भारतीय राष्ट्रवाद में महिलाओं की भूमिका| Role of Women in Indian Nationalism

 भारतीय राष्ट्रवाद में महिलाओं की भूमिका

Role of Women in Indian Nationalism

 

भारतीय राष्ट्रवाद में महिलाओं की भूमिका| Role of Women in Indian Nationalism

 भारतीय राष्ट्रवाद में महिलाओं की भूमिका (Role of Women in Indian Nationalism)

  • 1857 के बाद भारत की धरती पर हो रहे परिवर्तनों ने जहाँ एक ओर राष्ट्रीय नवजागरण की पृष्ठभूमि तैयार कीवही दूसरी ओर पाश्चात्य शिक्षाआधुनिक मूल्यों और वैज्ञानिक ज्ञान की रोशनी में रूढ़िवादी समाज के अनेक मूल्य टूट रहे थे। ब्रिटिश नीतियों और सुधार आंदोलनों के कारण अब हिंदू समाज के बंधन ढीले पड़ने लगे थे और स्त्रियों की दुनिया चूल्हा-चैके से बाहर निकल कर एक नये क्षितिज में विस्तार पाने लगी थी। यद्यपि वैचारिक स्तर पर राष्ट्रवाद पुरुषत्व पर आधारित थाकिंतु राष्ट्रीय आंदोलन को जनता से जोड़ने के लिए राष्ट्रवादियों ने मातृत्व की अवधारणा को राष्ट्रीय भावना से जोडकर भारत को मातृभूमिके रूप में प्रस्तुत किया। राष्ट्रीय आंदोलन के इस चरण में महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में भाग लेने के लिए प्रेरित तो किया गयाकिंतु उन्हें घरेलू क्षेत्र की सीमा में रहने की हिदायत भी दी गई थी।


भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में महिलाओं की भूमिका

 

  • 19वी शताब्दी के अंतिम चरण में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के साथ ही स्त्रियों की भूमिका में कुछ परिवर्तन हुआ। इस दौर में महिलाओं ने अपनी घरेलू भूमिका का निवर्हन करते हुए आंदोलन में भागीदारी की। यद्यपि पितृसत्ता को लचीला बना दिया गया थाकिंतु अभी भी महिलाएं उसकी परिधि से पूरी तरह बाहर नहीं निकल पाई थी। अब भी महिलाएं पुरुषों के निर्देशानुसार ही कार्य कर रही थी और उनकी राजनीतिक भागीदारी पुरुषों की स्वीकृति पर ही निर्भर थी। 1890 में भारतीय महिला उपन्यासकार स्वर्णकुमारी घोषाल तथा ब्रिटिश साम्राज्य की पहली महिला स्नातक कादंबरी गांगुली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के तौर पर शामिल हुई थी। इससे लगता है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों में महिलाएं पुरुषों की ही भाँति भाग लेने लगी थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में महिलाओं की यह सहभागिता प्रायः प्रतीकात्मक ही होती थीक्योंकि सभी निर्णयों पर राष्ट्रवादी अभिजन पुरुष वर्ग का ही एकाधिकार था।

 

  • सावित्रीबाई फुले और पंडिता रमाबाई जैसी कुछेक महिलाएं भी थीजिन्होंने खुलकर औपनिवेशिक पितृसत्तात्मकता पर प्रहार किया। पं. रमाबाई ने तो ब्राह्मण महिला होकर भी न केवल शूद्र पुरुष से विवाह कियाबल्कि विधवा होने के बावजूद सार्वजनिक जीवन में बनी रही और चुनाव में उम्मीदवार बनने जैसा राजनीतिक कार्य भी किया। 


बंग-भंग-विरोधी आंदोलन में महिलाओं की भूमिका

 

