भारत में महिला आंदोलन| महिला आंदोलन सामाजिक आंदोलन का एक प्रकार |Women's Movement in India
भारत में महिला आंदोलन, महिला आंदोलन सामाजिक आंदोलन का एक प्रकार
भारत में महिला आंदोलन प्रस्तावना
- समाजिक आंदोलन को लोगों के समूह द्वारा किए गए संगठित प्रयास के रूप में परिभाषित किया गया है जो समाज में परिवर्तन लाने अथवा परिवर्तन का विरोध करने के लिए होता है। महिला आंदोलन समाजिक आंदोलन का एक महत्वपूर्ण प्रकार इस दृष्टि से है कि इसका उद्देश्य इन संस्थागत प्रबंधों, मूल्यों, रीति-रिवाजों और समाज की आस्थाओं में परिवर्तन लाना है जिन्होंने वर्षों से महिलाओं को पराधीन कर रखा है।
महिला आंदोलन सामाजिक आंदोलन का एक प्रकार
- सामाजिक आंदोलनों का अध्ययन करना केवल इतिहासकारों के अध्ययन का विषय नहीं है। सामाजिक संरचना प्रक्रिया और परिवर्तन के अध्ययन के साथ-साथ सामाजिक आंदोलन में समाजशास्त्रियों की भी बहुत रूचि है।
- सामाजिक आंदोलन एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा परिवर्तन में गतिशीलता या विरोध को सामूहिक प्रयास द्वारा लाया जा सकता है। परिवर्तन के संदर्भ में सामाजिक आंदोलन में तथा सामाजिक गतिशीलता की विकास मूलक ( उद्विकासीय) प्रक्रिया में अन्तर होता है। यह अंतर इस अर्थ में है कि आंदोलन समाज के एक या अनेक वर्गों में पाए जाने वाले अन्याय तथा दमन की अनुभूतियों पर आधारित होता है।
- सामाजिक आंदोलन विभिन्न विषयों पर ध्यान आकर्षित करने के लिए विरोध, मुकाबले या संघर्ष को एक माध्यम के रूप में ग्रहण करता है और इसका प्रयास होता है कि परम्परागत सामाजिक संरचनाओं और असमान तथा दमनकारी सामाजिक संबंधों में गुणात्मक परिवर्तन लाया जाये। महिला आंदोलन सामाजिक आंदोलनों का एक महत्वपूर्ण प्रकार है। यह जनजातीय और धार्मिक आंदोलनों आदि जैसे सामाजिक आंदोलनों पर हुए अध्ययनों का एक महत्वपूर्ण परन्तु उपेक्षित पहलू है।
- भारतीय समाज में, जाति, वर्ग, धार्मिक और नृजातीय विभेदों के आधार पर देश के विभिन्न भागों में महिलाओं के जीवन और समस्याओं में अंतर किया जाता है। भारत में बहुसंख्यक लोग ग्रामीण क्षेत्रों में रहते है और इन क्षेत्रों में विकास और परिवर्तन की प्रक्रिया महिलाओं के विभिन्न वर्गो को भिन्न-भिन्न तरीके से प्रभावित करती हैं। सांस्कृतिक रूप से भिन्न और स्तरित अथवा असमान समाज के संदर्भ में महिलाओं के आंदोलन के आविर्भाव को समझने की आवश्यकता है।
इस आर्टिकल में महिला
आंदोलन की चार शीर्षकों के अंतर्गत चर्चा की गयी है :
i) सुधार आंदोलन और महिलाओं के मुद्दे
ii) महिलाओं की स्वतंत्रता आंदोलन में सहभागिता
iii) स्वतन्त्रता - पश्चात् काल में संस्थागत पहल और महिलाओं से जुड़े मुद्दे
iv) 1970 और 80 के दशक में महिला आंदोलन का पुनरूत्थान यहाँ पर सबसे पहले सुधार आंदोलन और महिलाओं के मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित किया गया है।
उन्नीसवीं सदी के सामाजिक और धार्मिक आंदोलनों के प्रमुख उद्देश्य क्या थे?
उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में सुधार आंदोलन और महिलाओं से जुड़े मुद्दे
- भारत में महिलाओं की परिस्थिति विभिन्न कालों और विभिन्न वर्गो, धर्म और नृजातीय समूहों में अलग-अलग रही है। उन्नीसवीं शताब्दी में महिलाओं से संबंधित बहुत सी सामाजिक बुराइयाँ जैसे सती प्रथा (विधवा का अपने पति के साथ चिता में जीवित जल जाना), बाल विवाह, विधवा पुनर्विवाह पर निषेध, बहु विवाह इत्यादि फैली हुई थी जो वाद-विवाद का विषय बनी हुई थी।
- उन्नीसवीं सदी में ब्रिटिश काल के दौरान अंग्रेजी शिक्षा और भारतीयों के बीच पश्चिमी उदारवादी विचारधारा के प्रसार तथा ईसाई धर्म और मिशनरी क्रियाकलापों के प्रसार के फलस्वरूप सामाजिक परिवर्तनों और धार्मिक सुधारों के लिए बहुत से आंदोलन हुए।
- इन आंदोलनों के मुख्य उद्देश्य जाति सुधार, महिलाओं की मान प्रतिष्ठा में वृद्धि, महिला शिक्षा से प्रोत्साहन और विभिन्न समुदायों में फैली हुई सामाजिक बुराइयों पर प्रहार करना था, जिनकी जड़ें सामाजिक और वैधानिक तथा धार्मिक परम्पराओं से जुड़ी हुई थी ।
- उन्नीसवीं सदी के सामाजिक सुधार आंदोलनों के प्रारम्भिक चरण में राजा राम मोहन राय जैसे पुरुष सुधारकों द्वारा पहल की गई। इनके अंतर्गत जिन समस्याओं पर विचार विमर्श किया गया उनमें सती प्रथा, विधवाओं के साथ दुर्व्यवहार, विधवा पुनर्विवाह, बहु विवाह, बाल विवाह और सम्पत्ति पर महिलाओं का अधिकार न होना और महिला शिक्षा की आवश्यकता प्रमुख थी।
- पुरुषों द्वारा महिला शिक्षा के लिए शुरू किए गए संघर्ष के परिणामस्वरूप महिलाओं के लिए स्कूलों / कालेजों, विद्यालयों, महाविद्यालयों, छात्रावास, विधवा आश्रम और •रक्षा निकेतन आदि की स्थापना की गई। समाज सुधारकों की धारणा थी कि महिला शिक्षा परिवारिक व्यवस्था को पुनर्जीवित कर सकेगी जिसको शिक्षित पुरुषों और उनकी अशिक्षित पत्नियों के बीच संवादहीनता (संपर्क दूरी) ने संकट में डाल दिया था। इस प्रकार समाज सुधार आंदोलन के फलस्वरूप महिला संगठनों और संस्थानों का आविर्भाव देखने में आया हाँलांकि, ये आंदोलन पुरुषों द्वारा आगे बढ़ाए गए और इनका प्रारम्भ महानगरों से हुआ।
- समाज सुधार आंदोलन के नेताओं ने यह महसूस किया कि धार्मिक सुधारों को समाज सुधार से अलग नहीं किया जा सकता। अंग्रेजों की नीति थी कि विभिन्न धार्मिक समुदायों को एक दूसरे से अलग रखा जाए और प्रत्येक समुदाय के पारिवारिक कानूनों को पूर्ववत रखा जाए जो कि प्रत्येक समुदाय के धार्मिक और परम्परागत रीति-रिवाजों से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे। इसी कारण से, समाज सुधार आंदोलन कभी भी संगठित रूप से विकसित नहीं हो सके बल्कि वे प्रत्येक समुदाय के दायरों में विकसित हुए।
महिला आंदोलन और संगठन
इस काल ने विभिन्न संगठनों की तीव्र
वृद्धि को देखा। इन संगठनों ने उन महत्वपूर्ण समस्याओं पर ध्यान दिया जिनसे समाज
में महिलाओं की परिस्थति पर विपरीत प्रभाव पड़ता था। इन संगठनों में सबसे
महत्वपूर्ण संगठन ब्रहम समाज, प्रार्थना
समाज और आर्य समाज थे। निम्नलिखित भागों में, हम
इन संगठनों पर संक्षिप्त रूप में चर्चा करेंगे।
1 ब्रह्म समाज
