रेडियो की अवधारणा |रेडियो लेखन के सिद्धांत |रेडियो लेखन के लिए आचार संहिता | Radio Writing Concept in Hindi

रेडियो की अवधारणा, रेडियो लेखन के सिद्धांत ,रेडियो लेखन के लिए आचार संहिता 

रेडियो की अवधारणा |रेडियो लेखन के सिद्धांत |रेडियो लेखन के लिए आचार संहिता | Radio Writing Concept in Hindi


रेडियो की अवधारणा (Concept of Radio)

 

➽ आइए यह जाने कि रेडियो क्या है? रेडियो एक दृश्यहीन माध्यम है। वह केवल श्रव्य है यानि अंधों की दुनिया है लेकिन सर्वाधिक सुलभ साधन है। संचार के जितने भी इलेक्ट्रॉनिक संचार-माध्यम हैं, उनमें रेडियो का प्रभाव विशिष्ट महत्त्व रखता है। इसमें अदृश्य विद्युत चुंबकीय तरंगों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर संदेश भेजा जाता है। इसीलिए इसमें ध्वनियों का महत्त्व है जो श्रोता को ध्वनियों के सहारे ही पूरे दृश्य को साकार कर देती हैं। 

➽ इसलिए आवश्यक है कि ये ध्वनियां आकर्षक हों हालांकि ध्वनि की क्षणभंगुरता इसकी एक सीमा भी है। जिस आवाज को हम सुनते हैं वह थोड़ी ही देर में कानों में गूंजकर गायब हो जाती है। संचार के अन्य माध्यमों की तरह सूचना, शिक्षा और मनोरंजन इसके प्रमुख उद्देश्य हैं। वर्तमान में मोबाइल में रेडियो का प्रवेश हो चुका है और अब जनसाधारण तक और दूरदराज के प्रदेशों तक उसका प्रवेश सहज और सुगम हो गया है। जवरीमल्ल पारख के अनुसार 'रेडियो निरक्षरों के लिए भी एक वरदान है जिसके द्वारा वे सुनकर सिर्फ सुनकर अधिक-से-अधिक सूचना, ज्ञान और मनोरंजन हासिल कर लेते हैं। रेडियो और ट्रांजिस्टर की कीमत भी बहुत अधिक नहीं होती। इस कारण वह सामान्य जनता के लिए भी कमोबेश सुलभ है। यही कारण है कि टी०वी० के व्यापक प्रसार के बावजूद तीसरी दुनिया के देशों में रेडियो का अपना महत्त्व आज भी कायम है।' (जवरीमल्ल पारख, जनसंचार माध्यमों का सामाजिक चरित्र, पृ०-29) लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि केवल निरक्षर ही रेडियो सुनते हैं, साक्षर भी रेडियो का लाभ लेते हैं। यह बात और है कि नेत्रहीनों के लिए यह एक वरदान से कम नहीं है। 

➽ रेडियो का प्रसारण नियमितता लिए होता है। उसकी निश्चित समय पर घोषणा की जाती है ताकि श्रोता उसे समय पर सुन सके और लाभ ले सके। उस पर लगातार ध्वनि (आवाज) के माध्यम से कार्यक्रम प्रसारित होते रहते हैं और यही निरंतरता उसे वर्तमान और समसामयिकता के निकट ले आती है। श्रोता को यह प्रतीत होता है कि वह जो सुन रहा है, वह सीधा प्रसारण है। यह बात और है कि अधिकांश कार्यक्रम रिकार्डिड होते हैं। रेडियो में श्रोता अपनी कल्पना शक्ति पर आधृत रहता है और उसके बल पर ही उद्घोषकों को पहचानता है और उसका उनसे आत्मीय संबंध बनता है। इसी के बल पर वह दृश्य, व्यक्ति, उसकी रूपाकृति, वेशभूषा आदि का अनुमान लगाता है। इसे कभी भी, कहीं भी और किसी भी अवस्था में सुना जा सकता है। यह लचीलापन उसे अन्य संचार माध्यमों से विशिष्ट बनाता है। इसका मूल कारणयह है कि इसमें देखने की बजाय सुनना पड़ता है और श्रोता पूरी तरह उस आवाज के प्रति एकाग्र हो सकता है।

