भारतीय इतिहास में महिलाओं की स्थिति|प्राचीन भारत में महिलाओं की स्थिति | Women In History in Hindi
प्राचीन भारत में महिलाओं की स्थिति
(Women Condition in Indian History in Hindi)
प्राचीन भारतीय इतिहास में महिलाओं की स्थिति
चीन काल से अब तक इतिहास के भिन्न-भिन्न कालखण्डों में महिलाओं की दशा भी बदलती रही है। इस आर्टिकल में एचएम मानव के उद्भव एवं विकास के ऐतिहासिक क्रम में हम गहराई से महिलाओं की स्थिति को जानने का प्रयत्न करते हैं।
महिलाओं को केन्द्र में रखकर इतिहास को निम्नांकित कालखण्डों में बांटा जा सकता है-
- आदिकाल
- बौद्धकाल
- वैदिककाल
- धर्मशास्त्रकाल
- स्मृति काल ( मनु स्मृति काल)
- मौर्यकाल तथा गुप्त काल
- रामायण एवं महाभारत काल
- मध्यकाल
- आधुनिक काल नारी मुक्ति आंदोलन
आदिकाल में महिलाओं की स्थिति
- आदिमानवों का समाज झुण्ड में रहता था। इस झुण्ड में कुछ स्त्री पुरुष तथा बच्चे होते थे। वे फल-फूल तथा शिकार कर अपना जीवन व्यतीत करते थे। बारिश तथा धूप से बचने के लिए गुफाओं में रहते थे। स्त्री-पुरूष संबंध स्वच्छंद थे। धीरे-धीरे इस व्यवस्था ने उस समय की जरूरत के हिसाब से आकार ग्रहण करना शुरु कर दिया।
- गर्भवती तथा प्रसूता स्त्रियाँ शिकार तथा भोजन एकत्र करने की अन्य गतिविधियों में पहले की तरह हिस्सा नहीं ले पाती थीं। शिशु के प्रति एक स्वाभाविक लगाव, उसकी देख-रेख आदि समस्या के समाधान स्वरूप स्त्रियाँ घर पर रहने लगीं। बाहर जाकर कंदमूल तथा शिकार की व्यवस्था करना पुरुषों का काम बन गया।
- इस अवस्था में सभी कार्य सामूहिक रूप से सम्पन्न होते थे। समूह की सभी स्त्रियाँ मिलकर सभी के बच्चों की देख-रेख करती थीं। समूह का कोई भी पुरुष शिकार लाये वह समान रूप से सभी में बांटे जाते थे। यह परिवार का प्रारंभिक स्वरूप था।
- अगले चरण में ज्ञान बढ़ा। मानव ने गुफा छोड़कर घर बनाना सीख लिया। घुमंतू एक जगह स्थिर होकर रहने लगे। बस्तियाँ बसने लगीं। उस समय वह सूर्य, चंद्रमा, तारे, वर्षा, धूप आदि को विस्मय की दृष्टि से देखते थे परंतु ईश्वर जैसी अवधारणा नहीं थी। इसलिए तब तक पुरूषों को भी ईश्वर का दर्जा नहीं था।
- गृह प्रबंधन पूरी तरह स्त्रियों के हाथ में था। पुरुष सैनिक की भांति अपने घर की रक्षा करते थे। आदिमाता, सप्तमातृका, वनदेवी प्रकृतिदेवी आदि की अवधारणा प्रारंभिक मातृ सत्तात्मक व्यवस्था की ही देन है। इस सामाजिक व्यवस्था ने स्त्री-पुरूष दोनों के लिए जीवन पहले से अधिक सरल बना दिया। पुरुष शिकार के लिए नए-नए हथियार गढ़ने में रुचि लेने लगा जबकि स्त्रियाँ गृह प्रबंधन को सुचारू रूप से चलाने में व्यस्त हो गईं। परंतु यह सुखद स्थिति लम्बे समय तक नहीं टिक सकी।
- सभ्य होते-होते मनुष्य में महत्वाकांक्षा के साथ-साथ प्रतिस्पर्धा की भावना भी बढ़ने लगी। खेती ने दोनों के जीवन को स्थिरता दी। खानाबदोश जीवन का अंत हुआ और कृषि संपत्ति और उस पर अधिकार की भावना विकसित हुई। विवाह संस्था ने जन्म लिया और उपार्जन एवं संपत्ति के आधार पर पितृसत्तात्मक परिवार व्यवस्था का जन्म हुआ। जीवन का उद्देश्य मात्र भोजन एकत्र कर जीवन यापन करना नहीं रह गया बल्कि संपत्ति और उस पर अधिकार स्थापित करने की भावना प्रबल होती चली गई। कबीले एक-दूसरे पर हमला करने लगे। पराजित कबीले की संपत्ति के साथ-साथ कबीले की स्त्रियों पर भी कब्जा करने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी तथा इसके साथ ही शनैः शनैः स्त्रियों के हाथ से सत्ता फिसलती चली गई।
