अस्तित्ववाद दर्शन |क्यीर केगार्ड नीटशे हीडेगार सात्रे के अनुसार अस्तित्ववाद |Existentialism philosophy in Hindi

क्यीर केगार्ड नीटशे  हीडेगार सात्रे के अनुसार अस्तित्ववाद

अस्तित्ववाद दर्शन |क्यीर केगार्ड नीटशे  हीडेगार सात्रे के अनुसार अस्तित्ववाद |Existentialism philosophy in Hindi




अस्तित्ववाद दर्शन का अर्थ 

अस्तित्ववाद दर्शन शास्त्र का एक अन्य सम्प्रदाय हैजिसने शिक्षा के सिद्धांत पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है। इस सम्प्रदाय की जड़े सुकरात के इस वाक्य से खोजी जा सकती है कि “अपने आपको जानो" और इस कथन में कि “बिना परीक्षण किया हुआ जीवन जीने की लायक नहीं है"

 

हम अस्तित्वाद की विचारधारा को अच्छी प्रकार से समझने के लिए इसके प्रतिपादकों के दर्शन पर प्रकाश डालेंगे। यह भी देखेंगे कि अस्तित्वाद ऐतिहासिक रूप से किस प्रकार विकसित हुआ।

 

क्यीर केगार्ड के अनुसार अस्तित्ववाद

क्यीर केगार्ड व्यक्ति के मूल व्यक्तिगत अस्तिव्व पर बल देता है। उसके अनुसार वह पूरे जोश से अपने अस्तित्व में सन्निहित है। 

सत्य व्यक्ति के अपने अद्वितीय अनुभव मे पाया जाता है। धार्मिक सत्य कभी भी केवल तर्क से प्राप्त नही हो सकता। इस अर्थ में यह व्यक्तिगत है क्योंकि व्यक्ति सदैव अकेला ही होता है उसका अस्तित्व उसके आधारभूत से पहले हैं।

 

क्यीर केगार्ड मानव की मूल दशा निराशा को पाता है। यह एक सार्वभौमिक दशा है। कोई भी ऐसा व्यक्ति नही है जो निराशा से बाहर हो । एक ही इसका अपवाद हो सकता है वह है-एक सच्चा ईसाई क्यीर केगार्ड निराशा को इन शब्दों द्वारा व्यक्त करता है। क्षुब्धताद्व एक व्याकुलता एक असामंजस्यकिसी अनजानी वस्तु का चिंतायुक्त भय या उसकाजिसके साथ वह पहचान करने का साहस भी नही कर सकता।

 

निराशा ऐसी बीमारी है जो मृत्यु तक चलती है। किंतु निराशा का दर्द तो यह है कि व्यक्ति मर नहीं पाता।

 

क्यीर केगार्ड के अनुसार निराशा तीन रूप ले लेती है

 

1. निराशा इस बात मे कि आत्म की चेतना प्राप्त नही होती 

2. निराशा इस बात मे कि अपने आप मे होने की इच्छा नही होता 

3. निराशा इस बात मे कि अपने आप मे होने कि इच्छा होना।

 

क्यीर केगार्ड की जो मूल एवं अत्यंत महत्वपूर्ण देन अस्तित्ववाद दर्शन के लिए है उसे हम तीन मुख्य वर्गों में संक्षेपीकरण कर सकते है।

 

1. इस बात पर आग्रह कि व्यक्ति को चयन करने की पूर्ण स्वतंत्रता मिले और वह जो बनना चाहता है वह बनने के लिए स्वंतत्र हो। इस प्रकार वह नियतिवाद को बिल्कुल नही मानता और सार को अस्तिव्व के उपर नही समझता।

 

2. वह ईसाई धर्म को संस्थात्मक बानने के विरुद्ध है। उसके अनुसार चर्च प्रभावशाली ढंग से आदमी को परमाला से सीधा सम्पर्क करने से रोकता है। सच्चा धार्मिक अनुभव तो सीधा सम्पर्क ही है।

 

3. उसका यह विचार है कि मानव दशा निराशा की तथा चिंता की हैजिसकी जड़ मे यह आवश्यकता निहित है जो एक ऐसे संसार मेंजो पूर्णरूप से अनिधरित हैविकल्प चुनने के लिये बाध्यता प्रदान करती हैं।


