एक ओर गांधीजी के नेतृत्व में अनेक देशभक्त महिलाएं राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हो रही थी, वही दूसरी ओर देश के प्रायः सभी हिस्सों में क्रांतिकारी गतिविधियों में महिलाएं महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही थी। महिला क्रांतिकारी श्रीमती ननीबाला देवी युगांतर पार्टी' की सदस्य थी, जो क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए जानी जाती थी। क्रांतिकारी आंदोलन के दौरान महिलाएं हथियारों को छुपाकर रखती थी, क्रांतिकारियों को शरण देती थी और उन्हें प्रोत्साहित करती थी। महिलाओं की यह घरेलू भूमिका क्रांतिकारी गतिविधियों को संरक्षण प्रदान करती थी।
सुशीला दीदी
काकोरी कांड के कैदियों के मुकदमे की पैरवी के लिए सुशीला दीदी ने अपनी स्वर्गीय माँ द्वारा विवाह के लिए रखे गये 10 तोला सोने को दान कर दिये थे। क्रांतिकारियों की पैरवी करने के लिए सुशीला दीदी ने मेवाड़पति' नामक नाटक खेलकर चंद्रा इकट्ठा किया था। 1930 के सविनय अविज्ञा आंदोलन में सुशीला दीदी ने 'इंदुमति के छद्म नाम से भाग लिया और गिरफ्तार भी हुई।
दुर्गा भाभी
'दि फिलासफी आफ बम' के लेखक भगवतीचरण बोहरा की पत्नी दुर्गादेवी बोहरा क्रांतिकारियों के बीच में 'दुर्गा भाभी' नाम से जानी जाती थी। दुर्गा भाभी ने 1927 में लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिए लाहौर में बुलाई गई बैठक की अध्यक्षता की थी। 1928 में सांडर्स की हत्या के बाद भगतसिंह और राजगुरु को दुर्गा भाभी जिस प्रकार पुलिस की आँखों में धूल झोंकर लाहौर से कलकत्ता पहुँचाया, वह आजादी के इतिहास का अनछुआ पृष्ठ है।
यही नहीं, बंबई के तत्कालीन गर्वनर हेली को मारने के लिए दुर्गा भाभी ने ही गोली चलाई थी, जिसमें टेलर नामक एक अंग्रेज घायल हो गया था। बंबई कांड में दुर्गा भाभी के विरुद्ध वारंट जारी हुआ और दो वर्ष से ज्यादा समय तक फरार रहने के बाद 12 सितंबर, 1931 को लाहौर में गिरफ्तार कर ली गई।
लतिका घोष
ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष में महिला क्रांतिकारिता का पहला प्रत्यक्ष उदाहरण 1928 में मिला, जब सुभाषचंद्र बोस के कहने पर लतिका घोष ने महिला राष्ट्रीय संघ शुरू किया। कलकत्ता में हो रहे कांग्रेस अधिवेशन में बोस ने कर्नल लतिका घोष के नेतृत्व में वोमेन वालंटियर काप्स का संगठन किया, जिसमें 128 महिला स्वयंसेवकों ने सैनिक वर्दी में परेड की।
चटगाँव आर्मरी रेड में महिलाओं की भूमिका
अप्रैल, 1930 में बंगाल में सूर्यसेन के नेतृत्व में हुए 'चटगाँव आर्मरी रेड' में पहली बार युवा महिला क्रांतिकारियों ने सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन में स्वयं भाग लिया। क्रांतिकारी महिलाएं क्रांतिकारियों को शरण देने, संदेश पहुँचाने और हथियारों की रक्षा करने से लेकर बंदूकें चलाने तक में प्रवीण थी। क्रांतिकारी महिलाओं में से एक प्रीतीलता वाडेकर ने एक यूरोपीय क्लब पर हमला किया और कैद से बचने के लिए आत्महत्या कर ली। कल्पनादत्त को सूर्यसेन के साथ ही गिरफ्तार कर 1933 में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।
