स्वामी विवेकानंद के शिक्षा संबंधी विचार |स्वामी विवेकानंद का शिक्षा दर्शन |Educational Thoughts of Swami Vivekananda
स्वामी विवेकानंद के शिक्षा संबंधी विचार
Educational Thoughts of Swami Vivekananda
स्वामी विवेकानंद जीवन परिचय :
विवेकानन्द का जन्म सन् 1863 ई. में कलकत्ता नगर में हुआ था। इनका पूर्व
नाम नरेन्द्र दत्त था। ये अत्यंत प्रतिभाशाली छात्र थे। इस प्रतिभाशाली नरेन्द्र
दत्त ने अपने प्रधानाचार्य मिस्टर हेस्टी से प्रेरित होकर दक्षिणेश्वर की यात्रा
की। इस मंदिर में उनकी भेंट श्री रामकृष्ण परमहंस से हुयी । यहाँ विवेकानन्द को
संतोष प्रदान हुआ। इसके पश्चात् स्वामी जी ने रामकृष्ण को अपना गुरू बना लिया।
अपने गुरु की मृत्यु के उपरांत उन्होंने उनकी शिक्षाओं का प्रसार किया।
31 मई 1983 ई. को स्वामीजी ने अमरीका के लिये प्रस्थान किया। वहाँ जाने से पूर्व उन्होंने अपना नाम विवेकानन्द रखा। विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिये स्वामीजी अमेरिका गये। धर्म सभा शिकागो में दिये अपने भाषण से विश्व की जनता को प्रभावित किया।
स्वामी विवेकानंद का जीवन दर्शन :
स्वामी विवेकानन्द का जीवन दर्शन आज भी हमारे लिये
गौरवपूर्ण एवं प्रेरणादायक है। उनके अनुसार मनुष्य के जीवन में संघर्ष की प्रधानता
होनी चाहिये। उनकी इस बात में आस्था थी कि वीर, निर्भीक एवं कर्मठ व्यक्ति ही जीवन में कोई कार्य कर सकते
हैं।
स्वामी जी अत्यधिक चेतनशील थे। जिसके कारण उनकी खोज दृष्टि बहुत जल्दी ही विकसित हुई। उनके मन में अनेक प्रश्न उठते व उनकी खोज या तो वह स्वयं करते या रामकृष्ण परमहंस से सहयोग लेते।
स्वामी विवेकानंद का शिक्षा दर्शन :
जिस प्रकार स्वामी विवेकानन्द का जीवन दर्शन यर्थाथवादी एवं विस्तृत है। उसी तरह से उनका शिक्षा दर्शन भी विस्तृत एवं समन्वयवादी है। वे व्यावहारिक शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। वे कहते थे कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली मनुष्य भीरू व कायर बनाती है। एवं अपने उद्देश्यों को प्राप्त नहीं करती है। उनके अनुसार गीता समझने से पहले मनुष्य को शारीरिक रूप से सशक्त होना चाहिए। उनके अनुसार शिक्षा का लक्ष्य होना चाहिए कि मनुष्य भावना से भर उठे "उठो, जागो और तब तक न रुको जब तक कि अपने ध्येय की पूर्ति न कर लो।"
बालकों को
डाँटने-फटकारने को स्वामी जी पसंद नहीं करते थे। बच्चे की प्रवृत्तियों को ध्यान
में रखकर बालक को शिक्षित किया जाना चाहिये। उनके अनुसार शिक्षक का चरित्र बहुत
ऊँचा होता है। शिक्षक का कार्य मात्र बालक को अक्षर ज्ञान देना नहीं है। शिक्षक को
अपना चरित्र पवित्र रखकर उसे प्रभावकारी मार्गदर्शन देना चाहिये।
स्वामी जी ऐसी शिक्षा व्यवस्था पर जोर देते हैं जिसमें
आदर्शवाद, समन्वयवाद
यथार्थवाद का एकत्रीकरण हो । शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति की पूर्णता एवं देश का नव
निर्माण हो।
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शिक्षा का अर्थ :
