धार्मिक मामलों की कवरेज कैसे करें| How to cover religious matters
धार्मिक मामलों की कवरेज कैसे करें (How to cover religious matters)
धार्मिक मामलों की कवरेज कैसे करें (How to cover religious matters)
धार्मिक मामलों की कवरेज में निम्न बातों का ख्याल रखें -
1 विविधता का खयाल करें
- हम देश के तौर पर सेकुलर हैं। यह देश तो विविधता की मिसाल है। यानी इस देश की प्रकृति ही विविध है। उस प्रकृति का हमें हर हाल में खयाल रखना है। यहां कोई एक धर्म तो है नहीं। अलग-अलग धर्मों को कैसे हम जगह दें इसका खास खयाल तो रखना ही होगा। फिर किसी धर्म के लिए हमारे खास आग्रह न हों यह भी देखना होगा। कुल मिलाकर हमें पाठकों के लिहाज से सोचना पड़ेगा। अपनी रुचियों या सोच के हिसाब से नहीं।
2 सर्वधर्म समभाव
- हमारा देश दुनियाभर के धर्मों की झलक देता है। यह कहना तो शायद ठीक नहीं होगा कि यहां पर हर किस्म के धर्म को देखा जा सकता है। लेकिन दुनिया के जितने धर्मों को यहां जगह मिली है, उतनी शायद ही किसी देश में हो। हर बड़े धर्म को मानने वाले तो यहां हैं ही। हमारा देश अपनी प्रकृति से ही सेकुलर है। अपने देसी शब्दों में तो यहां पर सर्वधर्म समभाव रहा है। ह को हमें इज्जत देनी है। किसी को आहत नहीं करना है। कोई जिस तरह के धर्म को चाहता है या जिसको तरजीह देता है। उसके विश्वास पर हमें सवाल नहीं खड़े करने हैं। हमें उसके विश्वास का सम्मान करना है। मेरा मानना है कि अगर किसी संप्रदाय के चंद लोग हैं तब भी हमें उनका खयाल रखना है। हम कुछ भी दें लेकिन वह किसीके खिलाफ नहीं होना चाहिए।
- हर अखबार या पत्रिका को अपने पाठकों का खयाल रखना होता है। पाठकों के लिहाज से ही धर्म-अध्यात्म की कवरेज तय होती है। उनकी चाहत का खयाल तो रखना ही पड़ेगा। अब वे जिस तरह के प्रवचन चाहते हैं उन्हें देने चाहिए। वे जिस तरह की रिपोर्टिंग चाहते हैं, वह करनी चाहिए। उन्हें जिस तरह के लेख पसंद हैं, वह देने की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन यह खयाल रखना बेहद जरूरी है कि अलग-अलग धर्मों को जगह मिले। हम किसी एक को बेवजह तरजीह न दें। अगर तरजीह जरूरी भी हो, तो आहत वाली बात को जरूर ध्यान में रखें।
3 विशेषज्ञ की जरूरत
- अखबार में काम करने वाले शख्स के लिए हर विषय का जानकार होना नामुमकिन होता है। हां, एक बुनियादी जानकारी जरूरी होती है। और फिर जहां भी कोई उलझन होती है। उसके लिए विशेषज्ञ होते हैं। रिपोर्टर या फीचर लेखक को हर क्षेत्र के विशेषज्ञों से बात करने की कोशिश करनी चाहिए। जहां भी शंका हो उनसे बात की और ठीक कर लिया। अगर हमारे पास विशेषज्ञों का पूरा अनौपचारिक पैनल है, तो उससे हमें बहुत मदद मिलती है। तेजी से रिपोर्ट लिखते हुए भी खट से बात हो सकती है। लेकिन यह संपर्कों पर निर्भर है। जिस रिपोर्टर के संपर्क जितने बेहतर होते हैं, उतना ही उसके लिए रिपोर्ट लेना आसान होता है। यह तो रिपोर्टिंग के हर मसले पर लागू होता है।
- कुछ सालों पहले की बात है। एक अमेरिकी विद्वान ने सूरदास पर कुछ काम किया। उन पर फीचर करने की बात हुई. धार्मिक बीट पर नया नया काम करने वाले शख्स ने उनसे मिल कर एक फीचर तैयार किया। वह जब उनसे मिल कर आया तो बहुत खुश था। उसे लगा कि कोई बड़ी खबर हो जाएगी। उन अमेरिकी विद्वान का मानना था कि सूरदास के ज्यादातर पद प्रक्षिप्त हैं। उसने रिपोर्ट अपने वरिष्ठ साथी को दिखाई दोनों को ही धर्म या साहित्य की कम ही जानकारी थी। लिखने वाले ने शीर्षक दिया 'सूरदास के ज्यादातर पद प्रक्षिप्त हैं।' अब इस शीर्षक में तो मजा ही नहीं आ रहा था। तब उन वरिष्ठ ने शीर्षक लगाया, 'सूरदास के तमाम पद फर्जी हैं।' अगले दिन यह छप भी गया। उसी दिन अखबार की कॉपी को लिए हुए अमेरिकी शख्स ऑफिस चले आए। वह हत्थे से उखड़े हुए थे। उनका कहना था कि यह तो उन्होंने कहा ही नहीं। ऐसा वह कैसे कह सकते हैं? वह तो ज्यादातर पदों के प्रक्षिप्त होने की बात कह रहे थे। और यहां तो तमाम पद फर्जी हो गए। यानी सूरदास का लिखा हुआ कुछ भी ठीक नहीं है। उनका लिखा हुआ मूल वहां है ही नहीं। खैर, किसी तरह उन्हें समझा कर विदा किया गया। बाद में सफाई छापनी पड़ी।
