विज्ञापनों के
विकास पर यदि नजर डाले तो हम पाते हैं कि जैसे-जैसे समाज में व्यापारिक व
व्यावसायिक समझ का उद्भव हुआ वैसे-वैसे ही वस्तुओं को बेचने के तरीके भी सामने आने
लगे। एक शोध के अनुसार पहला विज्ञापन अंग्रेजी भाषा में 1473 ई. में छपा। जब
जर्मनी के गुटनर्व ने सचल टाईप का आविष्कार कर लिया था और विलियम काक्स्टन ने
अंग्रेजी में एक हैण्डबिल छापा था जिसमें एक पुस्तक की बिक्री का विज्ञापन छापा
गया था। यह हैण्डबिल आम जनता में वितरित किया गया था। इसके बाद शिक्षित और पढ़े
लिखों के बीच सन्देश देने के लिए छापेखानों द्वारा साप्ताहिक पत्रों की शुरूआत
हुई।
उन दिनों शिक्षित लोगों तक जो सन्देष विज्ञापन के रूप में पहुंचाया जाता था
उसे Mercuries कहते थे। जॉन
राईट ने कहा है - Most early
newspaper advertisement were in the from of announcement मात्र सूचनाएं
होती हैं। इग्लैण्ड में उन दिनों सामान बाहर से आयात किया जाता था- इनकी घोषणाओं
को अगर हम देखे तो हमें पुराने शोधों में लिखा मिलता है :- Prominent among early advertisers
were importers of products new to England. For instance the first offering of
coffee was made in a newspaper Ad. in 1652, followed by an offering of
chocolate in 1657 and of tea in 1658.
इस प्रकार
विज्ञापन के इतिहास के दौर की शुरूआत होती है। सन् 1710 में प्रतियोगी विज्ञापन की शुरूआत होती है। जब
एक औषधी की तुलना में यह विज्ञापित किया जाता है कि यह उत्पाद पहले से प्रचालित
उत्पादों से बेहतर है। अमेरिका में स्वतंत्रता का युद्ध प्रेस के इतिहास में
महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उन्ही दिनों की बात है जब “बोस्टर न्यूज
लेटर” अखबार ने
इण्लैण्ड में छपने वाले विज्ञापनों की तर्ज पर 24 अप्रेल 1704 में पहला विज्ञापन छापा।
भारत में प्रेस विज्ञापन की
प्राचीनता उतनी ही है जितना कि भारत में प्रेस और पत्रकारिता का इतिहास .
भारत में
विज्ञापन का इतिहास -
भारत में विज्ञापन के इतिहास पर यदि दृष्टिपात करें तो हम
पाते हैं कि भारतवर्ष में विज्ञापन मात्र बिक्री और आर्थिक विकास का माध्यम नहीं
है बल्कि सामाजिक परिर्वतन का भी सशक्त उपकरण है। विज्ञापन की शुरूआत भी देश में
प्रकाशित समाचार पत्र बंगाल गजट या हिक्की गजट के साथ 1780 से ही जुड़ी हुई
है। भारत के समाचार पत्रों में छपने वाले विज्ञापन ब्रिटिश अखबारों की नकल और तर्ज
पर थे। ब्रिटिश विज्ञापन उन दिनों पूर्णता को छू रहे थे। तभी तो डॉक्टर सैमुअल
जानसन ने अंग्रेजी विज्ञापनों पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि- विज्ञापन का उद्योग
अब पूर्णतया के इतना निकट है कि इसमें किसी भी प्रकार के सुधार की गुनजाइश नहीं है, परन्तु
विज्ञापनों की दुनिया में निरन्तर परिर्वतन होते रहे और होते रहेंगे। हिक्की के
बंगाल गजट के बाद भारत में छपने वाले उन दिनों के सभी अखबार जिनकी संख्या कम ही थी, लगभग सभी
विज्ञापन छापते थे। भारत में विज्ञापनों प्रारम्भिक चरण- विज्ञापन आदि काल व
मध्यकाल में भी था पर उसका स्तर आज के वर्तमान से भिन्न था। परन्तु विज्ञापन की
मौलिक तकनीकी तब भी वही थी जो आज है- अर्थात सूचना और विचारों को लोगों तक
पहुँचाना जिससे उनमें परिर्वतन आए।
Advertising - To communicate information
and groups of people in order to change of reinforce an attitudesपहले ट्रेडमार्क कारीगर बाद में कम्पनियाँ अपने उत्पादनों पर बनाती थी। इससे एक विशिष्ट कारीगर या
कम्पनी की अपनी साख और पहचान बनती थी इसके दोहरे लाभ थे। उपभोक्ता जो पाना चाहता
था, ट्रेडमार्क देखकर
खरीद लेता था और निश्चिन्त रहता था। दूसरा उत्पादनकर्ता घटिया माल उसके नाम पर न
बेचा जाए-इस बदनामी से बच जाना था। अतः ट्रेडमार्क का चलन हुआ। कुछ कम्पनियां अब
अपने संकेत भी डालने लगी हैं। अपनी पहचान के लिए दुकानों पर बोर्ड और संकेत चिन्ह
का उपयोग किया जाने लगा। यूनान में गली-गली मुनादी कराई जाती थी, भारत के भी और
गांव, कस्बों में आज भी
इसका चलन है- अब लाउडस्पीकरों का भी उपयोग किया जाता है। हमारे शुरूआती विज्ञापन
तो व्यापारिक घोषणाओं और सूचनाओं से भरे होते थे।
