अरविन्द घोष के शिक्षा सम्बंधी विचार |अरविन्द घोष का शिक्षा दर्शन| Aurobindo Ghosh's thoughts on education
श्री अरविन्द घोष के शिक्षा सम्बंधी विचार Aurobindo Ghosh's thoughts on education
अरविन्द घोष जीवन परिचय :
श्री अरविन्द का जन्म 15 अगस्त 1972 ई. में कलकत्ता के घोष-परिवार में हुआ था। उनके पति का नाम डॉ कृष्णधन घोष और माता का नाम स्वर्णलता देवी था। श्री अरविन्द की प्रारम्भिक शिक्षा दार्जिलिंग के लोरेटो कान्वेंट में हुई। तत्पश्चात् उनको शिक्षा प्रदान करने के लिये इग्लैंड भेजा गया।
भारत आकर उन्हेनि बडौदा राज्य की सेवा करना स्वीकार किया। यहाँ कुछ समय तक उन्होने लगान बंदोबस्त, स्टाम्प और रेवेन्यू विभाग आदि में कार्य किया बड़ौदा में ही इनका विवाह हुआ। उन्हेनि 1905 से 1910 तक सक्रिय राजनीति में भाग लिया। श्री अरविन्द 1910 ई० में पाण्डिचेरी गये। पाण्डिचेरी पहुंच कर अरविन्द योग साधना में लीन हो गये। उन्होंने अपने अंतिम दिन पाण्डिचेरी के आश्रम में व्यतीत किये। इस महान ऋषि, साधक तथा शिक्षा शास्त्री ने 2 दिसम्बर 1950 को इस संसार का त्याग किया।
अरविन्द घोष का जीवन दर्शन :
श्री अरविन्द का दर्शन श्रेयवादी (Agnostic) है। वे विकास में विश्वास करते हैं उनके विकास का लक्ष्य जगत में व्याप्त दिव्य शक्ति का प्रगतिशील बोध है। उनके विचार से इस विश्व के सब विकासशील प्राणियों का एक ही प्रयोजन और लक्ष्य है पूर्ण और अखण्ड चेतना की प्राप्ति । चेतना के विकासक्रम की दो विशेषताएँ हैं :
पहली -
- पदार्थ, प्राण, मन और बुद्धि इनका असतित्व अलग-अलग नहीं है बल्कि हर एक अनुवर्ती स्तर अपने पूर्ववर्ती स्तर से जुड़ा है।
दूसरी-
- हर एक उच्च स्तर पर पहुँच कर विकसित चेतना, अपने पूर्ववर्ती और अनुवर्ती स्तरों को अपने ढंग से अपने और अपने नियमों के अनुसार प्रभावित करती है।
श्री अरविन्द का कथन है कि चट्टानों और खनिजों से वनस्पति उत्पन्न हुई, वनस्पति से पशु की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार पशु से मानव का विकास हुआ और मानव से अतिमानव का विकास होता अवश्यम्भावी है।
अरविन्द घोष का शिक्षा दर्शन :
श्री अरविन्द के अनुसार मन या अन्तःकरण शिक्षक का मुख्य साधन है। वह मस्तिष्क को चार सतहों में विभाजित मानते हैं।
1. स्मरण शक्ति
चित्त ही वह है जिससे क्रियाशील स्मरण शक्ति समय पर आवश्यक वस्तु की खोज निकालती है कभी यह चुनाव ठीक वस्तु का होता है। कभी अनावश्यक वस्तुओं का भी चुनाव हो जाता है। श्री अरविन्द के अनुसार चित्त को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह स्वाभाविक रूप से अपने कार्य के लिये यथेष्ट है।
2. वास्तविक मस्तिष्क या मानस :
मानस का कार्य यह होता है कि वह ज्ञानेन्द्रियों द्वाराभेजी गई प्रतिमाओं को ग्रहण करे और उनको विचारों में बदल दे। शिक्षक का यह मुख्य कार्य समझा जाता है कि वह छः ज्ञानेन्द्रियों का उचित उपयोग करना सिखायें और उनमें उस सीमा तक कुशलता प्रदान करने का निर्देशन दे जिस सीमा तक कि उनकी ज्ञानेन्द्रियों में शक्ति और योग्यता हो ।
3. बुद्धि मस्तिष्क :
इसके द्वारा ही विचार होता है। यह ज्ञान को संगठित करती है और उसमें हेर-फेर करती है। श्री अरविन्द बुद्धि के शिक्षा के लिये बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं। वह बुद्धि के एकत्रीकरण, रचना, समन्वयीकरण के गुणों को बुद्धि का दाहिना हाथ मानते हैं। बाँया हाथ बुद्धि के आलोचनात्मक व विश्लेषणात्मक गुण होते हैं यह हाथ केवल सेवक होता है। यह हाथ ज्ञान को केवल छू ही पाता है, जबकि दाहिना हाथ आत्मा की गहराई तक घुसता है।