 

➽ रेडियो की एक अन्य खूबी है उसकी तात्कालिकता। इसके कारण समाचार और सूचनाओं का कम-से-कम समय में तत्काल प्रसारण संभव हो पाता है। कभी-कभी कार्यक्रम रोककर विशिष्ट सूचना प्रदान की जाती है।


रेडियो लेखन के सिद्धांत  Principles of radio writing 

अब तक आप रेडियों के बारे में जान चुके होंगे। जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि रेडियो में ध्वनियाँ ही श्रोता तक संदेश पहुँचाती है। अतः रेडियो द्वारा निर्मित ध्वनि-संसार को तैयार करने के लिए विशेष कौशल अपेक्षित होता है। मधुकर गंगाधर के शब्दों में रेडियो के लिए लिखना मात्र व्याकरण-नियंत्रित वाक्यों की रचना नहीं है। उसका अपना व्यक्तित्व होता है। इस दृष्टि से रेडियो लेखन के मूलभूत सिद्धांत निम्नलिखित हैं-

 

1 आलेख की अनिवार्यता 

➽ रेडियो के अधिकांश प्रसारणों के लिए आलेख की अनिवार्यता रहती है। मूलतः रेडियो के संपूर्णप्रसारणको तीन खंडों में बाँटा जा सकता है -(क) वार्ता, (ख) नाटक, रूपक आदि और (ग) संगीत, संगीत रूपक आदि।

 

➽ रेडियो में नाटक, रूपक, संगीत-रूपक आदि को प्रसारित करने के लिए आलेख की आवश्यकता पड़ती है। नाटकीय पद्धति के प्रयोग के कारणआलेख-निर्माणहोता है तभी विषय और प्रसंग की प्रस्तुति संभव हो पाती है और तभी संवाद संभव हो पाते हैं। आलेख की आवश्यकता संगीत में भी पड़ती है क्योंकि वहां शब्द आधार है, शब्द के बिना स्वर और साज का कोई महत्त्व नहीं होता। वार्ता में आलेख की अनिवार्यता को लेकर दो विचार केंद्र में है। एक यह कि वार्ता में आलेख होना चाहिए और दूसरा यह कि आलेख का होना आवश्यक नहीं है लेकिन एक अच्छी और सफल वार्ता के लिए आलेख की उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता। परिचर्चा में आलेख के स्थान पर नोट्स का प्रयोग किया जाता है जो मार्गदर्शक का कार्य करता है। यही नहीं, रेडियो पर उद्घोषणाएँ तक लिखित रहती हैं। इससे प्रसारणश्रेष्ठ और त्रुटिहीन बनता है लेकिन यहाँ इस बात का भी स्मरणरखना होगा कि आलेख रेडियो प्रसारणहेतु आधार मात्र है, सब कुछ नहीं है।

 

रेडियो के आलेख की विशेषताएं 

 रेडियो के लिए आलेख तैयार करते समय निम्नलिखित विशेषताओं का समावेश करना उचित रहता है। 

  रेडियो के आलेख में विषय को भली-भाँति समझने के बाद योजनाबद्ध रूप से बातों को लिखा जाए। उसमें तथ्यों की प्रस्तुति उनके महत्त्व के आधार पर हो । तथ्यों की प्रस्तुति में तारतम्य भी बनाए रखना चाहिए तभी श्रोता विषय के साथ अपना जुड़ाव अनुभव करता है। तारतम्य हटने से श्रोता स्वप्नभंग की स्थिति में आ जाता है और वह श्रवण-विमुख हो जाता है।' (मधुकर गंगाधररेडियो लेखन, पृ० 65 ) 

  आलेख-लेखन के दौरान समय का ध्यान रखना भी आवश्यक है। मधुकर गंगाधर के शब्दों में कोई भी आलेख एक खास समय के लिए ही तैयार किया जाता है, इसलिए निर्धारित समय के भीतर हम अपनी बातों को पूर्णता के साथ तथा कारगर ढंग से कह सकें, यह आवश्यक है और आलेख की आवश्यकता है।' (रेडियो लेखन, पृ० 64 ) इस समयबद्धता से संक्षिप्तता आती है जिसकी चर्चा आगे की गई है। आलेख की प्रस्तुति एकरूप न हो बल्कि उसमें उतार-चढ़ाव और चरमसीमा की स्थिति भी हो। ऐसी स्थिति श्रोता को एक मानसिक यात्रा का आनंद देती है। यथावसर हास्य-व्यंग्य, प्रत्युत्पन्नमतित्व को पुट और बिंबधर्मिता आलेख को आकर्षक बना देती है।

