भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन महिलाओं की भूमिका|Role of women in Quit India Movement
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में आदिवासी महिलाओं की भूमिका
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में आदिवासी महिलाओं की भूमिका
- 1931-32 के कोल आंदोलन में आदिवासी महिलाओं ने सक्रिय भूमिका निभाई थी। बिरसा मुंडा के सहयोगी गया मुंडा की पत्नी माकी अपने बच्चे को गोद में लेकर फरसा-बलुआ से अंग्रेजों से अंत तक लड़ती रही थी। 1930-32 में मणिपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष का नेतृत्व नागा रानी गिडाल्यू ने किया। गिडाल्यू से भयभीत अंग्रेजों ने इनकी गिरफ्तारी पर पुरस्कार की घोषणा की और कर माफ करने का आश्वासन भी दिया था। अंततः गिडाल्यू पकड़ी गई और भारत के आजाद होने तक काल कोठरी में रही।
- 1935 के बाद महिलाएं विधान मंडलों के चुनाव में वोट देने तथा उम्मीदवारों के रूप में मैदान में उतरने लगी। अनेक महिलाएं 1937 में बनी लोकप्रिय कांग्रेसी सरकारों में मंत्री या संसदीय सचिव बनी और सैकड़ों महिलाएं स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में सदस्य चुनी गई। अब जेल जाने या गोली खानेवाली स्त्रियों को 'दासी' या गुडिया' कहकर घरों में कैदकर बहलाया जाना संभव नहीं था।
भारत छोड़ो आंदोलन में महिलाओं की भूमिका
- 'भारत छोड़ो आंदोलन' में महिलाओं ने भारतीय स्वतंत्रता के अनुशासित सिपाही की तरह अपनी भूमिका निभाई। गांधीजी ने पिछले अहिंसक आंदोलनों की तरह महिलाओं का नमक बनाने, विद्यालयों के बहिष्कार, विदेशी व शराब की दुकानों पर घरने देने का आह्वान किया। भारत छोड़ो आंदोलन में महिलाओं ने गरम व अहिंसक, दोनों तरीकों का प्रयोग किया। "गांधीजी ने करो व मरो' का नारा दिया और महिलाओं की विशेष भागीदारी पर जोर दिया। आंदोलन शुरू होते ही गांधी सहित तमाम कांग्रेसी नेताओं की गिरफ्तारी के बाद आंदोलन को चलाने की जिम्मेदारी महिलाओं ने स्वयं संभाल ली। महिलाओं ने व्यापक स्तर पर धरने-प्रदर्शन किये, हड़तार्ले की, सभाएं की और कानून तोड़े। इन महिलाओं में असम की कबकलता बरुआ, सुचेता कृपलानी, सरोजिनी नायडू, पद्मजा नायडू (सरोजिनी नायडू की पुत्री), ऊषा मेहता, अरुणा आसफ अली आदि प्रमुख थी।
ऊषा मेहता
- ऊषा मेहता ने बंबई में भूमिगत होकर रेडियो की स्थापना की और जब सरकार ने सभी संचार माध्यमों पर रोक लगा दिया, तो उन्होंने भूमिगत रहकर कांग्रेस रेडियो से प्रसारण किया। ऊषा मेहता की आवाज देशभक्ति व स्वतंत्राता की आवाज बन गई थी।
अरुणा आसफ अली
- अरुणा आसफ अली और सुचेता कृपलानी ने अन्य आंदोलनकारियों के साथ भूमिगत होकर आंदोलन को आगे बढ़ाया। हरियाणा के एक रूढिवादी बंगाली परिवार में जन्मी अरुणा आसफ अली एक प्रबल राष्ट्रवादी और आंदोलनकर्मी महिला थी जिन्होंने परिवार और स्त्रीत्व के तमाम बंधनों को तोड़कर खुद को जंग-ए-आजादी को समर्पित कर दिया था। अरुणा आसफ अली के राजनीतिक संघर्ष की शुरुआत 1930 में 'नागरिक अवज्ञा आंदोलन' से हुई, जब उन्हें एक साल के लिए जेल जाना पड़ा था। 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह के दौरान भी अरुणा आसफ अली को अपनी गतिविधियों के कारण जेल जाना पड़ा। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 9 अगस्त, 1942 को अरुणा आसफ अली ने बंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में राष्ट्रीय झंडा फहराकर आंदोलन की अगुवाई की। 