धार्मिक पत्रकारिता :|धार्मिक मामले : कवरेज की जरूरत| Religious journalism Details in Hindi
धार्मिक पत्रकारिता :धार्मिक मामले : कवरेज की जरूरत
(Religious journalism Details in Hindi)
धार्मिक पत्रकारिता :धार्मिक मामले : कवरेज की जरूरत
धार्मिक मामले : कवरेज की जरूरत
- अपना देश स्वभाव से ही धार्मिक है। यहां का आम जन धर्म में गहरी आस्था रखता है। दुनिया के तकरीबन हर प्रमुख धर्म को मानने वाले लोग यहां हैं। मीडिया तो आमजन के लिए ही होता है। उसे जन जन की भावनाओं की कद्र करनी होती है। अगर हम आम आदमी की फिक्र करेंगे, तो धर्म से जुड़ी गतिविधियों को दरकिनार नहीं कर सकते। हो सकता है कि कुछ लोग अपने को धार्मिक कहलाने में हिचकें। वे धर्म को संगठन या संस्थान के तौर पर पसंद न करते हों। या परहेज करते हों। लेकिन वे भी नास्तिक हों। यह जरूरी नहीं है। ये लोग परंपरागत अर्थ में धार्मिक भले ही न हों, लेकिन आध्यात्मिक तो हैं ही। सो, धर्म अध्यात्म को अगर साथ मिला कर चलें तो इस देश की 95 फीसदी जनता आस्तिक है। यही वजह क्या काफी नहीं है कि धर्म अध्यात्म से जुड़ी गतिविधियों को अखबार में जगह दी जाए।
धार्मिक मामले में कैसी-कैसी कवरेज
आमतौर पर धर्म-अध्यात्म पर सामग्री
विशेष फीचर पेज पर जाती है। यहां पर ज्यादातर फीचर ही होते हैं। शहर से जुड़े
पन्नों पर रिपोर्ट होती हैं। संपादकीय पन्ने पर भी कुछ न कुछ जाता ही है। लेकिन
वहां वह लेख की शक्ल में होता है। यानी लेख, फीचर
और रिपोर्टिंग इन तीनों में धर्म अध्यात्म को जगह मिल जाती है।
1 धार्मिक मामले में रिपोर्टिंग
खोजी-
- कोई मंदिर मिल गया। कोई मसजिद मिल गई. किसी सभ्यता के मिल जाने पर उसमें धर्म की जगह को ढूंढ़ने पर काम हो सकता है। पूजा स्थल कैसे थे? वे किस देवता की पूजा करते थे? किस तरह करते थे? वगैरह-वगैरह। कुछ ढूंढ़ने की कोशिश ही तो रिपोर्ट करती है।
सम्मेलन
- मान लो हमें किसी विश्व धार्मिक सम्मेलन की रिपोर्टिंग करनी है। जाहिर है उसमें तमाम धर्मों के गुरु आएंगे। इस तरह की रिपोर्टिंग बहुत ध्यान से करनी चाहिए। एक-एक वक्ता को कायदे से सुनना चाहिए। अगर हो सके तो अपने साथ टेपरिकॉर्डर रखें। उसे पूरे ध्यान से सुन कर अपनी रिपोर्ट तैयार करें। इस तरह की रिपोर्टिंग में कोशिश करनी चाहिए कि आपके अपने विचार हावी न हों। वहां जो भी कहा जा रहा है या वहां जो भी हो रहा है। उसी को सीधा-सीधा रिपोर्ट करने की कोशिश होनी चाहिए। कभी-कभी आपके अपने विचार से चीजें बिगड़ सकती हैं। इस तरह की रिपोर्टिंग पूरी तरह तटस्थता की मांग करती है। अगर पांच लोगों ने अपनी बात कही है, तो हमें उनकी बात उद्धरण देते हुए उठानी चाहिए। हां, जो सबसे अहम बात हो उससे रिपोर्ट की शुरुआत होनी चाहिए। और यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि आखिर मुद्दा क्या था? क्या सहमति के बिंदु थे? असहमति के स्वर क्या थे? हां, अपने को किसी भी तरह हावी नहीं करना चाहिए।
प्रवचन-
- हम किसी भी शहर में रहते हों, वहां पर धर्मगुरुओं के प्रवचन होते ही हैं। उन्हें सुनने के लिए भारी भीड़ भी होती है। अगले दिन लोग उसकी रिपोर्टिंग भी पढ़ना चाहते हैं। यह रिपोर्टिंग कभी-कभी खासा टेढ़ी हो जाती है। खासतौर पर जब प्रवचन देर रात तक चलता हो । अखबार तो एक सीमा तक ही रुक सकता है। अगर ज्यादा देर होती है, तो उसकी रिपोर्ट करना नामुमकिन हो जाता है। देर रात में तो बड़ी खबरों के लिए ही जगह निकल पाती है। अंगरेजी के मशहूर अखबार चेन्नई के 'द हिंदू' में प्रवचन की रिपोर्टिंग का कॉलम अरसे से चल रहा है। उसे एक खास अंदाज देने वाले एम। सी। संपत ने हाल ही में पत्रकारिता से संन्यास लिया है। 1964 में उन्हें प्रवचनों की रिपोर्टिंग का काम दिया गया। उनके ही शब्दों में ज्यादातर रामायण और महाभारत के लेक्चर देर शाम में शुरू होते थे। खत्म होते-होते काफी रात हो जाती थी। उनके खत्म होने के बाद मैं ट्रेन पकड़ कर घर पहुंचता था। तब आधी रात हो जाती थी। ऐसे में वह रिपोर्ट एक दिन बाद ही अखबार में आती थी। बाद में यही तरीका अपनाया जाने लगा।