कलकत्ता गजट में परचून, में पनीर, जूते, सैट कपड़ों के
विज्ञापन होते थे। वर्गीकृत विज्ञापन बिकाऊ है। किराये पर खोया पाया लाटरी तथा
शराब तथा ब्राण्डी के विज्ञापन भी ढेरों होते थे। जो उन दिनों अंग्रेजी सभ्यता
वाले लोगों के लिए छापे जाते थे। ‘भाग गया विज्ञापन' श्वेतों के उन गुलाम नौकरों के होते थे जो भाग जाते थे, उन्हें पकड़ने के
लिए विज्ञापन दिये जाते थे। ये विज्ञापन इंग्लैण्ड के ब्लेक ब्वाय की तरह के होते
थे। अंग्रेजों की विलायती पत्नियाँ भाग जाती थी उनके विज्ञापन भी रहते थे। 18वीं सदीं में
दवाइयों और चमत्कार के विज्ञापनों से अखबार भरे रहते थे। ऐसे विज्ञापन कुल का पचास
प्रतिशत होते थे।
1822 में मुम्बई
समाचार तथा 1829 के संवाद कौमुदी
(कलकत्ता) में धार्मिक व अन्य पुस्तकों के अलावा दवाइयों के विज्ञापन होते थे।
खोयी हुई वस्तुओं और जायदाद सम्बन्धी विज्ञापन भी देखने को मिले है। बाद में
थियेटरों के विज्ञापन भी भारतीय समाचार पत्रों में छपने लगे थे। गोलियां, मलहम, बाम आदि के
विज्ञापन खूब छपते थे। प्रो. पिल्लै ने विज्ञापनों पर बने पंच नामक कार्टून
पत्रिका के उस कार्टून का उल्लेख किया है, जिसमें कहा गया था- यह सार्वभौमिक मलहम आदमी व मेज दोनों की
ही टांगों को समान रूप से ठीक कर सकता है। हैलोबे की तरह एस के वर्मन की दवाई का
विज्ञापन भी यहां वर्णन योग्य है जिसमें एक ही औषधि से सरदर्द से लेकर पागलपन तक
का रोग दूर करने की क्षमता का दावा किया गया था। बिजली के द्वारा उपचार विधि के
विज्ञापन आज भी सार्वजनिक शौचालयों में दीवारी इश्तिहारी के रूप में देखने को
कभी-कभार मिल जाते हैं। उन दिनों (सन् 1900 के. आसपास) के अखबार बिजली उपचार से भरे रहते थे जिसमें
गारन्टी थी बिजली की धारा की शक्ति से मानव शरीर के समस्त रोग दूर हो सकते है।
लॉकेट और कमर पेटियां खूब बिकती थी। 1902 के बाद भारतीय वस्तुओं और राष्ट्रीय उत्पादन की चीजों के
विज्ञापन भी छपे ।
स्वदेशी माल खरीदने की अपीलों वाले विज्ञापनों
ने नए युग की शुरूआत की। 1906 में धारीवाल का
विज्ञापन भारत के लिए भारत में बनने वाला चर्चित विज्ञापन बना।1920 में आधुनिकता
वाले विज्ञापन, विवाह और विधवा
विवाह तक के विज्ञापन भी छपने लगे थे। जे । बाल्टर थाम्पसन जैसी विदेशी विज्ञापन
कम्पनी ने भी भारत में अपना कार्यालय खोला। साबुन, तेल टूथपेस्ट, फैशन कपड़ों के विज्ञापन में नारी के चित्र
छपने लगे। फोटोग्राफी और टाइपोग्राफी दोनों की ओर ध्यान दिया जाने लगा। कपड़ों के
विज्ञापन 1947 तक खूब छपते थे।
मूल कापी अंग्रेजी में लिखी जाती थी। सामाजिक, मनौवैज्ञानिक विज्ञापन गुणों और तकनीक में बेहतर होते चले
गए। शैली और अन्दाज बदलता गया। पाठकों को विज्ञापन पढ़ने में मजा आने लगा। श्री
पिल्लै लिखते हैं उन दिनों के विज्ञापनों का अभिप्राय बहुत अधिक संख्या में चीजों
को जनता तक पहुंचाना और इसके द्वारा बड़ी मात्रा में उत्पादन को बढ़ावा देना जिससे
इस प्रक्रिया के द्वारा कीमतों में कमी लाई जा सके।
विज्ञापन अखबारों
की आय का सबसे बड़ा स्रोत होते है। प्रथम प्रेस आयोग का मत है कि अगर 40 प्रतिशत
विज्ञापन और 60 प्रतिशत समाचार
विचार फोटो आदि हों तो अखबार की आर्थिक स्थिति ठोस रहती है। अखबार की मजबूत
वित्तीय स्थिति बरकरार रखने में विज्ञापन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। 40:60 का अनुपात अब
उलट गया है। कई अखबारों में 60-70 प्रतिशत विज्ञापन और 30-40 प्रतिशत विचार और समाचार होते हैं।
आजादी के बाद
विकास और जिन्सों के विज्ञापन खूब छपे। अब 1990 के बाद आए आर्थिक उदारीकरण ने भारतीय अखबारों को ही नहीं, रेडियो, टेलीविजन को भी
विज्ञापनों पर निर्भर कर दिया है। सुई से लेकर हवाई जहाज तक के विज्ञापन साइकिल से
लेकर 20-30 लाख की का
विज्ञापन आम बात है- फैशन,
कास्मैटिक के
विज्ञापन ही नहीं, गांव देहात की
कृषि उपकरणों और खाद के विज्ञापन, जीवन के हर हिस्से को प्रभावित करने वाले विज्ञापन हमारे घर
सीधे रेडियो, टी.वी. से आने
लगे है। आज विज्ञापन उद्योग जनसंचार माध्यमों की वित्तीय मजबूती में महत्वपूर्ण
भूमिका निभा रहा है।
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