 

  कभी-कभी आलेख में शब्दों की पुनरावृत्तियां सार्थक लगती है लेकिन इससे प्रसारणअनाकर्षक होने का भय रहता है। इसी प्रकार निरर्थक शब्द आलेख के लिए उपयोगी नहीं होते। ध्वनि-साम्य शब्दों के प्रयोग से भी दूर रहना श्रेयस्कर है। मधुकर गंगाधर के शब्दों में 'अगर हम निरर्थक शब्दों का मोह करते हैं तो अपने आलेख की जिंदगी के साथ खिलवाड़ करते हैं.....श्रेष्ठ आलेख काफी मंजा हुआ हो। यह वस्तुतः शब्द-महल है जिसमें खिड़की-दरवाजे तो जरूर हों, जिससे घुटन नहीं हो और छत एवं दीवार का परदा ज़रूरी है जिससे मौसम की मार से बचा जा सके।' (रेडियो लेखन, पृ० 65, 66)

 

2  रेडियो आलेख के लिए शब्द 

  रेडियो आलेख के लिए जिन शब्दों का चयन किया जाए वे ऐसे प्रतीत हों मानो उन्हें बोला जा रहा है। किसी से बात की जा रही है। रेडियो की बोलचाल की भाषा में उपर्युक्त, उक्त, निम्नलिखित, निम्नांकित, अर्थात् जैसे लिखित शब्द व्यर्थ सिद्ध होते हैं। वास्तव में 'रेडियो प्रसारणशब्दों का भागता हुआ तूफान है जो एक ही दिशा में जाता है और निरंतर जाता है। इसके पाँव उल्टे नहीं चलते और न रूकते ही हैं। इसलिए भागते हुए शब्दों से जितना कुछ आप श्रोताओं को कह सकें, वही आपकी उपलब्धि है और आदर्श रूप में हम चाहते हैं कि हमारा एक भी शब्द, एक भी भाव निर्रथक नहीं जाए । ' (मधुकर गंगाधर, रेडियो लेखन, पृ० 76) वक्ता को उतार-चढ़ाव या सुर, ताल, स्वर में विविधता भी लानी चाहिए।

 

 रेडियो  में ध्वनि प्रभाव 

  रेडियो ध्वनियों का संसार है। इसीलिए यह रेडियो में विशिष्ट महत्त्व रखता है। इन्हीं ध्वनियाँ के माध्यम से श्रोता के मानस पर दृश्य निर्माणहोता है। उदाहरणके लिए घोड़ों की टापों की ध्वनियां युद्ध-क्षेत्र का चित्र श्रोता के सामने लाता है तो पक्षियों की चहक उगती भोर का दृश्य मानस पटल पर साकार करती है। उल्लू की चीखों, उसकी आवाजों से भयानक अंधेरी रातों का दृश्य अनुभूत हो सकता है और बारिश की बूंदों की ध्वनि यह बताती है कि मौसम खुशनुमा है। वास्तव में मुद्रित माध्यम में जिन दृश्यों को प्रस्तुत करने में अनेक वाक्यों और शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है उन्हें रेडियो पर कुछ ध्वनियों के रिकार्डों की सहायता से बड़ी आसानी से प्रस्तुत किया जा सकता है और वह भी प्रभावी रूप में। श्रोता के मानस पर ध्वनियों के द्वारा चित्र निर्माणकरने के लिए फेड-आउट (तेज से धीरे-धीरे मद्धिम ध्वनि) तथा फेड-इन (मद्धिम ध्वनि से धीरे-धीरे तेज ध्वनि) का प्रयोग रेडियो में किया जाता हैं। वास्तव में ये उपकर।' समय की कमी अथवा दृश्य-परिवर्तन को सूचित करने में भी उपयोगी होते हैं। 

इन ध्वनि प्रभावों को निम्नवत देखा जा सकता है-

 