1942 में अरुणा आसफ अली की सक्रिय भूमिका के कारण 'दैनिक ट्रिब्यून' ने उन्हें '1942 की रानी झाँसी' नाम दिया। अरुणा आसफ अली ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की मासिक पत्रिका 'इंकलाब का भी संपादन किया। यद्यपि गांधीजी अरुणा आसफ अली के कार्य करने की पद्धति (क्रांतिकारी हिंसक गतिविधियों) से असंतुष्ट थे, लेकिन वह उनकी ईमानदारी, साहस व वीरता की बड़ी प्रशंसा करते थे। अरुणा आसफ अली के योगदान के कारण भारत सरकार ने 1998 में उन्हें 'भारत रत्न' से सम्मानित किया है।
सुचेता कृपलानी
- सुचेता कृपलानी ने भी राष्ट्रीय आंदोलन के हर चरण में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और कई बार जेल गई। 1946 में सुचेता कृपलानी को असेंबली का अध्यक्ष चुना गया। आजादी के बाद सुचेता कृपलानी 1958 से लेकर 1960 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की जनरल सेक्रेटरी रही और 1963 में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री बनी।
पद्मजा नायडू
- पद्मजा नायडू भी अपनी माँ सरोजिनी की तरह राष्ट्रीय हितों के प्रति निष्ठावान् थी। 21 वर्ष की उम्र में पद्मजा नायडू राष्ट्रीय क्षितिज पर उभरी और हैदराबाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की संयुक्त संस्थापिका बन गई। पद्मजा नायडू ने लोगों को खादी का प्रचार करते हुए विदेशी सामान के बहिष्कार करने की प्रेरणा दी। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के कारण पद्मजा नायडू को जेल जाना पड़ा। आजादी के बाद पद्मजा नायडू संसद की सदस्य बनी और बाद में पश्चिम बंगाल की राज्यपाल बनाई गई। लगभग 50 वर्ष के सार्वजनिक जीवन में पद्मजा नायडू रेडक्रास से भी जुड़ी हुई थी।
कस्तूरबा गांधी
- स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान महात्मा गाँधी को उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी ने भी अपना पूरा समर्थन दिया। कस्तूरबा गाँधी एक दृढ़ आत्म-शक्तिवाली महिला थी और गांधीजी की प्रेरणा भी थी। कस्तूरबा गांधी ने न केवल हर कदम पर अपने पति का साथ दिया, बल्कि कई बार स्वतंत्र रूप से और गांधीजी के मना करने के बावजूद जेल जाने और संघर्ष करने का निर्णय लिया। 'भारत छोड़ो आंदोलन' प्रस्ताव पारित होने के बाद जब गांधीजी आगा खाँ पैलेस (पूना) में कैद कर लिये गये, तो कस्तूरबा उनके साथ जेल गई। डा. सुशीला नैयर, जो कि गांधीजी की निजी डाक्टर थी, भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 1942 44 तक उनके साथ जेल में रही। 1942 के अन्दोलन के दौरान ही दिल्ली में 'गर्ल गाइड' की 24 लड़कियां अपनी पोशाक पर विदेशी चिन्ह धारण करने और यूनियन जैक फहराने से इनकार करने के कारण अंग्रेजी हुकूमत द्वारा गिरफ्तार हुई। इसी आंदोलन के दौरान तामलुक की 73 वर्षीय विधवा मातंगिनी हाजरा ने गोली लगने के बावजूद राष्ट्रीय ध्वज को अंत तक ऊँचा उठाये रखा। इस आंदोलन की महत्त्वपूर्ण विशेषता ग्रामीण स्त्रियों की व्यापक सहभागिता थी। 1930 में दांडी में पुरुषों के बाद महिलाओं ने अपनी भूमिका निभाई, किंतु 1942 के आंदोलन में महिलाओं ने पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया.
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