- एक बार हमारे मुख्य नगर संवाददाता के पास एक शख्स आया। वह अपने गुरुजी के प्रवचन की खबर अगले दिन छपवाना चाहता था। मुझे याद है हमारे साथी ने उन्हें सलाह दी कि भाई प्रवचन को आठ-साढ़े आठ तक खत्म कर दो, तो उसकी रिपोर्ट सकती है। वैसे भी उसके बाद शहर की बड़ी खबरों के लिए ही जगह बचती है। हालांकि अब लैपटॉप वगैरह आने के बाद रिपोर्टिंग आसान हो गई है। किसी भी वक्त कहीं से भी रिपोर्ट भेजी जा सकती है। अब उसके लिए संपत साहब की तरह ऑफिस पहुंच कर लिखना जरूरी नहीं है। लेकिन आज भी उस तरह की खबरें अगले दिन ही लगती हैं। उन्हें 'सॉफ्ट रिपोर्टिंग' जो माना जाता है। कभी-कभी यही समय उस रिपोर्टिंग के लिए दिक्कत पैदा करता है।
- अखबार के लिए यह बहुत मुश्किल होता है कि अपने किसी रिपोर्टर को पूरी शाम के लिए एक प्रवचन के लिए खुला छोड़ दे। अक्सर उस चक्कर में पूरी रिपोर्टिंग ही रह जाती है। लेकिन समझदार लोग मीडिया के समय के साथ अपनी लय ताल बिठा ही लेते हैं। और उनकी रिपोर्ट कभी गायब नहीं होतीं।
जयंती, जुलूस या यात्रा
- अपने यहां दिवसों की अलग ही महिमा है। अपने भगवान या महात्माओं से जुड़े इन दिवस लोग जुड़ना चाहते हैं। ये दिवस ही समाज के उत्सवों का कारण हैं। अपना समाज उत्सवधर्मी है। सो, उन्हें जम कर मनाता है। जाहिर है इन खास दिवसों पर सबका खास ध्यान रहता है। अच्छे खासे लोग इनमें हिस्सेदारी करते हैं। अगले दिन उनसे जुड़ी खबरों को वे अखबार में देखना चाहते हैं। हर धर्म संप्रदाय में खास दिवसों की अहमियत है। दरअसल, धर्म बिना इन दिवसों के चल ही नहीं सकता। दीवाली, होली, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, वाल्मीकि जयंती, बुद्ध पूर्णिमा, महावीर जयंती, गुरुनानक जयंती, रैदास जयंती वगैरह-वगैरह।
- ये दिवसीय उत्सव कई तरह से मनाए जाते हैं। उनमें प्रार्थना सभाएं हो सकती हैं। कीर्तन हो सकता है। जुलूस निकाले जा सकते हैं। एक रिपोर्टर के तौर पर किसी भी तरह की रिपोर्टिंग करनी पड़ सकती है। किसी भी किस्म की रिपोर्ट की तरह एक बुनियादी बात ध्यान में रखनी चाहिए कि वह खुले दिमाग से हो। और अपने विचार उस पर हावी न हों। हम जो देखें उसे लिखें। उसे अपने विचार के लिहाज से तोड़ें- मोड़ें नहीं। यह जेहन में रहना चाहिए कि हमें प्रयोग करने की तो छूट है, लेकिन वैचारिक मतभेदों की नहीं। आखिर किस तरह के प्रयोग हो सकते हैं, उसका एक उदाहरण देना चाहूंगा। हिंदुस्तान अखबार ने एक प्रयोग कांवड़ियों के समय में किया। उसमें एक रिपोर्टर और फोटोग्राफर को कांवड़ियों का जामा पहना कर हरिद्वार से दिल्ली तक की यात्रा कराई गई. रिपोर्टर बिना किसी को बताए सब देखता था। और धीरे से शाम को रिपोर्ट भेज देता था। कांवड़ियों के इतने आयाम उससे समझ में आए, जो हम आमतौर पर देख समझ ही नहीं पाते। इसी कांवड़ यात्रा पर कोई रिपोर्टर अपनी पहचान बता कर भी अपना काम कर सकता है। तब शायद हम वह ‘इनसाइट' नहीं दे पाएंगे। हम यह कतई नहीं बता पाएंगे कि कांवड़िए खुल कर क्या सोच रहे हैं? उनके बीच का अनुभव ही उस रिपोर्ट को एक्सक्लूसिव बनाएगा।
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