क. क्रिया ध्वनियाँ -

  • इन ध्वनियों से किसी क्रिया का आभास होता है। इस प्रकार की ध्वनियों में दरवाजे की दस्तकें, ज़ोर से चीजें पटकने, लाठी की ठक-ठक आदि को लिया जा सकता है। इन ध्वनियों से क्रिया के साथ-साथ पात्रगत मनोभाव भी श्रोता के सामने आता है। जैसे चीजों को ज़ोर से पटकना यह दृश्य उभारता है कि व्यक्ति क्रोध में है। बर्तन पटकने की आवाज़ों का होना बताता है कि वातावरणमें तनाव है। घर में कलह का माहौल है।

 

ख. स्थल ध्वनियाँ

  •  ये वे ध्वनियां होती है जो या तो किसी स्थल का बोध कराती हैं या - किसी विशेष वातावरणकी अनुभूति कराती हैं। उदाहरणार्थ, चाय गरम चाय गरम की आवाजें, कुली - कुली की पुकारें, गाड़ियों के आने की उद्घोषणाएँ आदि ध्वनियों से किसी भी रेलवे प्लेटफार्म की गहमा-गहमी का दृश्य श्रोता के सामने उभरकर आ जाता है। इस प्रकार की ध्वनियों का प्रयोग बैकग्राउंड सैटिंग की भांति होता है।

 ग. प्रतीक ध्वनियां 

  • इस प्रकार की ध्वनियों का प्रयोग नाटकीय स्थितियों के सृजन के लिए किया जाता है। उदाहरणार्थ हास्य नाटिकाओं के बीच ठहाकों, युद्ध-स्थल पर विस्फोटात्मक ध्वनियों तथा रोमांटिक दृश्यों में झरनों की ध्वनियों और पक्षियों की चहचहाहटों का प्रयोग न केवल रेडियो आलेख को प्रभावशाली, सशक्त और संप्रेषणीय बनाता है बल्कि श्रोता के अनुभूत संसार को विस्तार भी देता है।


ध्वनि-प्रभावों का प्रयोग रेडियो में दृश्य की वास्तविकता अथवा प्रामाणिकता को बढ़ाने, वातावरण को उभारने और दृश्यगत स्थिति को स्पष्ट करने के लिए होता है लेकिन यहां यह भी ध्यान रखना श्रेयस्कर होगा कि ध्वनि प्रभावों का प्रयोग न तो अनावश्यक हो और न ही अस्पष्ट आलेख में यह स्पष्ट होना चाहिए की यह 'टेलीफोन की घंटी की आवाज' है या 'मोबाइल की कॉल की आवाज | ध्वनि प्रभाव संवाद के सहवर्ती होना चाहिए तभी ध्वनि प्रभावों की उपयोगिता और सार्थकता सिद्ध होगी। संवाद में यह स्पष्ट उल्लेख हो कि ध्वनि प्रभाव झरने के पानी को इंगित करता है या किसी पाइप से तेज धार से निकलने वाले पानी को इंगित करता है।

 

4 संगीत 

  • रेडियो के कार्यक्रमों में ध्वनि के साथ-साथ संगीत का भी योगदान रहता है। रेडियो आलेखों में संगीत का संयोग नाटकीयता को उभारता है, वातावरणकी प्रस्तुति करता है, पात्रों की मनः स्थिति को उनके भावों को उजागर करता है और आलेख को गतिशील बनाने में सहायक सिद्ध होता है। इस प्रकार रेडियो कार्यक्रमों में संगीत विविध भूमिका निभाता है। संगीत के कारणही किसी कार्यक्रम की अन्य कार्यक्रम से भिन्नता स्थापित हो पाती है और श्रोता कार्यक्रम को पहचान पाता है। रेडियो आलेखकार के लिए अनेक प्रकार का संगीत उपलब्ध होता है। यह संगीत मंद भी हो सकता है और तीव्र भी, हर्ष की सूचना देने वाला भी हो सकता है और विषाद की सृष्टि करने वाला भी, दृश्य के परिवर्तन की सूचना देने वाला भी हो सकता है और आरंभ व समापन को द्योतित करने वाला भी। इसलिए आलेखकार को यथावश्यक और यथावसर अपनी पटकथा की रचना करते समय संगीत के उपयोग संबंधी निर्देशों को देना उचित रहता है। 