4. सत्य का सहज ज्ञान बोध
यह बोध अभी पूर्ण विकसित नहीं हुआ है। यह पूर्ण रूप से किसी केक भी पास नहीं है लेकिन अपूर्ण एवं क्षणिक प्रकाश के रूप में अनेक के पास है। एक शिक्षक को चाहिए कि वह सहज ज्ञान-शक्ति के विकास का स्वागत करें और प्रोत्साहन दें। शिक्षक को बालक का मार्गदर्शन होना चाहिए और उसका कार्य छात्र के निजी स्वभाव या प्रकृति के अनुसार इसे विकसित करने के लिये सहायता देना ही होना चाहिए।
श्री अरविन्द शिक्षा का लक्ष्य मनुष्य के अंतःकरण और आत्मा की शक्ति के निर्माण और विकास को मानते हैं। श्री अरविन्द वास्तविक शिक्षा में तीन वस्तुओं को ध्यान में रखने को कहते हैं। यह तीन उनके अनुसार हैं। सार्वलौकिक मस्तिष्क मनुष्य जाति की आत्म तथा इन दोनों के मध्य की एक अन्य शक्ति राष्ट्र का मस्तिष्क
अरविन्द घोष के अनुसार शिक्षा का अर्थ :
अरविन्द घोष के शब्दों में “सूचनाएँ ज्ञान की नीव नहीं हो सकती और केवल सूचनाओं का संकलन शिक्षा नहीं है। " इस प्रकार शिक्षा केवल ज्ञान देने तक सीमित रह सकती हैं उनके अनुसार “शिक्षा मानव के मस्तिष्क तथा आत्म की शक्तियों का सृजन करती है यह ज्ञान, चरित्र तथा संस्कृति की उन्नति करती है” उनके अनुसार शिक्षा आधुनिक जीवन की आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाली और छात्रों को कर्मशील नागरिक बनाने वाली होनी चाहिए।
अरविन्द घोष के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य
1. बालक की शारीरिक शुद्धि करना और उसके शरीर का पूर्ण तथा उत्तम विकास करना।
2. बालक की चित्त सम्बंधी क्रियाशीलता को समुन्नत करके उनके अन्तःकरण का विकास करना।
3. बालक की स्नायु शुद्धि, चित्त शुद्धि करके उसकी इन्द्रियों के उचित प्रयोग का विकास करना।
4. बालक की अभिरुचियों के अनुसार उसकी स्मृति, कल्पना, चिन्तन और निर्णय शक्ति का विकास करके उसका मानसिक विकास करना।
5. बालक को तथ्य संग्रह करने और निष्कर्ष निकालने का प्रशिक्षण देकर उसकी तर्क शक्ति का विकास करना।
अरविन्द घोष के अनुसार शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धांत :
1. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा और शिक्षा का केन्द्र बालक होना चाहिए।
2. शिक्षा का मुख्य आधार ब्रह्मचर्य और शिक्षा के विषय रोचक होने चाहिए।
3. शिक्षा, बालक की मनोवृत्तियों और मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों के अनुकूल होनी चाहिए।
4. शिक्षा को व्यक्ति में निहित समस्त ज्ञान का उद्घाटन करना चाहिए ।
5. शिक्षा को बालक का शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक, आध्यात्मिक और संवगात्मक विकास करके उसे पूर्ण मानव बनाना चाहिए ।
6. शिक्षा को बालक की नैतिकता का विकास करना चाहिए और उसके व्यावहारिक जीवन को सफल बनाना चाहिए।
7. शिक्षा को बालक का मित्र और पथ प्रदर्शक होना चाहिए और उसे बालक की शारीरिक शुद्धि की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए ।
8. शिक्षा को व्यक्ति में निहित समस्त शक्तियों का इस प्रकार विकास करना चाहिए कि वह उनसे पूर्ण रूप से लाभान्वित हो।