- ब्रहम समाज की स्थापना 1825 में राजा राम मोहन राय द्वारा की गई थी और इसका उद्देश्य महिलाओं के विरूद्ध प्रतिबंधों और पूर्वाग्रहों को उखाड़ फेंकना था जिसकी जड़ें धर्म में थी। इसमें बाल बहुपत्नी विवाह, बहु विवाह, उत्तराधिकारी में प्राप्त सम्पत्ति में सीमित अधिकार और महिलाओं का पृथक्ककरण सम्मिलित थे। महिलाओं की शिक्षा को महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए एक महत्वपूर्ण साधन के रूप में देखा गया। केशव चन्द्र सेन ने घर पर महिलाओं को शिक्षित करने की आवश्यकता पर जोर दिया और इस उद्देश्य के लिए सरकारी समर्थन माँगा गया। महिलाओं की 'बामाबोधिनी पत्रिका' नामक एक पत्रिका का प्रारम्भ किया गया। ब्रहम समाज की देखरेख में अन्तर्जातीय विवाह भी कराए गए। इस प्रकार के प्रयासों को हिन्दू कट्टरवादिता के विरोध का सामना करना पड़ा और इसके फलस्वरूप 1872 में सिविल मैरिज एक्ट पास किया गया। इस अधिनियम ने अंतर्जातीय विवाह और तलाक के लिए इजाजत दे दी और लड़कियों के लिए विवाह की न्यूनतम आयु 14 वर्ष और लड़कों के लिए 18 वर्ष निश्चित की गई। ब्रहम समाज का प्रभाव केवल बंगाल और उत्तर भारत तक ही सीमित रहा।
2 प्रार्थना समाज
- इसकी स्थापना 1867 में की गई थी और इसके उद्देश्य भी ब्रहम समाज जैसे ही थे। हालांकि यह पश्चिमी भारत तक ही सीमित रहा। एम. जी. रानाडे और आर. जी. भण्डारकर इसके अगुवा थे। 1869 में बॉम्बे विडोज रिफार्म्स एसोसियेशन की स्थापना की गई और इसने 1869 में पहला विधवा पुनर्विवाह कराया। प्रार्थना समाज के दो नेता, आर. जी. भण्डारकर और एन.जी. चन्द्रावरकर, बाद में प्रथम महिला विश्वविद्यालय के उप कुलपति बने। इस विश्वविद्यालय की स्थापना कर्वे ने 1916 में बम्बई में की थी। बाद में इसका नाम बदलकर एस.एन.डी.टी. (SNDT) महिला विश्वविद्यालय कर दिया गया।
- इन दोनो आंदोलनों का जोर महिलाओं की शिक्षा पर था जिसमें आधुनिक शिक्षा से लाभ प्राप्त किए हुए पुरुषों और परिवार की महिलाओं के बीच बढ़ते हुए अंतर को कम किया जा सके।
- इसका विचार उन्हें बेहतर माँ और पत्नी बनाना था। महिला शिक्षा पर उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में भड़के वाद-विवाद ने दर्शाया कि यह केवल पश्चिमी शिक्षा के प्रयासों से उत्पन्न नहीं हुआ। अन्य सुधारकों ने भी महिलाओं की शिक्षा की आवश्यकता पर जोर दिया। ये दोनो आंदोलन शहरी, पश्चिमी में शिक्षित पुरुषों की प्रतिक्रिया का परिणाम थे और इनका उद्देश्य परिवार के अंतर्गत महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन लाना था।
3 आर्य समाज
- आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1875 में की थी। उपर्युक्त दोनों आंदोलन के विपरीत, आर्य समाज एक धार्मिक पुनर्जागरणवादी आंदोलन था। हिन्दू धार्मिक कट्टरता, मूर्ति पूजा और जाति भेद वाले समाज को अस्वीकार करते हुए इस आंदोलन का नारा था वापस वैदिक काल में चलो। प्राचीन भारत में महिलाओं की स्थिति का शानदार चित्रण करते हुए इस आंदोलन ने जाति प्रथा में सुधार, पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए आवश्यक शिक्षा, कानून द्वारा बाल विवाह का निषेध, बाल विधवा के पुनर्विवाह का समर्थन किया। सामान्यतः यह आंदोलन तलाक (विवाह-विच्छेद) और विधवा पुनर्विवाह के विरूद्ध था और इसमें लड़के तथा लड़कियों के लिए अलग-अलग विद्यालय पर जोर दिया। अनेक आर्य कन्या पाठशालाएँ खोली गई जो बाद