5 भाषा 

  • रेडियो के आलेख की भाषा का संबंध किताबी भाषा से कम होता है। रेडियो पर ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए जिनके शब्दों का अर्थ समझने में उसे कठिनाई हो या उसे शब्दकोश देखने को विवश होना पड़े। ऐसी भाषा का प्रयोग श्रोता को उलझन में डाल देता है। इसीलिए रेडियो आलेख में ऐसी भाषा का प्रयोग किया जाता है जो न केवल रोचक हो बल्कि सहज बोलचाल की भाषा हो। 
  • रेडियो में भाषा का काम चित्र निर्मित करना होता है। उस भाषा में दृश्य उत्पन्न करने और श्रोता की कल्पना-शक्ति को जाग्रत करने की क्षमता होनी चाहिए। किताबी भाषा में आंकड़ों का महत्त्व होता है लेकिन ये आंकड़े रेडियो की भाषा में दिए जाने पर श्रोता को अरुचिकर लगते हैं और उसके लिए उलझन पैदा करते हैं। अतः रेडियो की भाषा में आंकड़ों को इस प्रकार दिया जाना चाहिए। जैसे

 

सन् 1990 में सोने का भाव 3200 रुपए प्रति 10 ग्राम था जो 2012 में बढकर 32000 प्रति 10 ग्राम हो गया।' 

रेडियो की भाषा में इसे इस प्रकार प्रस्तुत करना उचित होगा कि '1990 में सोना 3200 रुपए प्रति दस ग्राम था। वहीं लगभग अगले बीस वर्षों में इसका दाम दस गुना बढ़ गया।'

 

  • रेडियो की भाषा में उदाहरणार्थ, उक्त, क्रमशः, निम्नलिखित, निम्नांकित, अर्थात् जैसे शब्दों की कोई उपयोगिता नहीं है। ऐसे शब्दों का प्रयोग मुद्रित माध्यम में उपयोगी सिद्ध होता है। साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाए जो प्रचलित हो, सामान्य जीवन में व्यवहार में लाए जाते हों। इसीलिए रेडियो में अन्योन्याश्रित, अंततोगत्वा, द्रष्टव्य आदि शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता। चूंकि रेडियो एक ध्वनि माध्यम है। इसलिए ध्वनियां श्रोता को बहुत देर तक अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकतीं। इस दृष्टि से यह आवश्यक है कि ऐसे वाक्यों का  प्रयोग किया जाए जो न केवल छोटे-छोटे हों, बल्कि सरल और सारगर्भित भी हो। यहां एक ही बात को पुनः दोहराना संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में लंबे वाक्य रेडियो की भाषा में उचित नहीं लगते प्रत्येक वाक्य में एक ही विचार या संदेश हो तो श्रोता के लिए संदेश ग्रहणकरना आसान होता है। वास्तव में भारी-भरकम शब्दावली, व्यर्थ का आडंबर और उलझे हुए वाक्य रेडियो लेखन के लिए शत्रु हैं।' (डॉ. हरिमोहन, रेडियो और दूरदर्शन पत्रकारिता, पृ०-83)

 

  • किसी साहित्यिक कृति पर आधारित कार्यक्रम की भाषा तदनुरूप होती है। यह सामान्य श्रोता के लिए थोड़ी कठिन हो सकती है लेकिन रचना के साथ न्याय करने के लिए साहित्यिक-काव्यमय शब्दों का प्रयोग आवश्यक है। यहां उदाहरणार्थ डॉ. रवि शर्मा 'मधुप' द्वारा रामधारी सिंह 'दिनकर' की रचना 'उर्वशी' के किए गए रेडियो नाट्य रूपांतर का एक अंश प्रस्तुत है-

 

(गंधमादन पर्वत पर पुरूरवा और उर्वशी)

 

पुरूरवा: उर्वशी, यह गंधमादन पर्वत कितना सुरम्य है? जब से हम-तुम मिले हैं, न जाने कितनी बार रात्रि शृंगार कर आकाश में घूम चुकी है? 

