कुषाणकालीन सांस्कृतिक अवस्था | Kushan Kalin Culture in Hindi

 कुषाणकालीन सांस्कृतिक अवस्था (Kushan  Kalin Culture in Hindi)

कुषाणकालीन सांस्कृतिक अवस्था (Kushan  Kalin Culture in Hindi)


कुषाणकालीन सांस्कृतिक अवस्था का वर्णन कीजिये ?

कुषाणकाल में कनिष्क प्रथम का योगदान हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण रहा है- 

बौद्ध धर्म का उत्थान- 

  • गोखले के अनुसार, "कनिष्क की प्रसिद्धि उसकी शक्ति तथा रण-कौशल में उसकी योग्यता के कारण उतनी नहीं है जितनी बौद्ध मत को प्रोत्साहन तथा संरक्षण देने के कारण हैं। '' यही कारण है कि बौद्ध-वृत्तान्तों में कनिष्क का उल्लेख बौद्ध-मत के संरक्षक एवं दूसरे अशोक के रूप में दिया गया है। 
  • कनिष्क की मुद्राओं के अग्रभाग पर कनिष्क को सिर पर नुकीली टोपीबदन पर बटनदार लम्बा कोटचूड़ीदार पायजामानुकीले बूट धारण किए हुए तथा यज्ञवेदी में आहुति डालते हुए खड़ी अवस्था में दिखलाया गया हैजबकि पृष्ठभाग पर यूनानीईरानी एवं हिन्दू देवी देवताओं जैसे- हेरेक्लीजसेरापीजसूर्यचन्द्रअग्निबुद्ध आदि की आकृतियाँ अंकित की गई हैं। 
  • इसी प्रकार हुविष्क की मुद्राओं पर शिवविष्णुस्कन्दगणपति आदि के चित्र अंकित हैं जो उन्हें धर्मसहिष्णु शासक के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। कुषाणों के वस्त्र तथा आयुधों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि शक तथा कुषाण एक जैसे ही वस्त्र धारण करते थे तथा एक समान आयुधों का उपयोग करते थे।
  • संयुक्तरत्नपिटक से स्पष्ट होता है कि प्रारम्भ में कनिष्क भी अशोक की भाँति संहारक प्रवृत्ति का शासक था परन्तु बौद्ध धर्म ग्रहण करने के उपरान्त वह पश्चाताप कर अत्यन्त दयालू एवं नम्र बन गया। ऐसा प्रतीत होता है कि मगध पर आक्रमण के समय वह बौद्ध विद्वान अश्वघोष के सम्पर्क में आयाजिसके प्रभाव से उसने बौद्ध धर्म को अपना लिया और अशोक के समान बौद्ध धर्म के प्रचार तथा प्रसार के लिए प्रयास किए।

चतुर्थ बौद्ध संगीति- 

  • बौद्ध धर्म के विवादास्पद सिद्धान्तों का निर्णय करने के उद्देश्य से कनिष्क ने चौथी बौद्ध संगीति का आयोजन किया जो उसके शासनकाल की एक उल्लेखनीय घटना है। इस आयोजन का अध्यक्ष वसुमित्र था एवं इसमें अश्वघोष ने भी हिस्सा लिया था। लगभग 500 बौद्ध विद्वान इस आयोजन में सम्मिलित हुए थे। तारानाथ के अनुसार यह संगीति कश्मीर के कुण्डलवन में आयोजित की गई थी।

महायान का उदय

  • चतुर्थ बौद्ध संगीति का प्रमुख परिणाम बौद्ध धर्म की महायांन शाखा का उदय था। इस समय यह आवश्यक समझा गया कि बौद्ध धर्म के जनसाधारण तथा विदेशों में प्रचार-प्रसार हेतु उसके नियमों तथा सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप प्रदान किया जावे। बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों में नागार्जुन के प्रयत्नों से महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए एवं मूर्ति पूजाधार्मिक क्रियाएँस्वर्ग आदि को स्वीकार किया गया। इस प्रकार बौद्ध धर्म की एक नवीन शाखा का जन्म हुआ जिसे महायान कहा गया एवं मूल बौद्ध धर्म को हीनयान कहा जाने लगा। 
  • रालिन्सन के अनुसार, कनिष्क की कश्मीर में चतुर्थ बौद्ध-संगीतिबौद्ध-धर्म के इतिहास में एक नवीन युग को प्रारम्भ करती है। यह था महायान का उदय जो हीनयान से उतना ही भिन्न है जितना कि मध्यकालीन ईसाई धर्म प्रथम शताब्दी ईसवीं के ईसाइयों के सरल सिद्धान्तों से भिन्न था। 

