में समान अधिकार दिया । जनतंत्र में वोट का समान अधिकार मिला ।
- पर व्यावहारिक रूप में बहुत कुछ छूट गया । शोषण चला, दहेज उत्पीड़न, वेतन का तारतम्य रहा। पर नारी इसमें उठ खड़ी हुई ।
- रामायण -महाभारत में नारी के साथ जो हुआ वह अकल्पनीय है । विलास की साधन बनी । उसे अबला कहा गया । सतीत्व की परीक्षा और सती असती के मानदंड पुरुष - स्त्री समाज में भिन्न भिन्न हुए। इस तरह नारी समाज में हाशिये पर आ गई ।
- हिंदी साहित्य में वीरगाथा युग में वह इज्जत और प्रतिष्ठा का प्रतीक बनी । अतः उस पर बंदिश लगी । सती, बहु विवाह, अंध विश्वास आदि कुरीतियाँ नारी जीवन को संकट में ले गयी । सबसे बड़ा संकट था सती प्रथा का । नारी को पति के साथ चिता पर बैठा दिया जाता । पति नहीं तो स्त्री भी नहीं । इस दकियानुसी प्रथा का खंडन किया राजामोहन राय ने । फिर भी यह प्रथा आज भी चोरीछिपे चल रही है । हमारा समाज इसे धर्म का नाम दे देता है। लेकिन भक्तिकाल में अवहेलना भी झेली । उसको द्वितीय दर्जे का इंसान कहा । जब कि रीतिकाल में आकर नारी मांसलता प्रमुख हो गई । भोग्यता रूप ही ज्यादा चित्रित हुआ । दरबारी और सामंती युग में नारी की महिला उसके सौन्दर्य, उसकी मांसलता अथवा कला रूप पर निर्भर करने लगी ।
- परंतु आधुनिक युग में परिवर्तन होता है । सती प्रथा का अंत, विधवा विवाह, बाल विवाह पर प्रतिबंध, शिक्षा का प्रचलन आदि क्रमबारी सुधार चले । नारी की स्थिति में जबरदस्त सुधार आया ।
- अत: भारतेंदु हरिश्चन्द्र के साहित्य में नारी के बदले रूप की तस्वीर उभर कर आने लगी । 20वीं सदी के प्रारंभ में गांधीजी ने सुधार की आवाज उठायी । वह मुख्यधारा में जुड़ती है। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। महिला रचनाकारों ने इसे अनदेखा नहीं किया । प्रेमचन्द ने नारी शोषण का विरोध किया । नारी का सबल रूप चित्रित हुआ । कुछ ही समय में जैनेन्द्र ने परंपरागत नारी की मूर्ति का भंजन किया । घर परिवार पति के बंधनों से मुक्त करने प्रोत्साहित किया । माँ-पत्नी, पुत्री से हट कर नारी का अस्तित्व क्या हो, इस पर विचार किया। जैनेन्द्र कथा साहित्य में नारी के 'मर्यादा' की बात कह शोषण से मुक्त किया ।
- 1947 के बाद नारी घर से निकली। स्कूल, कालेज, बजार, दफ्तर गई । सामाजिक स्थिति बदली पर नई समस्यायें आयी । घर-बाहर दोनों जगह पुरुष वर्चस्व के खिलाफ खड़ी हुई । फिर भी हार नहीं मानती । संघर्ष और साहस से बदले परिवेश को स्थापित किया । इस नई कहानी की पात्र पुराने मूल्यों, जंजीर, रूढ़ियों, आधुनिक सभ्यता के तथाकथित अधिकारों में बदलते संदर्भ में नारी की स्थिति उभरी। इनमें कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मन्नु भंडारी, प्रभाखेतान, उषा प्रियम्बदा, मैत्रेयी पुष्पा को महत्व दे सकते हैं ।
- बीसवीं सदी के छठे दशक के शेष में विद्रोह और तीखा होता है। संयुक्त परिवार प्रथा के विभिन्न पक्षों पर सवाल उठाये गये । राजेन्द्र यादव से नारी चेतना के संकेत रूप दिये । संयुक्त परिवार कुचलना चाहता है, पर संभव नहीं होता ।
- अब वह 'माँ' तक की पत्नीत्व की उपेक्षा करती है । मन्नू जी कहती हैं आज की 'मैं' इतनी निर्बल और निरीह नहीं कि मुझे जीवन बिताने के लिए कोई सहारा चाहिए ।" इस युग में वह अपनी ताकत पहचान रही है । विवाह संस्था की मोहताज नहीं रह जाती ।
- कामकाजी महिला घर का दायित्व लेकर भरण-पोषण करती है । पर वह जो चाहती है वह भी करने की इच्छुक है। कमलेश्वर ने नगरीय परिवेश की पर लिखी नारी की विद्रूप, विसंगतियों और समस्याओं पर प्रकाश डाला। 'काली आंधी' में पत्नी राजनेता बनकर पति और संतान का साथ नहीं निभा पाती । 'तलाश' कहानी भी विधवा, कामकाजी है, पर मानसिकता और शारीरिक स्वतंत्रता में अपनी पुत्री बाधक बनती है। अंदर घुट रही है, लाचारीवश व्यक्त नहीं कर पाती । नैतिकता उसके कदम रोक लेती है ।