  • भारतीय स्त्रियों की जागृति तथा मुक्ति में सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी भागीदारी का रहा। बीसवी सदी में राष्ट्रीय आंदोलन के विकास के साथ महिला उद्धार आंदोलन को पर्याप्त बल मिला और राष्ट्रीय आंदोलन में अनेक महिलाओं ने सक्रिय भूमिका भी निभाई। 1905-06 के बंगाल-विभाजन विरोधी आंदोलन में बड़ी संख्या में महिलाओं ने सार्वजनिक रूप से भाग लिया। इस चरण में पत्र-पत्रिकाओंविशेषकर सभाओं व महिला संगठनों के माध्यम से अनेक महिलाओं को आंदोलन में सहभागिता हेतु प्रेरित किया गया। इस समय का गाया जानेवाला गीत 'वंदेमातरम्बाद में संपूर्ण स्वतंत्रता आंदोलन का राष्ट्रीय गीत बन गया।

 

  • भाई-बहन के पवित्र त्यौहार रक्षाबंधन को बंग-भंग विरोधी आंदोलन में एक अनूठे रूप में प्रयोग किया गयाजिसमें बंगाली हिंदू व बंगाली मुस्लिमों ने एक दूसरे के हाथों में राखियां बाँधी। स्वदेशी और बहिष्कार के इस आंदोलन में शहरी मध्यवर्ग की सदियों से घरों में कैद महिलाएं जुलूसों और धरनों में शामिल हुई। ब्रिटिश शासन का विरोध करने के लिए महिलाओं ने विदेशी सामानों का बहिष्कार कियाजिसे 'पिकेटिंगकहा जाता था। ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार के क्रम में महिलाओं ने अपनी काँच की चूडियां तोड डाली और प्रतिरोध के अनुष्ठान के रूप में रसोई-बंदी दिवस मनाया। इन गतिविधियों के अलावा महिलाओं ने स्वदेशी मेला लगाना शुरू किया।

 

  • सरलादेवी चौधरानीजिन्हें ब्रिटिश राज के लिए अपने पति से ज्यादा खतरनाक माना जाता थाने 'लक्ष्मी भंडारखोला। स्वामी श्रद्धानंद की पुत्री वेदकुमारी और आज्ञावती ने महिलाओं को संगठितकर विदेशी कपड़ों की होली जलाई। कालांतर में वेदकुमारी की पुत्री सत्यवती ने 1928 में साइमन कमीशन के दिल्ली आगमन पर काले झंडे दिखाये और सविनय अवज्ञा आंदोलन बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इस प्रकार बंगाल-विभाजन विरोधी आंदोलनों में महिलाओं की सहभागिता से स्पष्ट है कि पारिवारिक दायरे में रहते हुए व्यक्तिगत स्तर पर महिलाएं आंदोलन में भागीदार बनने लगी थी। जब भूपेंद्रनाथ दत्त को राजद्रोही लेख लिखने के कारण सजा हुईतो लगभग 500 महिलाओं ने उनके घर जाकर उनकी माँ भुवनेश्वरी देवी दी तथा ढाढ़स बंधाया था। स्वदेशी आंदोलन के बाद स्त्रियों की राजनीतिक गतिविधियों में काफी वृद्धि हुई।

 

  • 1917 में कांग्रेस अधिवेशन के पहले दिन कांग्रेस अध्यक्ष एनी बेसेंट अलावा दो अन्य महिलाएं कांग्रेस के मंच और कार्यवाही में शामिल हुईजिनमें एक सरोजिनी नायडू और दूसरी अली बंधुओं की माँ बी अम्मा थी। अपने इसी अधिवेशन में कांग्रेस ने महिलाओं के लिए शिक्षा और निर्वाचित संस्थाओं में प्रतिनिधित्व की माँग की थी। अगले वर्ष 1918 में सरोजिनी नायडू ने कांग्रेस अधिवेशन में स्त्री-पुरुषों के लिए मताधिकार की समान योग्यता की माँग हेतु एक प्रस्ताव रखा। विभिन्न महिला संघकांग्रेस व महिला प्रदर्शनकारियों की माँग के कारण ही 1919 के भारत सरकार अधिनियम में महिलाओं को सीमित मताधिकार प्राप्त हुआ। 1919 के बाद स्त्रियां राजनीतिक जुलूसों में चलने लगीविदेशी वस्त्रों और शराबों की दुकानों पर घरना देने लगी और खादी बुनने तथा उसके प्रचार का कार्य करने लगी। 