दिसंबर, 1931 में फैजुनिसा गर्ल्स स्कूल की दो छात्राओं शांति घोष और सुनीति चौधरी ने कौमिल्ला के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट स्टीवेंस की दिनदहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी। 6 फरवरी, 1932 को बीनादास ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में उपाधि ग्रहण करने के समय बंगाल के गवर्नर पर नजदीक से गोली चला कर अंग्रेजी सत्ता को चुनौती दी। महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि ये क्रांतिकारी महिलाएं 1928 में हुए कांग्रेस अधिवेशन की परेड में शामिल थी, जो कर्नल लतिका घोष व सुभाषचंद्र बोस ने तैयार की थी। सुहासिनी अली तथा रेणुसेन ने भी अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों से 1930-34 के मध्य बंगाल में धूम मचा दी थी।
आजाद हिंद फौज में महिलाओं की भूमिका
सुभाषचंद्र बोस ने दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रवासी भारतीयों की इंडियन नेशनल आर्मी का गठन किया था। कैप्टन डा. लक्ष्मी सहगल आजाद हिंद सरकार में महिला विभाग की मंत्री और आजाद हिंद फौज की रानी झाँसी रेजीमेंट की कमांडिंग आफिसर रही। बोस के आह्वान पर डा. लक्ष्मी सहगल ने सरकारी डाक्टर की नौकरी छोड़ दी थी। कैप्टन सहगल के साथ मानवती आर्या भी आजाद हिंद फौज की रानी झांसी रेजीमेंट में लेफ्टिनेंट रही। रानी झांसी रेजीमेंट की महिलाओं का प्रशिक्षण भी पुरुषों रेजीमेंट के समान ही होता था और उन्हें पुरुष सैनिकों के समान ही वर्दी पहनना पड़ता था। आजाद हिंद फौज की महिलाओं की वीरता की कहानी ने भारत की दूसरी महिलाओं को मनोवैज्ञानिक रूप से बहुत प्रभावित किया।
किसान एवं वामपंथी आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका
किसान और वामपंथी आंदोलनों के दौरान भी स्त्रियां पहली पंक्ति में दिखाई पड़ी। 1912-14 में बिहार में जतरा भगत ने जनजातियों को लेकर ताना आंदोलन चलाया। जतरा की गिरफ्तारी के बाद उसी गाँव की महिला देवमनियां उरांइन ने आंदोलन की बागडोर संभाली थी। कम्युनिस्ट आंदोलन,सामंतवाद विरोधी आंदोलनों में भी अनेक महिलाएं शामिल हुई थी। 1930 के दशक के उत्तरार्ध में ऊषाबाई डांगे जैसी कम्युनिस्ट महिलाओं ने मुंबई में सूती मिलों में काम करनेवाली श्रमिक महिलाओं को संगठित किया। 1939 में पहली बार राजनीतिक बंदियों की रिहाई के लिए देशव्यापी अभियान में कम्युनिस्ट और राष्ट्रवादी महिलाओं ने एक साथ काम किया। 1940 तक वामपंथी आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन बन चुका था जिसमें अनेक छात्राएं शामिल थी। 1941 में दिल्ली में लगभग 20,000 छात्राओं ने जुलुस निकाला, जिनमें कई वामपंथी महिलाएं भी थी। राष्ट्रवादी आंदोलन में छात्राओं की सहभागिता बढ़ने के कारण आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन ने छात्राओं की एक अलग समिति बनाई, जिसमें 1941 तक 50,000 से अधिक छात्राएं शामिल हो चुकी थी। 1942 में बंगाल की कुछ वामपंथी नेत्रियों ने एक महिला आत्मरक्षा समिति का गठन किया था।
