भारत में नारी आन्दोलन- सामाजिक बुराइयों / मुद्दों के प्रति विरोध-प्रदर्शन
भारत में नारी आन्दोलन- सामाजिक बुराइयों / मुद्दों के प्रति विरोध-प्रदर्शन
मूल्य वृद्धि विरोध आन्दोलन
जिस प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली महिलाएँ दुर्भिक्ष आन्दोलनों में संघटित हुई हैं, शहरी क्षेत्रों की महिलाएँ दुर्भिक्ष पश्चात हुई अनिवार्य उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि के खिलाफ लड़ने को संगठित हुई। वर्ष 1973 में, शहरों में मुद्रास्फीति के खिलाफ महिलाओं को संघटित करने के लिए संयुक्त महिला मूल्यवृद्धि विरोध मोर्चा' बनाया गया। यह आन्दोलन अनिवार्य उपभोक्ता वस्तुओं का मूल्य एवं वितरण, दोनों सरकार द्वारा तय किए जाने की माँग करते हुए शीघ्र ही उपभोक्ता संरक्षण हेतु एक महिला जन आन्दोलन बन गया।
तथाकथित 'लाटनी' मोर्चों में हजारों की संख्या में कामगर व निम्न-मध्य वर्गीय महिलाएँ सड़कों पर निकल आयीं और संघटन एवं संचार के मज़बूर प्राधार बना लिए। यह आन्दोलन मुख्य रूप से पटना व बम्बई में केन्द्रित होते हुए भी अनेक महानगरों के हिस्सों में लोकप्रिय और दृष्यमान था। महिलाओं ने बेलम और तेल के खाली पीपे लेकर बम्बई की गलियों में मार्च किया।
ताड़ी विरोध आन्दोलन :
राज्य प्रयोजित साक्षरता अभियान से पढ़े लिखों की दुनिया में कदम रखने का अवसर पाकर आंध्र प्रदेष के नेल्लोर जिले की महिलाओं को अपनी पाठ्यपुस्तकों से शराब की बुराइयों व उसके महिलाओं पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव का पता चला। अपने आदमियों की शराबखोरी की आदत से आए दिन के जीवन पर पड़ने वाले
दुष्प्रभाव को महसूस कर महिलाएँ स्वतः स्फूर्त कार्यवाई में जुट गईं। शराब की दुकानों पर धरना देने, पियक्कड़ों को सबक सिखाने और सरकार से शराब की बिक्री पर संपूर्ण प्रतिबंध लगाने के लिए हजारों महिलाएँ एकजुट हो गईं। सभी राजनीतिक पक्षों की महिलाएँ इस आन्दोलन को सफल बनाने के लिए अपना भरसक प्रयास करने लगीं। महिलाओं की शक्ति और महत्त्व को पहचान कर सरकार लोकेच्छा के आगे झुक गई। आरंभ में नेल्लेर जिले में ताड़ी की बिक्री बंद हुई और फिर राज्य भर में इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। आंध्र प्रदेष के आन्दोलन ने अन्य राज्यों की जनता को भी, खासकर हरियाणा के लोगों को इसी प्रकार के मद्दे उठाने के लिए प्रेरित किया।
नारी हिंसा के प्रति विरोध-प्रदर्शन
भारत में महिलाएँ परंपरागत रूप से अनेक प्रकार की हिंसा का सामना करती रही हैं, महज इसलिए कि वे स्त्रीजा त हैं। पितृसत्तात्मक धार्मिक विचारों एवं आर्थिक कारणों के चलते होने वालीं हिंसा के अतिवादी रूपों में हैं सतीप्रथा, मादा षिषु हत्या एवं भ्रूण हत्या, बलात्कार, एवं दहेत हत्याएँ। स्वतंत्र भारत की सरकार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय आन्दोलन एवं संवैधानिक गारंटियों द्वारा अभिकल्पित धर्मनिरपेक्ष एवं उदारवादी राज्य महिलाओं के विरुद्ध सांस्कृतिक एवं सामाजिक रूप से जन्मने वाली हिंसा की निंदा करते हुए कुछ वैधानिक उपायों का प्रावधान रखता है ताकि नारी के विरुद्ध इनमें से हिंसा का कोई भी रूप समाज में जारी न रहे।
