दर्शन काल (दर्शन) में योग का अस्तित्व |Existence of Yoga in Darshan Kaal (Darshan)
दर्शन काल (दर्शन) में योग का अस्तित्व
दर्शन काल (दर्शन) में योग का अस्तित्व
दर्शन शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा की दृश् धातु से होती है। दर्शन का सामान्य अर्थ होता है- देखना। इस संसार में सर्वत्र दुःखों को देखकर दुःखों से छूटने और मुक्ति को प्राप्त करने के अर्थ में दर्शन साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ।
"दृश्यते हि अनेन इति दर्शनम्" ।
अर्थात् सत् और असत् पदार्थों का ज्ञान ही दर्शन कहलाता है। दर्शन को अंग्रेजी भाषा में फिलॉस्फी कहा जाता है। फिलॉस का अर्थ प्रेम और सोफिया का अर्थ प्रज्ञा अथवा बुद्धि या ज्ञान से होता है। इस प्रकार अंग्रेजी भाषा में दर्शन का अर्थ प्रेम के ज्ञान के रूप में लिया गया है।
प्रिय शिक्षार्थियों, आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन इसकी दो प्रमुख शाखाएं हैं। आस्तिक दर्शन में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त नामक छह दर्शनों का वर्णन आता है इन छह दर्शनों को षडदर्शन की संज्ञा दी जाती है जबकि नास्तिक दर्शन के अन्तर्गत बौद्ध, जैन और चार्वाक नामक तीन दर्शनों का उल्लेख आता है। इन सभी दर्शनों में योग विद्या का स्पष्ट वर्णन किया गया है। इनमें से योग दर्शन विशुद्ध रूप से योग विद्या से सम्बन्धित दर्शन है जिसमें महर्षि पतंजलि के द्वारा अष्टांग योग की साधना से चित्त की वृत्तियों का स्थिर करने का उपदेश किया गया है। इसके साथ-साथ सांख्य दर्शन में योग विद्या को इस प्रकार वर्णित किया गया है
1 सांख्य दर्शन में योग का अस्तित्व
- सांख्य दर्शन महर्षि कपिल के द्वारा रचित दर्शन है। सांख्य दर्शन से तात्पर्य है- संख्याओं का ज्ञान अथवा संख्याओं का विश्लेषण। सांख्य दर्शन पुरुष और प्रकृति नामक दो तत्वों को अनादि और नित्य मानता है। इस प्रकार सांख्य दर्शन द्वैतवाद की मान्यता रखता है। सांख्य शास्त्र के अनुसार पुरुष अर्थात् आत्मा चेतन, अविकारी, ज्ञानस्वरूप और संख्या में अनेक है, जबकि इसके विपरीत प्रकृति जड़, विकारी और संख्या में एक है। पुरूष और प्रकृति के अतिरिक्त सांख्य प्रकृति के 23 विकारों का वर्णन भी करता है। इस प्रकार सांख्य शास्त्र में कुल पच्चीस तत्वों का वर्णन किया गया है। परन्तु सामान्य अवस्था में पुरुष को इन तत्वों का ज्ञान नहीं होता है और वह इन तत्वों के साथ जुड़कर दुःखों और कष्टों से घिरा हुआ रहता है। पुरुष को इन तत्वों का ज्ञान होने पर, वह अपने शुद्ध चेतन स्वरूप को जानकर इन तत्वों से स्वयं को पृथक कर, मोक्ष मार्ग पर अग्रसर हो जाता है।
- शिक्षार्थियों, सांख्य दर्शन प्रकृति की अव्यक्त और व्यक्त रूप में, दो अवस्थाओं को मानता है। प्रकृति की अव्यक्त अवस्था को मूल प्रकृति अथवा प्रलय अवस्था कहा गया है जबकि व्यक्त अवस्था को सांख्य शास्त्र में सृष्टि कहा गया है। इसके साथ-साथ सांख्य शास्त्र में सृष्टि प्रक्रिया को सविस्तार समझाया गया है। सांख्य दर्शन में महर्षि कपिल प्रकृति को त्रिगुणात्मक स्वीकार करते हैं । अर्थात् सत्व, रज और तम नामक तीन गुण सृष्टि में विद्यमान रहते हैं। इन तीन गुणों की साम्यावस्था ही प्रकृति है जबकि इन तीन गुणों की विकृत अवस्था ही विकृति अथवा प्रलय अवस्था है।