 कुषाणकालीन निर्माण कार्य - 

  • बौद्ध अनुश्रुतियों में कनिष्क के अनेक निर्माण कार्यों का उल्लेख है। उसने तक्षशिला के सिरकप नामक स्थान पर एक नगर की तथा कश्मीर में कनिष्कपुर नामक एक अन्य नगर की स्थापना की थी। 
  • यही नहीं उसने मथुरापुरुषपुर तथा तक्षशिला आदि नगरों का सौन्दर्यीकरण भी कराया था। उसने अपनी राजधानी पुरुषपुर में 400 फुट ऊँची तथा 13 मंजिलों की एक मीनार बनवाई थी जिसके ऊपर लोहे का एक छत्र स्थापित करवाया था। उसने अनेक स्थानों पर स्तूपों एवं विहारों का निर्माण भी करवाया था। 
  • मध्यप्रदेश के साँची में स्थित स्तूप क्र. का निर्माण भी इसी काल में हुआ।

कुषाणकालीन कला- 

  • कनिष्क के शासनकाल में कला के क्षेत्र में भी प्रगति हुई। हम्फ्री के अनुसार, "कला पर बहुत गम्भीर प्रभाव पड़ाक्योंकि पूजा की भावना ने उन उच्चतर भावों को अभिव्यक्ति प्रदान की जिसमें समस्त महती कला के मूल पाए जाते हैं।" 

  • इस काल में गान्धार एवं मथुरा कला का जन्म हुआ। आमतौर पर पश्चिमोत्तर भारत के गान्धार क्षेत्र में विकसित होने वाली कला को गान्धार कला कहा जाता है। गान्धार क्षेत्र का विस्तार पेशावर जिले एवं उससे जुड़े हुए भू-भाग में था। जनरल कनिंघम ने गान्धार क्षेत्र की सीमाओं को रेखांकित करते हुए वर्णन किया है कि इसके पूर्व में सिन्धु सरिता एवं पश्चिम में लम्पाक और नगरहार के क्षेत्र थे। उत्तर में यह सुवास्तु की पर्वतमाला एवं दक्षिण में कालाबाग की पहाड़ी से घिरा हुआ था। 

  • कुषाणकाल में गांधार के इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म एवं यूनानी मूर्तिकला के समन्वय से एक विशिष्ट कला का जन्म हुआ से जिसे गांधार कला के नाम से जाना जाता है। बुद्ध तथा बोधिसत्वों की प्रथम प्रतिमाएँ गान्धार में यूनानी एवं रोम के कलाकारों के संरक्षण में बनीं। इस कला में स्लेटी पत्थर एवं स्टक्को से प्रतिमाओं का निर्माण हुआ।