- दरअसल, इस मामले में दो शब्दों की वजह से बवाल हुआ। एक तो इधर हम ज्यादातर की जगह ‘तमाम’ का इस्तेमाल बेवजह करने लगे हैं। ज्यादातर में कुछ फिर भी बच जाता है। यानी कुछ पद जरूर मौलिक हैं। ज्यादातर भले ही न हों। असली चूक तो प्रक्षिप्त में हुई. प्रक्षिप्त का मतलब होता है पीछे से जोड़ा हुआ या मिलाया हुआ। यानी बाद के दौर में उनमें कुछ-कुछ जोड़ दिया गया। असल में पूरा का पूरा पद गड़बड़ नहीं होता। एक दो शब्द या लाइन इधर-उधर जरूर हो जाती हैं। अगर उस रिपोर्टर ने किसी से प्रक्षिप्त का मतलब जान लिया होता, तो इतनी बड़ी गड़बड़ नहीं होती।
- यों साहित्य समझने वाले इसे जानते हैं। सदियों से चली आ रही रचनाओं में कुछ न कुछ जुड़ ही जाता है। वैसे भी बहुत सारी चीजें वाचिक परंपरा से ही यहां तक पहुंच पाई हैं। वाचिक परंपरा में ऐसा होना अनहोनी नहीं है। लेकिन इसके लिए विषय की कुछ समझ तो चाहिए ही।
4 भावनाओं का खयाल
- एक बार ब्रह्मर्षि नारद पर लेख लिखा। उसमें मैंने उस कथा का जिक्र किया जिसमें नारद ने वाल्मीकि को डाकू से संत बनने का रास्ता दिखाया था। कथा यह है एक बार नारदजी घूमते हुए डाकू रत्नाकर के इलाके में पहुंचे। रत्नाकर ने उन्हें लूटने के लिए रोका। नारदजी बोले, 'भैया मेरे पास तो यह वीणा है, इसे ही रख लो। लेकिन एक बात तो बतलाओ, तुम यह पाप क्यों कर रहे हो?” रत्नाकर ने कहा, 'अपने परिवार के लिए ' तब नारदजी बोले, 'अच्छा, लेकिन लूटने से पहले एक सवाल जरा अपने परिवार वालों से पूछ आओ। यह कि क्या वे भी तुम्हारे पापों में हिस्सेदार हैं।’ रत्नाकर दौड़े-दौड़े घर पहुंचे। जवाब मिला, 'हमारी देखभाल तो आपका कर्तव्य है। लेकिन हम आपके पापों में भागीदार नहीं हैं।' लुटे पिटे रत्नाकर लौट कर नारदजी के पास आए और डाकू रत्नाकर से वाल्मीकि हो गए। वह संत बन गए। बाद में महान रामायण की रचना की। नारद यही सीख देना चाहते थे। मेरा लेख हिंदुस्तान में छपा था। कुछ दिन के बाद एक सज्जन मेरे पास आए। वह वाल्मीकि समाज से थे। खासा उखड़े हुए थे। उन्होंने मुझसे कहा कि आपने वाल्मीकि को डाकू क्यों लिख दिया? वह तो डाकू नहीं थे। मेरा जवाब था कि भई मैंने तो दंत कथा लिखी है। बचपन से यही सुनता आया हूं। लेकिन वह मानने को तैयार ही नहीं थे। उनकी और उनके समाज की भावनाएं आहत हो गई थीं। उस लेख का आशय भी कोई वाल्मीकि को नीचा दिखाना नहीं था। उसमें तो वाल्मीकि को महान ही कहा गया था। लेकिन फिर भी कोई आहत हो गया।
- सो, धार्मिक लेख हो या रिपोर्टिंग उसे लिखते हुए हमें भावनाओं का खयाल रखना चाहिए। हमें कोशिश करनी चाहिए कि किसी भी वर्ग या समाज की भावनाएं आहत न हों। धर्म के पन्ने को देखते हुए हमें कई ऐसे लेख वापस करने पड़े जो अच्छे तो थे। तार्किक भी थे। लेकिन उससे किसी न किसी की भावना आहत हो रही थी। हमें लेख और रिपोर्टिंग में इसका खयाल करना बेहद जरूरी है। दरअसल, किसीभी गुरु या संप्रदाय को अपनी बात कहने का अधिकार तो है। लेकिन किसी को नीचा दिखाने का अधिकार नहीं है। अखबार या पत्रिका में काम करते हुए हम चाह कर किसीकी भावनाएं आहत करने की सोच नहीं सकते। हम किसी की बात से सहमत हों तब भी हमें उस आहत के पहलू को ध्यान में रखना ही होगा।
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