- इस प्रकार उषा प्रियंबदा और कमलेश्वर की नारी आर्थिक आत्म निर्भर है, व्यक्तित्व के टकराव से समस्या बन जाती है । दोहरी भूमिका निभाती है ।
- बाद में प्रभा खेतान की कथा में विद्रोह और तीव्र है ।“ छिन्नमस्ता' में वह रूढ़ियां तोड़, सजावट नष्ट कर आत्मनिर्भर सफल कार्यशील महिला बन कर उभर रही है। ग्रामीण परिवेश से सामाजिक जागरण का दायित्व लेती है मैत्रेयी पुष्पा का 'इदमन्नम्' की नायिका सीमित साधनों के बावजूद भारतीय शैली में जीवन की सार्थकता तलाशती है ।
- इस प्रकार आजादी के बाद नारी को पारिवारिक दायरे से बाहर निकाल सामाजिक सरोकार और जीवन के यथार्थ से जोड़ा गया उस काल में कृष्णा सोबती, उषा प्रियंबदा, मन्नू भंडारी, शिवानी, ममता कालिया और अनिता औलक प्रमुख थी। अपने सजग और सशक्त नेतृत्व में ये स्त्री संसार की जटिलताओं को व्यक्त करने में सफल रही।
- आगे चल कर आधुनिक नारी की मनस्थिति, पारिवारिक जीवन और मुख्यत: दांपत्य जीवन को लेकर कथानक रचे गए। इनमें चन्द्रिका सोनरेक्सा, मालती जोशी, प्रतिभा वर्मा, सुधा अरोड़ा मृदुला गर्ग प्रमुख हैं। ये समाज और युग के सत्य को परखती हैं; परिधि विस्तार करती हैं। भारतीय समाज के मध्यम वर्ग की स्त्रियों का पारिवारिक समाज जीवनायुक्त लेकर चलती हैं। सूक्ष्म स्तरों पर उसे पुनर्रचित करती हैं । इनके पास भाषा और यथार्थ को व्यक्त कर सकने लायक संवेदना भरपूर है.
- विभिन्न देश, भाषा और रंगों के बावजूद गहरा इंसानी सरोकार मिलता है। उत्पीड़ित नारी जीवन की अनुभूतियों को चित्रण करने में मेहरून्निसा परवेज, नासिरा शर्मा ने काफी अविस्मरणीय कहानियाँ लिखी ।
- जीवन मूल्यों, परंपरा और आधुनिकता के टकराव, नारी मन की घनीभूत पीड़ा संबंधों में दरार आदि को रूपाकार देने में सूर्यबाला, चित्रामुद्गल, चंद्रकांता का नाम उल्लेखनीय है । यहाँ पर नारी मुक्ति ही नहीं, देश और समाज की अन्य अनेक समस्यायें भी जीवंत हैं ।
- ऊषा किरण खान, कुसुम अंसल, मृणाल पांडेय, अलका सरावगी, परवर्तित जीवन-स्वरूप को सही संदर्भ में अभिव्यक्ति दे रही हैं। यहाँ कथालेखन विविध वर्णी स्वरूप में आ रहा है । नारी का अपना वृत्तांत विश्वसनीयता के साथ वक्त हुआ है। इसीलिए इसे नारी का अपनी निजी प्रासंगिकता का प्रश्न भी स्वत: उत्तरित हो जाता है । वह यथार्थ को मजबूती से व्यक्त कर पाती है । व्यंग की पैनी धार में कोई संकोच नहीं रखती । उसका यह मुहावरा बिना लाग-लपेट के हिंदी कहानी में आया है ।
- वैसे तो आज कई पीढ़ियां साथ-साथ लिख रही हैं । परंतु पिछले दशक में ही शामिल हुई कथाकारों, जैसे महुआ माझी ( मैं बोरिशइल्ला) काफी चर्चित हुई है। इनमें आदिवासी नारियों और मुस्लिम चरित्रों का अंतर्मन तक गहराई से खोला गया है। नारी मन की कोमल संवेदना ( फय नशा कालिदास) बड़ी संजीदगी से अंकित करती हैं। देह की मादकता से बंधी हैं । परंतु हलकी भावुकता से बच कर लिखने में सफल हो रही है। उधर अल्पना मिश्र दस्तक दे रही हैं। यहाँ यह महानगर तक सीमित नहीं । कस्बे-देहात से लेकर आदिवासी और ग्रामीण परिवेश में नारी का रूप चित्रित हो रहा है । यहाँ अनेवाला राष्ट्रीय परिदृश्य भी अछूता नहीं है । अपने व्यापक अनुभव और गहन सृजन धर्मिता के बल पर नई पीढ़ी बहुत जल्द इस क्षेत्र में पहचान बनाने में सक्षम हो रही हैं ।
- वास्तव में हिंदी का स्त्री लेखन एक समृद्ध परंपरा का निर्माण करने में समर्थ हुआ है। यह युवा पीढ़ी अपनी सृजनधात्री और संघर्षशील लेखन से हिंदी साहित्य को और भी समृद्ध करेगा। इसमें आत्माभिव्यक्ति के साथ-साथ आत्मसजगता का रेखांकन प्रमुख हो गया है। समाज नियंता बनने के लिए वह बहुमुखी नेतृत्व लेकर बढ़ रही हैं ।
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