नीटशे के अनुसार अस्तित्ववाद

 नीटशे : नीटशे की विचारधारा में तीन मूल तत्वों का समावेश है, ये है 

1. नास्तिकवाद 2. नीति विषयक सापेक्षवाद 3. शक्ति प्राप्त करने की इच्छा 


नीटशे का कहना है कि "ईश्वर की मृत्यु हो चुकी है और हमने उसे मार डाला है। " हमने ईश्वर को तर्क से युक्तिपूर्ण दर्शन से तथा युक्तिपूर्ण विज्ञान से मारा है। हमने उसको मारा है अपनी वस्तुनिष्ठ सच्चाई के मिथ्याभिमान से क्यीर केगार्ड का विश्वास था कि ईश्वर का अस्तित्व है और उसे पहचाना जा सकता है। यद्यपि उस औपचारिक ढंग से नहीं जो कि चर्च प्रस्तवित करता है। नीटशे इस विचार से आगे जाता है और यह कहता है कि धर्म समाप्त हो गया है। क्योकि ईश्वर की मृत्यु हो चुकी है। अब आगे से प्रत्येक अपने आप पर ही निर्भर हैं। नीटशे का विश्वास था कि ईश्वर की मृत्यु एक नये ऐतिहासिक काल के प्रारंभ होने का तथा नये आदमी के प्रकट होने का संकेत देती हैं।


हीडेगार के अनुसार अस्तित्ववाद

हीडेगार ने जीव सम्बंधी दार्शनिक समस्या को समझने की चेष्टा की। उसके अनुसार मानव ही केवल अस्तित्व रखता हैं। दूसरे प्राणी तथा वस्तुएं संसार में है तो अवश्य किंतु उनका अस्तित्व नहीं है। ऐसा इस कारण है कि केवल मानव मे ही चेतना हैं ।

 

मानव प्रामाणिक रूप से अस्तित्व रख सकता हैकिंतु ऐसा वह केवल कुछ विशेष प्रकार के अनुभवों को प्राप्त करके ही कर सकता हैजिनमें वह अपने सम्बंध अनुभूत करता है कि वह है जो अस्तित्व रखता है। मूल रूप से यह अनुभव उस प्रकार के हैं जिन्हें क्यीर केगार्ड ने व्यथा या चिंता कहा है। 


व्यथा के अनुभव मे व्यक्ति अपने आप को जैसा है वैसा देखता है। वह संसार मे है किन्तु उसे यह नहीं पता कि वह वहाँ क्यों है। ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है परिणामस्वरूप मानव का अस्तित्व सूना है।

 

हीडेगार इस बात पर बल देता है कि मानव का अस्तित्व सूना है। सीमित हैं। कुछ समय के लिये सब चीजें संभव है किंतु यह समय समाप्त हो जाता हैं। क्योकि मानव का अस्तित्व नश्वरवान हैं। मृत्यु सब संभावनाओं का अतं कर देती है तथा सब मानवों को मरना है। वह प्रमाणिक व्यक्ति है जोकि दृढ़ भाव से इस तथ्य का सामना है करता है कि उसका अस्तित्व एक मृत्यु के लिये जीव का है।

 

सात्रे के अनुसार अस्तित्ववाद दर्शन 

नीटशे तथा हीडेगार की भाँति ही सात्रे भी वास्तिक है। उसके लिये मानव चिंता की जड़े इस तथ्य मे हैं कि मानव जीवित है उसको चुनाव करना और वह ईश्वर को नही पाता। जिसके उपर वह अपने उत्तरदायित्व को थोप दे। सात्रे कहता है कि ईश्वर का नही होता अस्तित्व वादियों के लिये प्रसन्नता का विषय नहीं है और वह इसको हटाने के लिये कोई गिरी हुई चाल नहीं चलते। सात्रे के विचार मे शायद यह कुछ रूपों मे अच्छा होता यदि ईश्वर का अस्तित्व होता। उसका अस्तित्व एक ऐसे संसार को संभव बनाता जिसमें स्थायी तथा विश्वासी मूल्य होते है।

 

सात्रे भी जीव के दर्शन पर प्रकाश डालता है। वह दो प्रकार के जीव में विभेद करता है। जीव स्वयं में तथा जीव स्वयं के लिये। जीव स्वयं में से तात्पर्य है। वस्तुओं का आत्म अन्तर्दिष्ट जीव। हम साधारण भाषा मे पेड़पत्थरकुर्सीमेज इत्यादि को वस्तुएँ कहते हैं।

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