उर्वशी: हां मेरे पुरू! जब से हम-तुम मिले हैं, समय को जैसे पंख लग गए है एक वह समय था, जब मैं तुम्हें देखने के बाद वापिस देवलोक लौटी थी, तो न सूरज डूबने का नाम लेता था और न काल-रात्रि बीतती थी। मैं तड़पती रही, मगर तुम कभी मेरी सुधि लेने नहीं आए और महलों के सुख भोगते रहे। मिले भी तब, जब मैं अपनी मर्यादा छोड़कर स्वर्ग से स्वयं ही भूमि पर चली आई। 

पुरूरवा: इस कृपा के लिए तो मैं सदा तुम्हारा कृतज्ञ हूं। किंतु मिलन का इसके अतिरिक्त दूसरा उपाय ही क्या था? कई बार इच्छा हुई कि देवराज इंद्र से जाकर कहूं कि अब उर्वशी के बिना जीवन भार हो रहा है, आप उसे कृपया धरती पर जाने दें। लेकिन मन ने रोका 'क्षत्रिय भी भला कभी भीख मांगते हैं? और प्रेम क्या भीख मांगने से मिलता है?” इसीलिए मैं महल में भी असहाय तड़पता रहा। विश्वास था तो इतना, कि एक न एक दिन मेरी वियोगाग्नि देवलोक में पहुँचकर, तुम्हारे मन को दग्ध कर देगी और तुम स्वयं ही भूतल पर चली आओगी। 

उपर्युक्त उद्धरणमें पर्वत, सुरम्य, शृंगार, कृतज्ञ, वियोगाग्नि, दग्ध, भूतल जैसे शब्द द्रष्टव्य हैं जो रेडियो के अन्य कार्यक्रमों के लिए उपयुक्त नहीं माने जा सकते लेकिन रचना के साथ न्याय करने की दृष्टि से इनकी उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता।

 

.6 रेडियो में रोचकता 

  • रेडियो आलेख आकर्षक और रोचकता को उत्पन्न करने वाला होना चाहिए। ऐसा इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि रेडियो का श्रोता न तो किसी बात को दूसरी बार पूछ सकता है और न ही दूसरी बार सुन सकता है। अतः उसका आरंभ पूरी तरह जिज्ञासा बढ़ाने वाला होना चाहिए जिससे श्रोता सुनते ही कार्यक्रम की ओर खिंचा चला आए और पूरा सुनकर छोड़े। प्रायः रेडियो कार्यक्रमों का प्रारंभ संगीत, ध्वनि प्रभाव आदि से होता है, वर्णन या नैरेशन से प्रारंभ करने से वह आकर्षण नहीं रहता जो होना चाहिए। हालांकि वार्ता में वर्णन होता है लेकिन श्रोताओं से संवाद करता हुआ।

 

  • प्रारंभ को आकर्षक बनाने के लिए बिना किसी भूमिका के एकाएक बीच से बात शुरू की जानी चाहिए और जहां भूमिका आवश्यक हो वहां पर भी उसे प्रभावशाली ध्वनि प्रभावों की पृष्ठभूमि पर प्रस्तुत किया जाना चाहिए।

 

यहां वार्ता के प्रारंभ का एक उदाहरण द्रष्टव्य है

 

"मनुष्य ने चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में जो प्रगति की है उसके परिणामस्वरूप दुनिया से अनेक बीमारियों का सफाया हो चुका है। चेचक और प्लेग जैसी महामारियों का प्रकोप अब खाई नहीं देता। कई अन्य बीमारियों के रोकथाम में भी अच्छी मदद मिली है लेकिन इसके साथ ही कई ऐसी बीमारियाँ सामने आई हैं जो और भी खतरनाक तरीके से सर उठाने लगी हैं। इन बीमारियों में टी० बी० या क्षयरोग प्रमुख है। एक जमाने में क्षयरोग को सबसे लाइलाज बीमारियों में गिना जाता था। आज यह लाइलाज तो नहीं है लेकिन यह मौत का बहुत बड़ा कारण है।'

 

इस उदाहरण के प्रारंभिक वाक्यों से ही श्रोता खिंचने लगता है कि कौन-सी नई बीमारियां हैं जो खतरनाक है और फिर पूरी वार्ता सुनने को तत्पर हो जाता है।

 