स्वामी विवेकानन्द वेदान्त दर्शन के समर्थक थे उन्होंने देश की अज्ञानता एवं गरीबी दूर करने के लिये शिक्षा की आवश्यकता को समझा। वे मनुष्य को जन्म से ही पूर्ण मानते थे इस पूर्णता की अभिव्यक्ति को शिक्षा कहते थे। उनके अनुसार शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है।
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य
स्वामी जी के अनुसार शिक्षा का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति की पूर्णता एवं दश के नव निर्माण की भावना है। जीवन का अन्तिम उद्देश्य आत्मानुभूति से है। उनके अनुसार शिक्षा का मुख्य उद्देश्य इस प्रकार से है-
1. मनुष्य में मानव प्रेम, समाजसेवा, विश्व चेतना और विश्व बंधुत्व की भावना का विकास करना है।
2. मनुष्य का शारीरिक, मानसिक, भावात्मक, धार्मिक, नैतिक, चारित्रिक, सामाजिक और व्यावसायिक विकास करना।
3. मनुष्य में आत्म विकास, आत्म श्रद्धा, आत्म त्याग, आत्म नियंत्रण, आत्म निर्भरता, आत्म ज्ञान आदि अलौकिक सद्गुणों का विकास करना।
4. बालक का चारित्रिक, नैतिक विकास करना।
5. व्यक्ति को सर्वागीण विकास करना।
6. राष्ट्रीयता का
विकास करना और 'वसुधैव
कुटुम्बकम्' के आधार पर विश्व
बन्धुत्व की भावना एवं एकता का विकास करना ।
विवेकानन्द जी के अनुसार पाठ्क्रम :
चूंकि विवेकानन्द जी शिक्षा द्वारा मनुष्य को लैकिक एवं
पारलौविक दोनों जीवनों के लिये तैयार करना चाहते थे। इसलिये पाठ्यक्रम में भाषा, कला, इतिहास, भूगोल, राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र गणित, गृह विज्ञान, विज्ञान, कृषि एवं व्यावसायिक
शिक्षा के साथ खेलकूद व्यवसाय, समाज सेवाकार्य, राष्ट्र सेवा कार्यो आदि विषयों स्वीकार किया है।
विवेकानन्द के अनुसार शिक्षण विधियाँ :
उन्होने ज्ञान प्राप्त करने की सर्वोत्तम विधि एकाग्रता बतायी है। इसके लिये उपदेश देने, व्याख्यान विधि, विश्लेषणात्मक विधि एवं अनुकरण विधि योग विधि का समर्थन किया।
शिक्षक और शिक्षार्थी :
स्वामी जी प्राचीन गुरुकुल प्रणाली के समर्थक थे और शिक्षा
में शिक्षक के स्थान को महत्वपूर्ण मानते थे। वे शिक्षक को बालक का मित्र, परामर्शदाता एवं पथ
प्रदर्शक मानते थे और उसे ईश्वर के समान समझते थे उनका कहना था कि अध्यापक अपने
ज्ञान और आचरण से बच्चों का मार्ग दर्शन करें।
बालक को शिक्षा प्रक्रिया का प्रमुख अंग माना है उनके
अनुसार छात्र गुरू गृह में रहकर ब्रम्हचार्य का पालन करते हुये अपने व्यक्तित्व का
विकास करे।
स्वामी जी ने देश-विदेश में वेदान्त का प्रचार किया। उन्होंने जन शक्ति के महत्व को समझा। शिक्षा का पाठ्यक्रम ऐसा हो जो बालक का सर्वांगीण विकास कर सकेा शिक्षार्थियों को स्वाध्याय की सलाह दी। विज्ञान एवं व्यावसायिक शिक्षा के महत्व को स्वीकार किया। गुरू शिष्य के सम्बंध में स्वामी जी के विचार परम्परावादी थे। रविन्द्र नाथ टेगौर ने स्वामी के बारे में राम्या शैला से कहा कि तुम भारत के विषय में जानना चाहते हो तो विवेकानन्द का अध्ययन करो।
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