- गर्भवती स्त्री की सुरक्षा, उसकी देखभाल एक बार फिर प्रश्न चिन्ह बन गई। उसी दौरान एक नए नियम ने जन्म लिया जिसके अनुसार स्त्री एक ही व्यक्ति से संबंध बनाये ताकि गर्भस्थ शिशु के पितृत्व का निर्धारण किया जा सके। वही व्यक्ति उस स्त्री तथा गर्भस्थ शिशु की देखभाल के लिए जिम्मेवार होगा तथा वही शिशु उस व्यक्ति के संपत्ति का उत्तराधिकारी भी होगा। इस नियम को पालन करवाने के लिए अनेक उपनियम भी बनाए गए। इस नियम के पश्चात स्त्रियों की दुनिया चारदीवारी में कैद होती चली गई। सामाजिक गतिविधियों में उनकी भूमिका नगण्य हो गई। उपार्जन के साधनों पर पूरी तरह पुरुषों का आधिपत्य हो गया। यही वह कालखंड है जब विवाह नामक संस्था ने जन्म लिया। तथापि घरेलू स्तर पर उत्पीड़न की स्थिति उत्पन्न नहीं हुई थी।
वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति
- वेदों में स्त्रियों का उल्लेख सम्मानजनक ढंग से किया गया है। वैदिक काल में जिन विदुषी महिलाओं की चर्चा होती है उनमें गार्गी, सूर्या, अपाला, लोपामुद्रा, रोमशा आदि के नाम प्रमुख हैं। ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं जिनमें से 30 नाम महिलाओं के हैं। स्त्रियाँ वेद शिक्षित तथा युद्धकला में भी निपुण हुआ करती थीं।
- वैदिक युग में
पितृसत्तात्मक समाज था । तथापि परिवार नामक संस्था उन्नत थी। स्त्रियों को पति के
घर में प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था। अथर्ववेद में कहा गया है - "नव वधु तू
जिस घर में जा रही है वहां की सम्राज्ञी है, तेरे सास, ससुर देवर व अन्य व्यक्ति तुझे सम्राज्ञी समझते हुए आनंदित
होंगे।" (अथर्ववेद 14
/ 14 )
- वैदिक युग में पत्नी को सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। आर्य पत्नी को ही घर मानते थे। उनके गृहस्थ धर्म का आशय था- नारी के साथ रहकर धर्म, अनुष्ठान और यज्ञ सम्पन्न करना। पति-पत्नी दोनों मिलकर यज्ञ करते थे। इतना ही नहीं कई बार पत्नी स्वतंत्र रूप से भी यज्ञ करती थीं।
स्मृति काल (मनु स्मृति) में महिलाओं की स्थिति
- वेदों के बाद सर्वाधिक मान्यता स्मृतियों की है। स्मृतियों में सबसे प्रसिद्ध मनु स्मृति ग्रंथ है। जिसे तत्कालीन समय में सामाजिक आचार-व्यवहार सम्बन्धी नियमावली या नैतिक मूल्य संहिता का दर्जा प्राप्त था। उदाहरण के लिए मनु स्मृति में महिला सम्मान को दर्शाने वाली उक्ती – 'जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवता का वास होता है, उल्लेखित है।
- यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता' का अर्थ यही है कि तत्समय सभ्य समाज की पहचान स्त्रियों की स्थिति से होती थी। नारी का पूजनीय चेहरा ही सभ्यता की चरम सीमा को प्राप्त करना था।
रामायण तथा महाभारत काल में महिलाओं की स्थिति
रामायण वाल्मिकी रचित महाकाव्य है जिसमें राम कथा वर्णित है। इस प्रतिनिधि महाकाव्य के कुछ प्रसंगों से उस समय की स्त्रियों के बारे में जाना जा सकता है -
- प्रसंग -1 युद्ध कला में पारंगत कैकयी युद्ध भूमि में पति का साथ देते हुए उसके रथ का संचालन करती हैं। इस प्रसंग से स्त्री की मजबूत स्थिति सामने आती है।
- प्रसंग - 2 पुत्र प्राप्ति के लिए राजा दशरथ ने पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया। इस प्रसंग से सहज रूप से व्यक्त होता है। कि व्यवस्था पितृसत्तात्मक थी।
- प्रसंग - 3 सीता के प्रसंग में नारी की शुचिता अग्नि परीक्षा से प्रमाणित होती थी।
महाभारत काल में महिलाओं की स्थिति
महाभारत का काल द्वापर युग माना जाता है। जिसमें कृष्ण जैसे महानायक हुए। महाभारत की कथा में अनेक विदुषी राजनीतिक ज्ञान से परिपूर्ण स्त्री चरित्रों का वर्णन है।
- कुंवारी कन्या का मां बनना लज्जास्पद था। इसलिए कुन्ती ने पुत्र (कर्ण) जन्म के पश्चात उसे जल में प्रवाहित कर दिया। यहाँ प्रश्न उठता है कि यदि नियोग के उपरान्त भी स्त्री की पवित्रता बनी रहती है तो कर्ण को त्यागने की आवश्यकता क्यों पड़ी?