7 संक्षिप्तता 

  • रेडियो में समय-सीमा का विशेष महत्त्व है। रेडियो प्रसारण समय बद्ध प्रसारण है। यह एक निश्चित समय के भीतर संपन्न किया जाता है। इसलिए सामासिकता रेडियो आलेखकार की विशेषता होती है और होनी भी चाहिए। उसे चाहिए कि वह कार्यक्रम के आलेख को इस प्रकार संतुलित और प्रभावपूर्ण बनाए कि श्रोता थोड़े समय में ही सब कुछ जान ले क्योंकि लंबे समय तक श्रोता द्वारा एक ही कार्यक्रम सुनना मुमकिन नहीं है और वह बैंड बदलकर अन्य कार्यक्रम सुनने का इच्छुक भी हो सकता है। रेडियो के लिए आलेख बनाते समय यह ध्यान में रखना होगा कि पाँच मिनट की वार्ता में सारी जानकारी को विस्तारपूर्वक नहीं दिया जा सकता। इसलिए यहां पटकथाकार की कुशलता इस बात में होगी कि वह अतिरोचक मुद्दों का चयन करे और उन्हें निश्चित समय की सीमा में प्रस्तुत कर दे। इसी प्रकार रेडियो नाटकों में भी न तो अनावश्यक पात्र लिए जा सकते हैं और न फालतू लच्छेदार संवादों की योजना की जा सकती है। रेडियो आलेख को पुनरावृत्तियां कमजोर बनाती हैं। इससे आलेखकार को बचना चाहिए।

 

8 नवीनता 

  • नवीनता मनुष्य को अच्छी लगती है। चाहे कोई नवीन सूचना या कोई नवीन विषय। यही नवीनता बनाए रखना रेडियो पटकथा के लिए आवश्यक है। जब रेडियो पर विषय-विविधता और रोचकता लिए हुए नवीनतम जानकारी प्रस्तुत की जाती है तो श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाता और उसकी रुचि कार्यक्रम में होने लगती है। पुराने विषय या घिसी-पिटी बासी चीजें श्रोताओं को प्रायः आकर्षित नहीं करती और न ही वे इसे रोचक पाते हैं। चाहे कोई भी कार्यक्रम (नाटक, फीचर, गीत आदि) हो, नवीनता का समावेश उसमें अवश्य रहना चाहिए।

 

9 श्रोता समुदाय की जानकारी

 

  • कोई भी लेखन हो या प्रसारण, वह श्रोता वर्ग को ध्यान में रखकर किया जाता है। यह तथ्य मुद्रित माध्यम पर भी लागू होती है और इलेक्ट्रॉनिक माध्यम पर भी। समाचारपत्रों में भी पाठकवर्ग की रुचि को केंद्र में रखा जाता है और सामग्री प्रकाशित की जाती है। उसी प्रकार रेडियो के लिए लेखन करते समय और उसका प्रसारणकरते समय श्रोता- समुदाय का ज्ञान आलेखकार और रेडियो केंद्र को होना चाहिए। आलेखकार को यह भली-भांति पता होना चाहिए कि वह किस श्रोता वर्ग के लिए लेखन कर रहा है या किस श्रोता वर्ग को वह अपना संदेश प्रेषित करना चाहता है? वह श्रोता वर्ग बाल है, प्रौढ़ों का समूह है, महिलाएं हैं या वृद्ध जन आदि हैं। उसे यह भली-भांति पता होना चाहिए कि बच्चों के लिए लिखा जाने वाले आलेख का स्वरूप अलग होगा, किशोरों के लिए लिखा जाने वाला आलेख का स्वरूप अलग। इसी प्रकार महिलाओं हेतु प्रस्तुत सामग्री भिन्न प्रकार से लिखी जाएगी और कृषि और ग्रामीणकार्यक्रम हेतु सामग्री का लेखन भिन्न प्रकार से होगा। कृषिप्रधान कार्यक्रमों में वैज्ञानिक जानकारी के गंभीर होने के बावजूद उसे सरल, सहज बोलचाल की भाषा में प्रस्तुत करना चाहिए अन्यथा वह श्रोताओं के लिए व्यर्थ ही सिद्ध होगी। साहित्यिक कार्यक्रमों के आलेख का स्वरूप बिल्कुल भिन्न होगा। वहां गंभीर और थोड़े कठिन शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है। 