बलात्कार विरोधी आन्दोलन
हिरासती बलात्कार की एक घटना के मद्देनजर 1977 में नागरिक अधिकार समूहों द्वारा बलात्कार विरोधी आन्दोलन शुरू किया गया। उक्त हिरासत के दौरान सतीत्व हरण के मामले पर कड़े जन विरोध के चलते महिला संगठनों ने बलात्कार विरोधी आन्दोलन की शुरुआत की। अनुसूचित जाति की एक 15 वर्षीय लड़की, मथुरा का एक पुलिस थाने में दो सिपाहियों द्वारा सतीत्व हरण कर लिया गया सिपाहियों को इस आधार पर छोड़ दिया गया कि "यह कोई बलात्कार नहीं था, क्योंकि इस बात का कोई प्रमाण नहीं था कि मथुरा ने प्रतिरोध किया था।" यद्यपि अपील किए जाने पर बम्बई उच्च न्यायालय द्वारा निर्णय बदल दिया गया, सर्वोच्च न्यायालय ने सिपाहियों को यह कहते हुए फिर बरी कर दिया कि मथुरा के कड़े प्रतिरोध की कहानी झूठी है और यह सामगम एक षान्तिपूर्ण संबंध था।
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के विरुद्ध 1980 में महिला दिवस 8 मार्च को अहमदाबाद, नागपुर, पुणे, बम्बई और दिल्ली आदि शहरों में हज़ारों महिलाएँ जीवन के विभिन्न हलकों से निकलकर एकजुट हो गईं प्रमुख विष्वविद्यालयों की छात्राएँ, वाम राजनीतिक दलों का महिला स्कंध, गृहणियाँ, महिला संगठन, आदि सभी जगह से उन्होंने यह केस फिर से खोले जाने की माँग की। नागपुर और बम्बई में रैलियों, सेमिनारों, मोर्चों, बैठकों और नुक्कड़ नाटकों का सिलसिला चल पड़ा। विषेष रूप से बलात्कार उन्मूलन पर केन्द्रित एक महिला संगठन बलात्कार विरोधी मंच की स्थापना हुई। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे संज्ञान लिया और निर्णय की पुनरिक्षा हेतु तैयार हो गया, परंतु आन्ततोगत्वा परिणाम वही ढाक के तीन पात' वह अपने निर्णय पर कायम रहा। इसी बीच उक्त अभियान से पड़ रहे दबाव ने भारतीय विधि आयोग की सिफारिषों को प्रभावित किया। अतः अपराध कानून संषोधन विधेयक, 1980 में बलात्कार के लिए और कठोर दण्ड विधानों की बात कही गई, जिसे संसद द्वारा 1983 में स्वीकार कर लिया।
दहेज-विरोधी आन्दोलन:
हैदराबाद में प्रगतिशी महिला संगठन द्वारा सर्वप्रथम 1975 में दहेज के विरुद्ध विरोध प्रदर्षन आयोजित किए गए। देष भर में आपातस्थिति लागू होने से यह अपने पूरे पर नहीं फैला पाया। आपातकाल की सामाप्ति के बाद 1977 के आसपास दहेज की सामाजिक प्रथा के खिलाफ एक व्यापक स्तर पर दिल्ली की महिलाएँ संगठित हुई। इसकी शुरुआत महिला दक्षता समिति के संगठित विरोध प्रदर्षन से हुई। उन्होंने दहेज के लिए महिलाओं पर थोपी जाने वाली हिंसा के विरुद्ध विरोध प्रदर्षन किया, विषेष रूप से हत्या और आत्महत्या के दुष्प्रेरण के विरुद्ध उन्होंने दहेज से जुड़ी एक हत्या के