- प्रलयावस्था के उपरान्त, सर्वप्रथम प्रकृति और पुरुष का संयोग होता है। इस अवस्था में सत्वगुण के प्रभाव से महतत्व अर्थात् बुद्धि उत्पन्न होती है। तत्पश्चात् रजोगुण के प्रभाव से अहंकार की उत्पत्ति होती है। अहंकार से पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, पांच तन्मात्राएं और मन की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार अहंकार से सोलह तत्व उत्पन्न होते हैं। आगे चलकर पंच तन्मात्राओं से पांच महाभूतों की उत्पत्ति होती है। शब्द तन्मात्रा से आकाश तत्व, स्पर्श तन्मात्रा से वायु तत्व, रुप से अग्नि तत्व, रस से जल तत्व और गन्ध से पृथ्वी तत्व की उत्पत्ति होती है। इन पंच महाभूतों से सम्पूर्ण दृश्य जगत की उत्पत्ति होती है।
- सांख्य दर्शन में अभ्यास और वैराग्य से, ज्ञान के उदय का उपदेश किया गया है। सांख्यकार महर्षि कपिल मुनि के अनुसार जब तक विषयों के प्रति राग बना रहता है तब तक अज्ञान की अवस्था बनी रहती है, किन्तु विषयों के प्रति वैराग्य उत्पन्न होने पर ज्ञान का भी उदय हो जाता है। ज्ञान से ही मनुष्य मुक्ति के पथ पर अग्रसर होता है।
- इस प्रकार सांख्य दर्शन में महर्षि कपिल मुनि द्वारा सृष्टि प्रक्रिया को सविस्तार समझाया गया है और इसके साथ-साथ सत्कार्यवाद के सिद्धान्त को वर्णित किया गया गया है। कपिल मुनि अभ्यास एवं वैराग्य के द्वारा ज्ञान प्राप्ति और ज्ञान प्राप्ति से मुक्ति अर्थात् कैवल्य का उपदेश करते हैं। अब योग दर्शन में वर्णित योग के स्वरूप पर विचार करते हैं
2 योग दर्शन में योग का अस्तित्व
शिक्षार्थियों, योग दर्शन महर्षि पतंजलि के द्वारा रचित दर्शन है। योग दर्शन में विशुद्ध रूप से, योग विद्या का वर्णन, महर्षि पतंजलि के द्वारा किया गया है। महर्षि पतंजलि ने 195 योग सूत्रों के माध्यम से योग विद्या का वर्णन किया है। योग सूत्रों में चतुर्व्यूहवाद का वर्णन किया गया है। चतुर्व्यूहवाद के अन्तर्गत हेय, हेयहेतु, हान और हानोपाय का वर्णन किया गया है।
योग दर्शनकार महर्षि पतंजलि, निम्न कोटि के साधकों के लिए अष्टांग योग की साधना, मध्यम कोटि के साधकों के लिए क्रियायोग और उच्च कोटि के साधकों के लिए अभ्यास और वैराग्य के द्वारा समाधि की अवस्था को प्राप्त करने का उपदेश करते हैं। अष्टांग योग का वर्णन करते हुए महर्षि पतंजलि कहते हैं-
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टाङगानि ।। (पातंजल योग सूत्र )
अर्थात यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, ये योग के आठ अंग हैं।
तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ।।
अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर की शरणागति यह तीनों क्रियायोग है ।
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ।। (पातंजल योग सूत्र )
अर्थात् अभ्यास और वैराग्य से चित्तवृत्तियों का निरोध होता है और चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था ही योग है।