अरविन्द घोष के अनुसार पाठ्यक्रम :
श्री अरविन्द ने बालक का नैतिक, भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास करने के लिए शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर पाठ्यक्रम के जो विषय निर्धारित किये हैं, वे इस प्रकार है-
1. प्राथमिक शिक्षा : मातृभाषा अंग्रेजी, फ्रेंच, सामान्य विज्ञान, सामाजिक अध्ययन, गणित और चित्रकला।
2. माध्यमिक व उच्च माध्यमिक शिक्षा :मातृभाषा अंग्रेजी, फ्रेंच, गणित, सामाजिक अध्ययन, भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, जीवन विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, भूगर्भ विज्ञान और चित्रकला ।
3. विश्वविद्यालय शिक्षा :भारतीय व पाश्चात्य दर्शन, मनोविज्ञान, समाज-शास्त्र, सभ्यता का इतिहास, अंग्रेजी साहित्य, गणित, भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, विज्ञान का इतिहास, फ्रेंच साहित्य, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बंध, जीवन व विज्ञान और विश्व एकीकरण ।
अरविन्द घोष के अनुसार शिक्षण विधियाँ :
श्री अरविन्द शिक्षण की क्रमिक विधि के पक्ष में है। इस विधि में जैसा कि वर्तमान समय में है, बालक को एक समय में अनेक विषयों की शिक्षा नहीं दी जाती है। इसके अन्तर्गत शिक्षण निम्नलिखित सिद्धांतों से शिक्षा दी जाती है। 1. करके सीखना, 2. बालक का सहयोग, 3. बालक की स्वतंत्रता, 4. प्रेम व सहानुभूति का प्रदर्शन, 5. बालक की रुचियों का अध्ययन, 6. शिक्षा का माध्यम मातृभाषाद्व 7 बालक के निजी प्रयास व निजी अनुभव को प्रोत्साहन, 8. विषयों की प्रकृति के अनुसार बालक की शक्तियों का प्रयोग, 9. वैयक्तिक मित्रता के आधार पर। इस प्रकार उन्होंने केन्द्रीयकरण विधि, मौखिक, पाठ्य पुस्तक विधि, स्वाध्याय विधि का समर्थन किया।
अरविन्द घोष के अनुसार शिक्षा में अध्यापक शिक्षार्थी एवं शिक्षाशाला :
अरविन्द के अनुसार “अध्यापक निदेशक, आज्ञा देने वाला था कार्य कराने वाला न हो कर मार्गदर्शक और सहायक हो” वह एक मित्र, सहायक, पथ प्रदर्शक एवं ज्ञानदाता है जो विद्यार्थी को आत्म निर्भर बनाना है। उसे मनोविज्ञान का ज्ञान होना चाहिए। उसे छात्रों को उनकी अभिरुचियों के अनुकूल शिक्षण करना चाहिए।
अरविन्द जी ने बालकेन्द्रित शिक्षा का समर्थन किया है उसका विकास उसकी रुचि के अनुकूल किया जाय। उनके अनुसार प्रत्येक बालक में एक विशिष्ट प्रतिया, व्यक्तिगत विभिन्नताएं है और अनुकरणशील होता है। इसलिये उनकी अभिरुचियों के अनुकूल शिक्षा हो।
अरविन्द की आश्रम प्रथा के समर्थक थे लेकिन संस्थायें ऐसी हो जहाँ छात्रों के समग्र विकास की उपयुक्त व्यवस्था है।
शिक्षा में अरविन्द घोष का योगदान :
शिक्षा के सन्दर्भ में अरविन्द द्वारा आधुनिक, व्यापाक एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विचार दिये गये हैं। आध्यात्मिक एकतापर बल, योग विश्वविद्यालय की स्थापना मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करना। बालकेन्द्रित शिक्षा का समर्थन, आवश्यकतानुसार पाठ्यक्रम का निर्माण एवं शिक्षण विधियों के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण विचार दिये हैं। अरविन्द द्वारा पाण्डचेरी में स्थापित “अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा केन्द्र विश्वविद्यालय है। ”
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