में महाविद्यालय बन गई और इन्होने महिला शिक्षा में अपना योगदान दिया। यद्यपि मुख्यतः यह शहरी आंदोलन था फिर भी इसका प्रभाव अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों तक पड़ा था। इस आंदोलन ने जाति व्यवस्था को अस्वीकार किया परन्तु कभी भी इसके उन्मूलन की मांग नहीं की। जाति समूहों के अन्दर तय ( अरेंज) विवाह को प्राथमिकता और महिलाओं की घरेलू भूमिका पर जोर देने ने इसके महिलाओं की मुक्ति के ध्येय में योगदान को सीमित कर दिया ।
- राजा राम मोहन राय, रानाड़े और दयानन्द सरस्वती जैसे समाज सुधारकों ने प्राचीन भारत में महिलाओं की स्थिति की प्रशंसा की है। जबकि, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, ज्योतिबा फूले और लोकहितवादी गोपाल हरि देशमुख जैसे अति उग्रवादियों ने जाति प्रथा पर प्रतिघात किया और कहा कि महिलाओं के दमन के लिए जाति प्रथा ही उत्तरदायी है। फूले ने कहा कि शुद्र और महिलाओं को शिक्षा की मनाही कर दी गई ताकि वे समानता और स्वतंत्रता के मानव अधिकारों के महत्व को समझ ही न सके और कानून, रीति-रिवाज और परम्पराओं में दी गयी अपनी निम्न स्थिति को भी स्वीकार कर लें।
मुस्लिम महिलाएँ और समाज सुधार
- इसी प्रकार के आंदोलन उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में मुस्लिम समुदाय में भी प्रारम्भ हो गए। पर्दा प्रथा पर जोर और महिलाओं के बीच शिक्षा के मन्द प्रसार के कारण आंदोलन के विकास और मुस्लिम महिलाओं के लिए सुधार के अवसरों में देर लगी। भोपाल की बेगम, सैयद अहमद खान, अलीगढ़ के शेख अब्दुल्ला और लखनऊ के करामत हुसैन जैसे व्यक्तियों ने महिला शिक्षा में सुधार के लिए एक आंदोलन का नेतृत्व किया। 1916 में भोपाल की बेगम ने अखिल भारतीय मुस्लिम महिला सम्मेलन की स्थापना की।
- मुस्लिम समाज के परम्परावादियों ने ऐसे क्रियाकलापों को अस्वीकार कर दिया और 1917 में मुस्लिम महिला सम्मेलन द्वारा पारित प्रस्ताव से भड़क उठे जिसमें यह कहा गया था कि बहुविवाह का उन्मूलन होना चाहिए। बाद के वर्षों में अनेक मुस्लिम महिलाओं ने अंग्रेजों के विरूद्ध राष्ट्रवादी संघर्ष और असहयोग आंदोलन में भाग लिया। इसी प्रकार के आंदोलन विभिन्न क्षेत्रों में अन्य समुदायों के बीच भी उभरे। पंडिता रमाबाई और विद्यागौरी नीलकण्ठ जैसी कुछ महिला नेताओं को जाति से बाहर विवाह करने अथवा शिक्षा ग्रहण करने के कारण कड़े विरोध का सामना करना पड़ा।
- सामाजिक संरचना और जाति असमानताओं जिन्होने महिलाओं की निम्न स्थिति को स्थायी बनाया था, को चुनौती दिये बिना ये सभी आंदोलन परिवार के अन्तर्गत महिलाओं की स्थिति बदलने हेतु सीमित परिप्रेक्ष्य रखते थे। इनकी अपील केवल शहरी मध्यम वर्ग तक सीमित थी। तर्कों में सुधार आंदोलन की महिला पुरुष के बीच सामाजिक भेदभाव को मान्यता देने की प्रवृत्ति सुस्पष्ट थी कि शिक्षा महिलाओं की पत्नियों और माताओं के रूप में क्षमता को सुधारेगी / महिला-पुरुष में समानता (लैंगिक समानता) लाने का ध्येय उनके कार्यक्रम में नहीं था।
- धार्मिक रूढ़िवादिता पर जो महिलाओं के दमन का समर्थन करते थे, उन कट्टरपंथी पर एक हमले के रूप में आंदोलन की कल्पना नहीं की गई थी, सामाजिक सुधारकों ने महिलाओं से जुड़े प्रश्नों को एक सामाजिक समस्या के रूप में देखा था।
Post a Comment