मामले में अभियुक्त पर मुकदमा चलाए जाने की माँग की। यहाँ अभियुक्त एक प्रतिष्ठित सरकारी डॉक्टर था, जिसने अपने पत्नी के दहेज से असंतुष्ट हो, किसी दूसरी स्त्री की चाह में उसकी हत्या कर दी और लाष को कानपुर से होकर बहने वाली गंगा नदी में फेंक आया। लंबे समय तक यह मौत एक रहस्य बनी रही, परंतु आखिरकार यह पति दबोच लिया गया और इस अपराध के लिए उसे दण्डित किया गया। दहेज उत्पीड़न एवं हत्या के खिलाफ देष के अनेक भागों में विरोध प्रदर्षन होने लगे परंतु दिल्ली दहेज व दहेज से जुड़े अपराधों के खिलाफ एक सतत आन्दोलन की स्थली रहा, जिसका मुख्य कारण था कि देष भर में दहेज के लिए पत्नी हत्या के सबसे अधिक मामले यही दिखाई पड़ते थे। नारी अधिकारवादी समूहों द्वारा शेष-प्रदर्षनों के रूप में व अन्य साधनों से विरोध प्रदर्षनों से मिट्टी का तेल छिड़क कर औरत को जला देने के मामलों पर व्यापक जनसमाज और नीति निर्माताओं की तुच्छ प्रवृत्ति में बदलाव आया। वे यह सिद्ध करने में भी कामयाब रहे कि अनेक औपचारिक आत्महत्याएँ वस्तुतः आत्महत्याएँ नहीं बल्कि हत्याएँ होती हैं जो कि अधिक दहेज की माँग रहे उसके पति और परिवार वालो द्वारा की जाती है। दहेज समूहों द्वारा रणनीतियों को एक श्रृंखला शुरू की गई। वे मरणासन्न महिला के अन्तिम शब्द रिकार्ड करते थे, परिवार का साक्ष्य लेते थे और अपने सबूतों के साथ मित्रों व पड़ोसियों को आगे आने के लिए प्रेरित करते थे। परिणामस्वरूप, अनेक परिवार पुलिस में अधिक दहेज हेतु ससुराल वालों द्वारा अपनी बेटियों के उत्पीड़न के खिलाफ़ षिकायतें दर्ज कराने लगे।
वर्ष 1980 में, यथा दहेज विरोधी आंदोलन शुरू होने के बाद सरकार ने दहेज से जुड़े अपराधों के खिलाफ एक कानून पास किया, जिसमें दहेज की माँग की वजह से आत्महत्या हेतु उकसाए जाने को एक विशेष अपराध माना गया और किसी भी महिला की मृत्यु उसके विवाह के पाँच वर्षों के भीतर हो जाने की स्थिति में पुलिस जाँच आवष्यक कर दी गई।
सती प्रथा के विरुद्ध आंदोलन:
वर्ष 1987 में राजस्थान में एक युवा विधवा द्वारा अपने पति की चिता में जलकर मर जाने की घटना ने देशभर में सती अर्थात् बलिक्रिया की प्रथा के विरुद्ध एक अभियान छेड़ दिया। रूपकँवर, एक स्वाति का विवाह अपने पति की मृत्यु से कुछ पूर्व ही हुआ था और उसने पति के संग मात्र 6 माह ही बिताए थे। उसकी मृत्यु के बाद यह तय किया गया कि रूपकुँवर सती होगी। इस आसन्न घटना की पहले से ही घोषणा कर दी गई थी परन्तु रूप के परिवार वालों को इसकी सूचना नहीं दी गई। रूपकँवर को उसके विरोध के बावजूद घसीटकर चिता पर लाया गया और उसे दवा देकर बेहोष कर चिता पर धकेल दिया गया। रिपोर्ट दर्षाती हैं कि स्थानीय अधिकारीगण इस नियोजित सती के बारे में जानते थे और फिर भी घटना को रोकने के लिए प्रभावी रूप से कुछ नहीं कर सकते थे।