गांधीवादी आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका

 

  • भारतीय राजनीति में महात्मा गांधी के पदार्पण से राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी का नया चरण शुरू हुआ। दक्षिण अफ्रीका में ही अपने संघर्षों के दौरान गांधीजी की महिलाओं की शक्ति का अनुभव हो चुका था। गांधीजी जानते थे कि राष्ट्रीय आंदोलन को सच्चे अर्थों में जनांदोलन बनाने के लिए उसमें महिलाओं की व्यापक भागीदारी बहुत आवश्यक है। गांधीजी ने आदर्श भारतीय नारी की अवधारणा प्रस्तुत किया और महिलाओं को राष्ट्र की सेवा में लग जाने और अपने देश के लिए बलिदान देने का आह्वान किया। गांधीजी ने स्त्री-पुरुष के बीच 'स्वाभाविक श्रम विभाजनपर जोर दिया और द्रोपदीसीता और सावित्री को महिलाओं का आदर्श बताया। गांधीजी का कहना था कि द्रोपदीसीता और सावित्री में जो गुण थेवही स्वाधीनता संग्राम में हिस्सेदारी करनेवाली महिलाओं में भी होने चाहिए।

 

  • गांधीजी मानना था कि बराबरी का अर्थ यह नहीं है कि महिलाएं वह सब काम करेंजो पुरुष करते हैं। गांधीजी का कहना था कि अपने स्वभाव व क्षमतानुसार सभी को अलग-अलग कार्य करने चाहिए। गांधीजी का मानना था कि घर देखना • महिलाओं का मूल कर्तव्य हैकिंतु वे विदेशी कपड़ों और शराबों की दुकानों पर धरने देकर स्वदेशी और सत्याग्रह जैसे अहिंसक आंदोलनों में भागीदारी कर राष्ट्र की सेवा कर सकती हैं। इस प्रकार गांधीजी ने महिलाओं को सुधार की वस्तु के रूप में नहींबल्कि एक जागरूक नागरिक और अपने भाग्य-निर्माता के रूप में देखाजो स्वयं के साथ राष्ट्र का भी भाग्य बदल सकती हैं।

 

  • प्रथम विश्वयुद्ध के बाद 1919 में रौलट ऐक्ट का विरोध करने के लिए गांधीजी ने महिलाओं के लिए कार्यक्रम बनाया। 6 अप्रैल को सभी वर्गों व समुदायों की महिलाओं को संबोधित करते हुए गांधीजी ने रोलट कानून के विरोध में सत्याग्रह में शामिल होने को कहा। गांधीजी की उच्च नैतिक स्थिति के कारण जब महिलाएं घर से बाहर निकलकर राजनीतिक गतिविधियों में भाग ले रही थीतो उनके परिवारवालों को विश्वास था कि वह सुरक्षित रहेंगी। इसी विश्वास के कारण गांधीजी द्वारा निर्देशित व संचालित प्रायः सभी आंदोलनों में महिलाओं की सहभागिता अपेक्षाकृत अधिक व्यापक रही। गांधीजी ने ब्रिटिश राज को 'रावणराजकी संज्ञा देते हुए कहा कि सीता ने कभी भी रावण के साथ सहयोग नहीं किया थाइसलिए भारतीय जनता को भी इस राक्षसी सरकार के साथ सहयोग नहीं करना चाहिए। रामराज्य केवल तभी आ सकता हैजब महिलाएं निष्ठावान्साहसी सीता जैसी बनेंगी और पुरुषों के साथ एकीकृत रूप से आगे बढ़ते हुए इस अनैतिक शासन के खिलाफ लड़ेंगी। 


असहयोग आंदोलन में महिलाओं की भूमिका

 