  • यह ठीक है कि रेडियो कार्यक्रम का आलेख तैयार करते समय केंद्र में श्रोता रहना चाहिए। यह श्रोता वह भी हो सकता है जिसके लिए आप लिख रहे हैं और वह भी हो सकता है जो अन्य कार्यक्रमों को सुनता हो । आलेखकार का यह उद्देश्य होना चाहिए कि वह इस श्रोता को खींचे, उसे आकर्षित करे। इस दृष्टि से विषय को रोचक और चुंबकीय ढंग से सामने रखा जाए ताकि किसी भी वर्ग का श्रोता आलेखकार के साथ हो जाए।

 

10 विविध विधाओं की जानकारी 

  • रेडियो लेखन करने वाले व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि उसे रेडियो की विभिन्न विधाओं रेडियो नाटक, रेडियो फीचर, रेडियो वार्ता आदि की जानकारी हो । रेडियो पर प्रस्तुत होने वाले विविध कार्यक्रमों साक्षात्कार, आलेख-रूपक आदि के कुछ ढंग होते हैं, कुछ अपेक्षाएं होती है जिनका ध्यान रेडियो लेखक को रखना उचित रहता है। उसे अपना आलेख विधागत विशेषताओं को ध्यान में रखकर निर्मित करना पड़ता है। 

11 मौन या निःशब्दता 

  • मौन या निःशब्दता की भी रेडियो के प्रसारणमें उल्लेखनीय भूमिका है। हालांकि रेडियो में लगातार प्रसारणहोता है और उसमें थोड़ा-सा मौन भी घातक हो सकता है लेकिन नाटक आदि पात्र मनोभाव और वातावरण आदि को प्रभावशाली बनाने के लिए लेखन के दौरान क्षणिक मौन का भी संकेत करना पड़ता है जैसे संगीत, ध्वनि प्रभाव आदि का किया जाता है। डॉ. हरिमोहन के शब्दों में 'मौन शब्दों पर ज़ोर दे सकता है और श्रोता को इतना समय दे सकता है कि वह उन्हें ध्यान से सुनकर समझ सके और अपनी कल्पना शक्ति से उन्हें आत्मसात कर सके। से लगातार एक ही तरह की ध्वनियों का प्रवाह नीरसता की सृष्टि करता है। मौन लय पैदा करने और समग्र ध्वनि-संरचना को संतुलित करने में सहायक होता है।' (डॉ. हरिमोहन, रेडियो और दूरदर्शन पत्रकारिता, पृ० 82-83) डॉ. पुष्पा बंसल के अनुसार 'दो संवादों के मध्य आया हुआ मौन भी वास्तव में एक संवाद की झंकार तथा दूसरे संवाद की प्रसव-अवधि होता है। मौन अपने-आप में एक प्रकार की भाषा ही होती है जिसे दर्शक न सुनता हुआ भी सुनता है और ग्रहणकरता है।’ (डॉ. पुष्पा बंसल, हिंदी गद्य का विधा-वैविध्य, पृ०-91) 

 

रेडियो लेखन के लिए आचार संहिता - 

रेडियो लेखन के लिए एक आचार संहिता भी बनाई गई है जिसका पालन हर आलेखकार को अवश्य करना चाहिए। यह इस प्रकार है 

1. किसी भी मित्र देश की आलोचना न की जाए। 

2. किसी धर्म व संप्रदाय पर आक्षेप न किया जाए। 

3. कोई अश्लील व मानहानि योग्य तथ्य न सुनाया जाए। 

4. हिंसा को प्रोत्साहित करने वाले या कानून और व्यवस्था के विरुद्ध तथ्यों की प्रस्तुति न की जाए। 

5. न्यायालय की अवमानना करने वाले तथ्यों की प्रस्तुति न की जाए। 

6. राष्ट्रपति, सरकार या न्यायालय की मर्यादा के प्रतिकूल कोई भी तथ्य, शब्द या वाक्य न हो। 

7. किसी राज्य, राजनैतिक दल अथवा केंद्र की आलोचना नहीं होनी चाहिए। 

8. संविधान के विरुद्ध कुछ भी न कहा जाए।

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