- इसी प्रकार द्रौपदी का पांच भाइयों में बंट जाना तथा युधिष्ठिर द्वारा जुए में द्रौपदी को हार जाना। इन दोनों प्रसंगों को स्त्री सम्मान के विरुद्ध कहा जा सकता है।
बौद्धकाल में महिलाओं की स्थिति
- भगवान बुद्ध ने संघ में जातिवाद या लिंग भेद को कोई स्थान नहीं दिया। उनकी दृष्टि में सभी लोग समान थे। महात्मा बुद्ध द्वारा संघ में स्त्रियों को प्रवेश दिया जाना एक युगांतकारी घटना थी।
थेरी गाथा (थेरी स्त्रियां)
- दीक्षा प्राप्त स्त्रियां थेरी कहलाती थीं। थेरी गाथाओं में 73 भिक्षुणियों की 522 गाथाओं का संग्रह है। इन थेरियों में नगरवधु आम्रपाली की कविताएं भी हैं। जिन स्त्रियों ने भिक्षुणी की दीक्षा ली, उनमें से अधिकांश ऊँची आध्यात्मिक पहुँच के लिए और नैतिक जीवन के लिए प्रसिद्ध हुई। कुछ स्त्रियाँ पुरुषों की शिक्षिका तक बन गईं। इतना ही नहीं उन्होंने उस स्थिति को भी प्राप्त कर लिया था, जो कठिन साधना के बाद ही प्राप्त होती है।
धर्मशास्त्र काल में महिलाओं की स्थिति
- 788 ईस्वी में जन्मे शंकराचार्य अद्वैत वेदान्त के ज्ञानी माने जाते हैं। उन दिनों शास्त्रार्थ की परंपरा थी। ऐतिहासिक विवरणों में शंकाराचार्य और मण्डन मिश्र के शास्त्रार्थ का उल्लेख मिलता है। जिसमें मण्डन मिश्र पराजित हो गए। तब मंडन मिश्र की पत्नी भारती ने कहा आपने अभी आधे अंग को ही पराजित किया है। मैं इनकी वामांगी हूँ। यदि आप मेरे प्रश्नों का उत्तर दें, तभी विजेता कहला सकेंगे। इसके बाद भारती ने कुछ प्रश्न शंकराचार्य से पूछे, जिसका उत्तर वह नहीं दे सके। इस विवरण से यह स्पष्ट होता है कि वैदिक काल के उत्तरार्द्ध में भी विदुषी स्त्रियों का अस्तित्व रहा है।
मौर्यकाल तथा गुप्तकाल में महिलाओं की स्थिति
- इस युग में स्त्रियों की दशा बहुत अच्छी नहीं थी। उच्च वर्ग की महिलाएं शिक्षित थीं तथा सामाजिक समारोहों में हिस्सा लेती थीं। अंगरक्षक तथा गुप्तचर के रूप में नियुक्त होती थीं। मौर्यकाल में राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए 'विषकन्या' के उपयोग का उदाहरण मिलता है। इस काल में वेश्यावृति भी प्रचलित थी। तथापि बौद्ध धर्म की महिलाओं की स्थिति अन्य की अपेक्षा बेहतर थी गुप्तकाल में भी कमोवेश यही स्थिति बनी रही। इस युग में देवदासी, नगरवधु बिना विवाह किए स्त्री को रक्षिता बनाकर रखने का प्रचलन बढ़ने लगा।
Women History in Hindi |
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महिला सुरक्षा अधिनियम |
सामाजिक आंदोलन क्या होते हैं , भारत में महिलाओं की जनभागीदारी हेतु मुद्दे |
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