इस प्रकार योग दर्शन में निम्न, मध्यम और उच्च कोटि के साधकों के लिए क्रमशः अष्टांग योग, क्रियायोग और अभ्यास- वैराग्य का उपदेश महर्षि पतंजलि के द्वारा किया गया है।
3 वेदान्त दर्शन में योग का अस्तित्व
वेदान्त दर्शन में बादरायण मुनि के द्वारा रचित ब्रह्म सूत्रों को लिया गया है। इस दर्शन के प्रर्वतक आदि शंकराचार्य हैं। वेदान्त दर्शन में ज्ञानयोग साधना बहिरंग और अन्तरंग साधनों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। ज्ञानयोग साधना के चार बहिरंग साधन होते हैं विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षुत्व नित्य अर्थात् सदैव रहने वाला और अनित्य अर्थात् नष्ट होने वाले पदार्थों का विवेचन करने वाली निश्चयात्मक बुद्धि का होना, विवेक कहलाता है।
वैराग्य का अर्थ सांसारिक सुखों और विषय भोगों के प्रति अनासक्ति के भाव रखने से होता है। षट्सम्पत्ति के अन्तर्गत निम्न छह साधनों का उल्लेख वेदान्त दर्शन में किया गया है-
क) शम-
शम का अर्थ होता है- शान्त करना । इन्द्रियां सदैव विषयों की ओर दौड़ती रहती हैं किन्तु इन्द्रियों को विषयों की ओर जाने से रोकना, शम कहलाता है।
ख) दम
दम का अर्थ होता है- दमन करना। इन्द्रियों को वश में करते हुए अन्तर्मुखी बनाने का अभ्यास दम कहलाता है।
ग) उपरति -
सांसारिक विषय भोगों के प्रति वैराग्य के भावों को दृढ़ बनाना, उपरति कहलाता है अर्थात् स्वयं को सांसारिक भोगों से ऊपर उठाना, उपरति कहलाता है।
घ) तितिक्षा-
तितिक्षा को तपस्या के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। साधना में उत्पन्न होने वाले द्वन्द्वों को सहन करना, तितिक्षा कहलाता है।
ड) श्रद्धा -
योग साधक श्रद्धा के अभाव में योग साधना के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता है। शास्त्रों के प्रति और गुरुवाक्यों को विश्वासपूर्वक ग्रहण करना, श्रद्धा कहलाता है।
च) समाधान -
ज्ञान योग साधना का महत्वपूर्ण अंग, जिसमें संशय का त्याग करते हुए चित्त को निरन्तर ब्रह्म में स्थापित किया जाता है, समाधान कहलाता है।
उपरोक्त बहिरंग के साथ-साथ निम्न चार अन्तरंग साधनों का वर्णन भी वेदान्त दर्शन में किया गया है-
क) श्रवण-
वेद और शास्त्रों का अध्ययन करना एवं गुरू के उपदेशों को सुनना, श्रवण कहलाता है।
ख) मनन-
शास्त्रों का अध्ययन एवं गुरू उपदेशों से प्राप्त ज्ञान का चिन्तन करना, मनन कहलाता है।
ग) निदिध्यासन -
निदिध्यासन से अभिप्रायः आत्मसात करने से होता है। वेदान्त दर्शन में मानसिक स्थिरता, एकाग्रता और ध्यान को निदिध्यासन के अर्थ में लिया गया है।
घ) साक्षात्कार अथवा समाधि-
उपरोक्त योगांगों का अभ्यास करते हुए साधक, योग के शीर्ष सोपान ईश्वर साक्षात्कार अथवा समाधि की अवस्था को प्राप्त करता है।
इस प्रकार वेदान्त दर्शन में ज्ञानयोग साधना का सविस्तार वर्णन किया गया है। उपरोक्त अध्ययन से यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि दर्शन साहित्य में योग के स्वरूप को भिन्न भिन्न दृष्टिकोण से वर्णित किया गया है जिन्हें, सामान्य भाषा में योग के मार्ग कहा जाता है।
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