धार्मिक पत्रकारिता के लिए क्या धार्मिक होना जरूरी है
धार्मिक पत्रकारिता के लिए क्या धार्मिक होना जरूरी है ?
किसी भी धार्मिक घटना की रिपोर्टिंग करने के लिए हमारा धार्मिक होना जरूरी नहीं है। हम उसी विश्वास या मत को मानने वाले हों यह तो कतई जरूरी नहीं है। यों भी किसी अखबार पत्रिका या चेनल में धार्मिक आयोजन को कवर करने के लिए एक-दो लोग ही होते हैं। आमतौर पर तो सिर्फ धर्म कवर करने के लिए एक रिपोर्टर आमतौर पर नहीं होता।
हालांकि साल भर कुछ न कुछ धार्मिक गतिविधियां चलती रहती हैं। लेकिन कोई एक खास रिपोर्टर का एक बड़े अखबार में भी होना आसान नहीं है। अक्सर किसी एक रिपोर्टर को यह धर्म का मामला भी थमा दिया जाता है। उसे धर्म के अलावा और भी किस्म की रिपोर्टिंग करनी होती है। अगर हम यह कोशिश करें कि हर धर्म संप्रदाय के लिए अलग-अलग रिपोर्टर हों तो यह लगभग नामुमकिन है। हालांकि यह विचार बुरा नहीं है। लेकिन इतने रिपोर्टर लेकर कहां से आएंगे? इसीलिए एक रिपोर्टर भी तय हो जाए तो बड़ी बात है। हां, इतना ध्यान जरूर रखा जा सकता है कि उसकी ट्रेनिंग कायदे से कराई जाए। ताकि वह धर्म संबंधी संवेदनाओं को समझ सके। यह रिपोर्टिंग बेहद नाजुक काम है। जरा सी गड़बड़ी से किसी भी किस्म का हंगामा हो सकता है।
रिपोर्टर लगातार धर्म पर पढ़े। कोशिश हो कि कुछ बड़े धर्मों की बुनियादी जानकारी उसे हो । अगर वह हर धर्म के बारे में थोड़ा सा पढ़ ले, तो उसे रिपोर्ट करना बहुत आसान हो जाएगा। रिपोर्ट करते हुए वह उस धर्म के विशेषज्ञों से लगातार संपर्क में रहे। बेहतर होता है कि कोई रिपोर्ट करने से पहले उसकी बुनियादी जानकारी हासिल कर ली जाए। मसलन, हमें अगर गुरु नानक जयंती कवर करनी है। तब हमें गुरु नानक के बारे में कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। उसे कवर करने से पहले हम पहले सिख गुरु के बारे में जान लें तो बेहतर होगा। यह जानना भी जरूरी होता है कि आखिर गुरु का यह आयोजन किस दिवस से जुड़ा हुआ है। या मान लीजिए हम सद्गुरु का कोई प्रवचन कवर करने जा रहे हैं, तो हमें उनके बारे में जानकारी होगी तो सचमुच हमें लिखने में आसानी होगी। हमारी रिपोर्ट भी बेहतर होगी। कोई शंका हो तो किसी से सलाह मशविरा करने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए।
एक अलग तरह की रिपोर्टिंग रमजान के दिनों में होती है। उन दिनों इफ्तार पार्टी का जोर रहता है। दिल्ली में तो राजनीतिक इफ्तार पार्टियों का बोलबाला होता है। कुछ अखबार तो उसे खासा कवरेज देते हैं। हालांकि यह कवरेज ईद और रमजान से जुड़ी होती है। लेकिन कुल मिलाकर यह राजनीतिक कवरेज ही है। दरअसल, इफ्तार की अलग राजनीति है। उसमें धर्म ढूंढ़ना आसान काम नहीं है। वहां तो राजनीतिक समीकरण ही हावी होते हैं। यानी किसी नेता के यहां कौन पहुंचा? कौन नहीं पहुंचा? किसी को बुलावा गया? किसको नहीं बुलाया गया? इन सब पहलुओं को ध्यान में रखकर रिपोर्ट तैयार की जा सकती है।
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