महिला आत्मरक्षा समिति की महिलाओं ने 1943 में बंगाल में पड़े अकाल में अनेक राहत कार्य किये। धीरे धीरे महिला आत्मरक्षा समिति की सदस्य संख्या बढ़ती गई और इसमें शहरी व ग्रामीण सभी स्तर की महिलाएं शामिल होती गई।
1946 में सामंती उत्पीड़न के खिलाफ चलाये गये तेभागा व तेलंगाना आंदोलन में महिलाओं ने ऐतिहासिक भागीदारी निभाई। तेभागा आंदोलन में किसान महिलाओं ने 'नारी-वाहिनी' दल बनाकर उपलब्ध हथियारों के बल पर औपनिवेशिक राज्य से लोहा लिया। तेलंगाना संघर्ष में हैदराबाद के निजाम के सामंती दमन के खिलाफ बेहतर मजदूरी, सही लगान जैसे मुद्दों को लेकर महिलाओं ने पुरुषों के समान संघर्ष किया। इसी तरह 1946 में जमीनी संपति व निजी अधिकारों के साथ केरल की वामपंथी महिलाओं ने पुरुषों के साथ त्रावनकोर की सत्ता के विरुद्ध आंदोलन किया और सामंती ताकतों को हराया।
वर्ली आदिवासियों के लिए वामपंथी नेत्री गोदावरी पास्लेकर ने संघर्ष किया। कपड़ा मजदूरों के समर्थन में कम्युनिस्ट ऊषाताई डांगे व पार्वती भोरे ने सक्रिय भूमिका निभाई। कम्युनिस्ट महिलाओं ने संपति-संबंधी अधिकार, व्यक्तिक अधिकार और कानूनी अधिकार जैसे जरुरी बदलावों की जोरदार ढंग से माँग की। किंतु इन महिलाओं ने शायद ही पितृसत्ता जैसी गंभीर समस्या का विरोध किया था। कम्युनिस्ट नेता ही कम्युनिस्ट महिलाओं को बराबर का दर्जा नहीं देते थे और महिलाओं को सिर्फ सहायक व द्वितीय दर्जे की भूमिका निभाने का जिम्मा दिया जाता था। सक्रिय भूमिका निभानेवाली महिलाएं भी आंदोलन के समाप्त होते-होते पितृसत्तात्मक संरचना में वापस लौट जाती थी। मल्लू स्वराज्यम् जैसी एक स्त्री, जो 'तेलंगाना की मशहूर वीरांगना' थी, आंदोलन की वापसी के कुछ साल बाद क्या कर रही थी? उसके पति के शब्दों में, पका रही है और खा रही है और क्या?" कम्युनिस्ट नेतृत्व भी स्त्रियों को उसी सीमा में अंदर रखना चाहता था, जिसमें वह परंपरागत रूप से रहती रही थी अर्थात् समानतावादी समाज का जो सपना क्रांतिकारी महिलाओं ने देखा था, वह पूरा नहीं हुआ।
महिला संगठनों में महिलाओं की भूमिका
राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान महिला संगठनों ने महिला उत्थान के साथ-साथ भारतीय राष्ट्र के निर्माण में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। 19वीं सदी के सभी संगठन प्रायः पुरुष सुधारकों द्वारा ही स्थापित किये गये थे, जो घर की चहारदीवारी को ही महिलाओं के प्राथमिक और मौलिक गतिविधियों का क्षेत्र मानते थे। किंतु कुछ उदारपंथी सुधारक महिलाओं के राष्ट्र निर्माण के कार्य में सीमित रूप से भाग लेने के पक्षधर थे। दूसरे शब्दों में, पितृसत्ता की पकड़ में बहुत मामली-सी ढील दी गई थी।