  • असहयोग आंदोलन की शुरुआत में महिलाओं के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्णकिंतु सीमित भूमिका रखी गई थी जो मुख्यतः स्वदेशी व बहिष्कार के अभियान से संबंधित थी। गांधीजी ने महिलाओं को स्वदेशी अपनाने तथा चरखे के प्रयोग का संदेश दिया। चरखे से खादी बनाने में महिलाओं को आमदनी भी होने लगीजिसके कारण पुरुष भी इस कार्य में उनको सहयोग देने लगे। गांधीजी ने भारतीय जनमानस को यह विश्वास दिलाया कि असहयोग आंदोलन की सफलता स्वदेशी अपनाने व विदेशी के बहिष्कार पर टिकी हैंइसलिए आंदोलन की सफलता के लिए महिलाओं समान सहभा आवश्यक है। प्रयासों से असहयोग आंदोलन के दौरान देश के भिन्न-भिन्न भागों में महिलाओं ने प्रदर्शनोंजुलूसों और सभाओं में भाग लिया। अनेक महिलाओं ने खादी व चरखे जैसे रचनात्मक कार्यों को अपनाया और कुछेक ने सरकारी विद्यालयों का बहिष्कार किया। नवंबर, 1921 में महिलाओं ने अपने जोरदार विरोध प्रदर्शन से प्रिंस आफ वेल्स का स्वागत किया।

 

  • इससे पहले अगस्त, 1921 में बंगाल के कांग्रेसी नेता चितरंजन दास की विधवा बहन ने महिलाओं के समूह को संबोधित करते हुए कहा था कि महिलाओं को अपने देश की सेवा करने के लिए अपने घरों को छोड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए। दिसंबर, 1921 में कलकत्ता में असहयोग आंदोलन के समर्थन में खुलेआम आक्रोश प्रदर्शन करते हुए चितरंजन दास की पत्नी बसंती डेबहन उर्मिला देवी तथा भतीजी सुनीति डे जेल गई। कलकत्ता में महिलाओं ने खादी बेंचकर शराब की दुकानों पर धरना देकर अपनी गिरफ्तारियां दीअसहयोग कियाकानून तोड़कर जेल गई और पुलिस की लाठियां तक खाईं। गांधीजी जगह-जगह घूमकर महिलाओं को ब्रिटिश सरकार के अनुचित कानूनों का विरोध करने के लिए प्रेरित करते रहे। असहयोग आंदोलन में बढ़ चढ़कर भाग लेनेवाली कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने बर्लिन में अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व कर तिरंगा फहराया। 


भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में मुस्लिम महिलाओं की भूमिका

 

  • हिंदू महिलाएं ही नहीमुस्लिम महिलाएं भी धीरे धीरे असहयोग आंदोलन से जुड़ रही थी। 1921 के दौर में अली बंधुओं की माँ बी अम्मा ने लाहौर से निकलकर अनेक महत्त्वपूर्ण नगरों का दौरा किया और हिंदू-मुस्लिम एकता का 1922 में बी अम्मा ने शिमला दौरे के समय वहाँ की फैशनपरस्त महिलाओं को खादी पहनने के लिए प्रेरित किया। बी अम्मा ने 'आल इंडियन लेडीज कांफ्रेंस में 6,000 महिलाओं को संबोधित करते हुए आह्वान किया था कि यदि पुरुष गिरफ्तार हो जायेंतो महिलाएं धरना-प्रदर्शन करें और झंडे को लहराती रहें। यद्यपि बी अम्मा ने अपनी पूरी जिंदगी पर्दे में गुजारी थीलेकिन सभाओं में उन्होंने बुर्का उठाकर अपनी बात रखी। उस दौर में मुस्लिम महिलाओं के लिए यह बहुत बड़ी बात थी। हसरत मोहानी की बेगम ने भी मर्दाना वेश धारण कर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया और तिलक के गरम दल में शामिल होने पर जेल गई। 1917 में सरोजिनी नायडू के नेतृत्व में महिला मताधिकार को लेकर वायसराय से मिलने गये प्रतिनिधिमंडल में हसरत मोहानी की बेगम भी शामिल थी। जैसे-जैसे असहयोग आंदोलन आगे बढ़ावैसे-वैसे महिलाओं की सक्रियता भी बढ़ती गई।

 