उक्त बलिक्रिया के तुरंत बाद वह स्थल एक लोकप्रिय "तीर्थ स्थल में बदल गया, जहाँ बीसियों "भक्तजन" आने लगे। सती के समर्थकों ने एक संगठन भी बना डाला सती धर्म रक्षा समिति। उन्होंने "तीर्थयात्रियों के लिए सहायता जुटाई और सती कृत्य का महिमामण्डन कर उसका जिंसीकरण कर दिया। हालाँकि अनेक कानून मौजूद हैं जिनके तहत सती के सिद्धांतियों एवं मुनाफाखोरों को दण्डित किया जा सकता है, फिर भी राज्य सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की, खासकर इसलिए कि सती के समर्थक एवं पक्षधर राजपूत समुदाय के थे और यह मुद्दा राजपूत समुदाय की पहचान बन चुका था। राजनेताओं को किसी भी लिंग मुद्दे की बजाय अपने 'वोट बैंक' से करता था ।
नारी अधिकारवादियों और महिला सक्रिय प्रतिभागियों ने धर्म के नाम पर महिलाओं की हत्या का विरोध किया। उन्होंने दिल्ली के साथ-साथ देष के अन्य भागों में भी रोष प्रदर्षनों व अन्य कई तरह के विरोध प्रदर्षनों का आयोजन किया। नारी अधिकारवादियों ने राज्य के हस्तक्षेप की माँग की। उनकी कुछ मुख्य माँगें थीं: (i) रूपकँवर के ससुरालियों और उसे बेहोशी की दवा देने वाले डॉक्टर पर हत्या के लिए मुकदमा चलाया जाए; (ii) वे सभी जिन्होंने उसकी मौत से आर्थिक अथवा राजनीतिक लाभ कमाया को दण्डित किया जाए: और (iii) धर्म के नाम पर महिलाओं के प्रति अपराध की प्रतिबद्धता एवं महिमागान दोनों को निषिद्ध करने के लिए नया कानून लाने की प्रक्रिया शुरू की जाए (राधा कुमार ) ।
सती-समर्थन आंदोलन : नारी अधिकारवादी आन्दोलन को झटका
रूपकँवर की मृत्यु के पश्चात शीघ्र ही राजपूत सती क्रिया अपनी पति की चिता पर दुल्हन का आत्म-बलिदान के बचाव में सामने आ गए। उन्होंने इसका पक्ष इस आधार पर लिया कि सती राजपूत परंपरा का ही एक हिस्सा है जिसमें पुरुष युद्धभूमियों में मारते हैं और मरते हैं तथा महिलाएँ अपनी भूमिका स्वयं को घर पर मार कर निभाती हैं। राजपूतों ने सती को राजपूत पहचान का एक सच्चा उदाहरण बनाकर प्रस्तुत किया। सती-समर्थन खेमे का मुख्य तर्क यह था कि यदि राज्य जनता का प्रतिनिधित्व करता है तो राजपूत वे लोग हैं जिनमें सती एक आदर्ष है और परम्परा भी, जिसको मान्यता और वैधता प्रदान की जाए। और इस प्रकार, उनका कहना था, सती को वैधता का एक सोचा-समझा प्रयास है। कुछ प्रमुख हिन्दू मंदिरों के प्रधान पुजारी और कुछ उग्र हिंदू राष्ट्रवादी समूह भी सती समर्थन सक्रिय प्रतिभागियों में शामिल हो गए। सती-समर्थन आंदोलन बड़ी संख्या में महिलाओं को संघटित कर सकते थे जो कि वस्तुतः अपने ही दमन का समर्थन कर रही थीं। उनका कहना था कि वे हिन्दू महिलाओं की सच्ची आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं, और उन्होंने आरोप लगाया कि नारी अधिकारवादी जन अप्रतिविधिक हैं। इस प्रकार, नारी अधिकारवादियों को उन महिलाओं के हित में बोलने को उद्यत एक असंगत अवस्था में छोड़ दिया गया जिनका प्रतिनिधि होने का वे दावा नहीं कर सकते थे और जो अपने हितों को भिन्न तरीके से परिभाषित करती थीं।
Post a Comment