  • बुद्ध एवं बोधिसत्व के शरीर को कंडिकाओं युक्त बनाया गया हैचेहरे पर भावशून्यता दिखलाई देती हैउनकी मोटी चीवरऊर्णामूँछेंउष्णीष (जूड़ा युक्त लहरदार केश)प्रभामण्डल आदि यूनानी प्रभाव से मण्डित हैं। इस कला में बुद्ध के जन्ममहाभिनिष्क्रमणतपश्चर्यासंबोधिधर्मचक्र प्रवर्तन तथा महापरिनिर्वाण का शिल्पांकन किया गया है। अभय एवं वरद मुद्रओं में भी उनकी प्रतिमाएँ बनाई गई। 
  • कुछ मूर्तियों पर तिथियाँ अंकित हैं जिससे स्पष्ट होता है कि उनका निर्माण प्रथम शती ईसवी में हुआ था। गान्धार मूर्तियाँ केवल सामने से ही उत्कीर्ण की गई हैं तथा उनका पृष्ठ भाग सपाट है। 
  • गान्धार कला के कलावशेष आधुनिक अफगानिस्तान के जलालाबादहड्डा एवं बमियान सेस्वात घाटी सेतक्षशिला एवं पेशावर तथा उसके आस-पास के क्षेत्र से एवं खोतान से प्राप्त हुए हैं। पेशावर के पूर्वोत्तर में यूसुफजाई क्षेत्र से गान्धार कला की समृद्ध सामग्री प्रकाश में आई है। 
  • गान्धार कला की बुद्ध मूर्तियों में बुद्ध को सीधा तनकर तंग पद्मासन पर बैठे तथा पूरी आँखें खोले दिखाया गया है। जबलपुर के ग्वारीघाट से गान्धार कला की दो बौद्ध प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। 
  • जो दूसरी मूर्तिकला उस समय प्रचलित रही उसे मथुरा कला के नाम से जाना जाता है। इसकी यह विशिष्टता है कि इस शैली के अन्तर्गत प्रतिमाओं को भारतीय परम्परानुसार निर्मित किया गया है जिसमें भावसौम्यता एवं आध्यात्मिकता के दर्शन होते हैं। 
  • मथुरा के कलाकारों ने बुद्ध और बोधिसत्वों की प्रतिमाओं का ही नहीं बल्कि समसामयिक वैष्णवशैवजैन देवी-देवताओं के अतिरिक्त कुषाण वंश के राजाओं की मूर्तियों का निर्माण करके अपनी कला को सार्थक बनाया। उसने अपनी विषय-वस्तु को केवल धार्मिक कथाओं से चुना हो ऐसी बात नहीं है। 
  • समसामयिक सामाजिक जीवन को भी उसने अपने कला अभिप्रायों में उतारा। स्नान करके बाल निचोड़ती हुई युवती तथा पानी की बूंदों को पीते हुए नीचे हंस का अंकन -- इसका एक सुन्दर उदाहरण है।
  • मथुरा कला में नाग तथा यक्ष नामक लोक देवों की अनेक प्रतिमाओं का निर्माण किया गया। मथुरा के मूर्तिकारों ने बोधिसत्व तथा बुद्ध की सर्वतोभद्रिका प्रतिमाओं को आदमकद का बनाया। मथुरा की बौद्ध प्रतिमाओं में मांसलता तथा बलिष्ठता दृष्टिगोचर होती है। कमल आसन के स्थान पर सिंह आसन को प्रमुखता दी गई है। 
  • खड़ी मूर्तियों के पैरों के मध्य सिंह का अंकन है। कुछ मूर्तियों में बुद्ध को सिंहासन पर विराजमान दिखलाया गया है। कुषाण काल की बुद्ध तथा बोधिसत्व प्रतिमाओं को मुण्डित सिर का बनाया गया है। 
  • कुछ मूर्तियों में केशसज्जा घुमावदार गुंजलक के रूप में मिलता है। बायें कंधे को चीवर से ढँका हुआ तथा दाहिने कन्धे को खुले रूप में बनाया गया है। बैठी हुई प्रतिमाओं में दाहिना हाथ कन्धे से थोड़ा ऊपर अभय मुद्रा में उठा हुआ होता है। बायें हाथ की हथेली मूर्ति की जंघा पर अवस्थित होती है। खड़ी हुई मूर्तियों में भी दाहिना हाथ बैठी हुई मूर्ति के समान कन्धे से ऊपर निकला हुआ तथा बायाँ हाथ कमर के नीचे चीवर को छूता हुआ मिलता है। सिर के पीछे प्रभामण्डल प्रदर्शित होता है। 
  • मथुरा के निकट माट से देवकुल प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं। यहाँ से विमकनिष्क तथा चष्टन की भग्न मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं। कुषाण शासकों का देवकुल स्थापना की परम्परा से परिचय सम्भवतः मध्य एशिया में स्थापित हो चुका थाकुषाण सम्राट विम की सिंहासन पर विराजमानशीशविहीन भव्य - प्रतिमा फुट 10 इंच ऊँची है। प्रतिमा में उत्कीर्ण लेख में उसे 'महाराज राजातिराज देवपुत्र कुषाणपुत्र शाहि विम तक्षम' कहा गया है। उसे पैरों में सलवारशरीर पर चोगेनुमा वस्त्र और पैरों में विशिष्ट प्रकार के जूतों सहित अंकित किया गया है। 
  • मथुरा की जैन धर्म से सम्बन्धित कलाकृतियों में आयागपट्टपूजा शिला पटजिन प्रतिमाएँउनके जीवन से सम्बन्धित दृश्य एवं कुछ अन्य मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं।मथुरा के चित्तीदार लाल रंग के चमकदार बलुआ पत्थर का उपयोग आमतौर पर मूर्ति निर्माण में किया गया है। 
  • मध्यप्रदेश के विदिशावाराणसीमथुरापटना आदि से प्राप्त यक्ष-यक्षिणी की प्रतिमाओं को कुछ विद्वान मौर्यकाल से जोड़ते हैं तो कुछ कुषाणकाल से और कुछ शुंगकाल से। इनकी वास्तविक तिथि विवादास्पद है। 

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