  • दुर्गाबाई देशमुखकस्तूरबा गाँधीकमलादेवी चट्टोपाध्यायसरोजिनी नायडूनेहरू परिवार की उमा नेहरू और कमला नेहरू इस आंदोलन में सक्रिय रही। यद्यपि असहयोग आंदोलन में महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर भागेदारी कीकिंतु ये महिलाएं अधिकतर अभिजन व मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से थी और व्यापक स्तर पर यह आंदोलन आम महिलाओं से नहीं जुड़ सका। फिर भीयह आंदोलन उस स्त्री वर्ग के लिए काफी महत्त्वपूर्ण थाजिसे सदैव किसी तरह की पहल करने से वंचित रखा गया था। 


सरोजिनी नायडू

 

  • 1925 में कानपुर में हुए कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता 'भारत कोकिलासरोजिनी नायडू ने कीजिन्हें कांग्रेस का प्रथम भारतीय महिला अध्यक्ष बनने का गौरव भी प्राप्त है। नायडू 1914 में पहली बार गांधीजी से इंग्लैंड में मिली थी और उनके • विचारों से प्रभावित होकर देश के लिए समर्पित हो गई थी। सरोजिनी नायडू ने खिलाफत और असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से गाँव-गाँव घूमकर देशप्रेम का अलख जगाया था। अपनी लोकप्रियता और प्रतिभा के कारण 1932 में सरोजिनी नायडू ने दक्षिण अफ्रीका में भारत का प्रतिनिधित्व किया। देश की स्वतंत्राता के बाद सरोजिनी नायडू उत्तर प्रदेश की पहली महिला राज्यपाल भी बनी। स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं ने राष्ट्रवादियों को विविध प्रकार से प्रोत्साहन भी दिया। बारदोली सत्याग्रह के दौरान सरदार वल्लभभाई पटेल को 'सरदारकी उपाधि वहाँ की महिलाओं ने ही दी थी। 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान अरुणा आसफ अली जैसी महिलाएं राष्ट्रीय रंगमंच पर तेजी से उभरी। सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान अकेले दिल्ली में 1,600 महिलाओं ने अपनी गिरफ्तारी दी।

 

इंदिरा प्रियदर्शिनी 

  • बारह वर्ष की इंदिरा प्रियदर्शिनीने बच्चों को लेकर एक चरखा संघऔर 'वानर सेना का गठन किया थाजिसका उद्देश्य सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय मदद करना और एक ठोस आधार के साथ उसे बढ़ावा देना था। इंदिरा 'प्रियदर्शिनीने कृष्ण मेनन के नेतृत्व में इंडियन लीग में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया। 1938 में इंदिरा 'प्रियदर्शिनीकांग्रेस की सदस्य बनी और स्वतंत्रता आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़ी रही। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान इंदिरा 'प्रियदर्शिनीको उनके पति के साथ गिरफ्तार करके नैनी जेल भेज दिया गया। इंदिरा 'प्रियदर्शिनीगाँवों मेंविशेषकर महिलाओं से संपर्क स्थापित करने में बराबर सक्रिय रही। 1947 में इंदिरा 'प्रियदर्शिनीने दिल्ली के दंगा पीडित क्षेत्रों में गांधीजी के निर्देशों के अनुसार काम किया। 


विजयलक्ष्मी पंडित

 

  • नेहरू परिवार की बेटी विजयलक्ष्मी पंडित भी गांधीजी से प्रभावित होकर जंग-ए-आजादी में कूद पड़ी। विजयलक्ष्मी एक पढ़ी-लिखी और प्रबुद्ध महिला थी और विदेशों में आयोजित विभिन्न सम्मेलनों में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया। 1936 में विजयलक्ष्मी उत्तर प्रदेश असेंबली के लिए चुनी गई और 1937 में भारत की पहली महिला कैबिनेट मंत्री बनी। विजयलक्ष्मी हर आंदोलन में आगे रहतीजेल जातीरिहा होती और फिर आंदोलन में जुट जाती। 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ के सैन फ्रांसिस्को सम्मेलन में विजयलक्ष्मी ने भारत का प्रतिनिधित्व किया। विजयलक्ष्मी स्वतंत्र भारत की पहली महिला राजदूत थीजिन्होंने मास्कोलंदन और वाशिंगटन में भारत का प्रतिनिधित्व किया।
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