महिलाओं की स्वतंत्र पहचान के लिए सरलादेवी चौधरानी ने 1901 में नेशनल सोशल कांफ्रेंस के अंतर्गत भारत स्त्री महामंडल की स्थापना की। भारत स्त्री महामंडल संभवतः पहला महिला संगठन था, जिसकी स्थापना एक महिला द्वारा की गई थी। 1917 में एनी बेसेंट, मारग्रेट कौसिंस आदि ने मद्रास में भारतीय महिला संघ' की स्थापना की। 1917 में ही सरोजिनी नायडू के नेतृत्व में महिलाओं के एक प्रतिनिधिमंडल ने पुरुषों के समान महिलाओं के लिए मताधिकार और शिक्षा की सुविधाओं की माँग की जिसे 1919 के अधिनियम में आंशिक रूप से पूरा भी किया गया। इस प्रकार विभिन्न प्रांतों की विधानसभा चुनावों में महिलाओं को मत देने का अधिकार मिला और धीरे-धीरे यह भी मान लिया गया कि महिलाएं विधान परिषद् की सदस्य भी बन सकती है। 1920 के बाद आत्मचेतन और आत्मविश्वास प्राप्त स्त्रियों ने स्वयं अनेक संस्थाओं और संगठनों को खड़ा किया।
1925 में लेडी मेहरीबाई टाटा की पहल पर नेशनल कौंसिल आफ इंडिया' और 1927 में 'अखिल भारतीय महिला संघ' (All India Women's Conference) की स्थापना की गई। चूंकि इन संगठनों के अधिकतर सदस्य भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भी सदस्य थे, इसलिए मताधिकार विस्तार, राजनीतिक गरमवाद तथा उपनिवेशवाद-विरोध जैसे मुद्दों को समय-समय पर कांग्रेस ने भी अपने प्रस्तावों में शामिल किया। 1927 में अखिल भारतीय महिला शिक्षा सम्मेलन का आयोजन पुणे में हुआ।1931 में कराची में महिला अधिकार को कांग्रेस ने जनता के मौलिक अधिकारवाले प्रस्ताव में शामिल किया। प्रथम गोलमेज सम्मेलन में राधाबाई सुब्बारायण तथा बेगम शाहनवाज खान ने महिला प्रतिनिधियों के रूप में भाग लिया।
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में सरोजिनी नायडू के नेतृत्व में आठ सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल ने सार्वजनिक वयस्क तथा मिश्रित सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों की माँग की थी।1935 के भारत सरकार अधिनियम में मतदाता स्त्रियों का अनुपात बढ़ाकर 1/5 कर दिया गया और महिलाओं के लिए कुछ सीटे भी आरक्षित की, किंतु कांग्रेस और महिला संगठनों ने इसे अस्वीकार कर दिया और सार्वजनिक वयस्क मताधिकार की माँग की। महिला संगठनों ने 'विस्तारित महिला क्षेत्र का निर्माण किया। ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रवादी भी महिला प्रश्नों को गंभीरता से लेने लगे थे, क्योंकि राष्ट्र निर्माण के कार्य में उन्हें महिलाओं की भागीदारी की अत्यंत आवश्यकता थी। महिला संगठनों ने क्रांतिकारी व नारीवादी विचारधारा को नहीं अपनाया, क्योंकि ये संगठन स्वयं पुरुषों के समर्थन और पुरुष प्रभुत्ववादी राष्ट्रीय दलों के भाग के रूप में कार्य करते थे।
महिला संगठनों के शीर्ष नेतृत्व पर प्रायः यह आरोप लगया जाता रहा है कि इन संगठनों की अध्यक्षता समृद्ध परिवारों की महारानियां करती थी और गरीब, दलित व पिछड़े वर्ग की महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाता था। भारत की संविधान सभा में सुचेता कृपलानी, दुर्गाबाई देशमुख, रेणुका राय, हंसा मेहता जैसी महिलाएं भी चुनी गई। महिला सदस्यों ने संविधान सभा में संविधान निर्माण के समय महिला उद्धार के लिए आवाज उठाई और लैंगिक समानता को संविधान में जगह दिलाने का प्रयास किया। परिणामतः स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में महिलाओं को सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार प्राप्त हुआ।
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