योग में वर्णित ईश्वर का स्वरूप |ईश्वर की अवधारणा |God according Yoga
योग में वर्णित ईश्वर का स्वरूप
योग में वर्णित ईश्वर का स्वरूप
- ईश्वर की अवधारणा अत्यन्त विस्तृत एवं व्यापक है। ईश्वर को भगवान, परमात्मा, देवता, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गौड (GOD), शिव आदि नामों से जाना जाता है। वास्तव में ये सभी नाम ईश्वर के कार्य विशेष अथवा विशेषणों को अभिव्यक्त करते हैं।
- ईश्वर के शाब्दिक अर्थ पर विचार करें तो, ईश्वर शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा की ईश् धातु से हुई है। इस ईश् धातु पर वच्य प्रत्यय लगाने से ईश्वर शब्द की उत्पत्ति होती है। ईश् धातु का अर्थ होता है- नियंत्रित करना, अर्थात् इस ब्रह्माण्ड अथवा संसार को नियंत्रित करने वाली सत्ता अथवा शक्ति के अर्थ के रूप में ईश्वर का वर्णन किया गया है।
- कुछ स्थानों पर ईश्वर के लिए ईश अर्थात नियंता शब्द प्रयुक्त किया जाता है। ईश्वर शब्द के अर्थ को जानने के उपरान्त, अब आपके मन में ईश्वर के पयार्यवाची शब्दों भगवान, परमात्मा, देवता आदि को जानने की जिज्ञासा भी अवश्य ही उत्पन्न हुई होगी। अतः अब हम इन शब्दों पर विचार करते हैं ।
भगवान शब्द का अर्थ
- भगवान शब्द भग और वान से मिलकर बना है। भग का अर्थ ऐश्वर्य और वैभव से होता है और वान का अर्थ, धारण करने से लिया जाता है अर्थात् समस्त ऐश्वर्यों एवं वैभव से युक्त परम सत्ता को भगवान की संज्ञा से सुशोभित किया जाता है। सामान्यतः लोक व्यवहार में भी समस्त ऐश्वर्यों एवं वैभवशाली विशेष आदरणीय पुरुषों के लिए भगवान शब्द का प्रयोग किया जाता है। सभी आत्माओं में विशेष परम आत्मा, परमात्मा कहलाती है। देने वाला देव कहलाता है, चूंकि ईश्वर संसार के सभी प्राणियों को अन्न, जल, धूप एवं वायु आदि प्रदान करता है, ईश्वर के इस गुण विशेष के कारण, ईश्वर को देव अथवा देवता की संज्ञा से सुशोभित किया जाता है।
- ब्रह्मा, विष्णु और महेश ईश्वर के तीन प्रमुख वाचक शब्द हैं, जो ईश्वर के तीन गुण विशेषों को अभिव्यक्त करते हैं। अत्यन्त विशाल सृष्टि की रचना अर्थात् उत्पत्ति करने के कारण, ईश्वर को ब्रह्मा की संज्ञा दी जाती है, सृष्टि का पालन अर्थात् सृष्टि को चलाने और नियमन करने के कारण ईश्वर की संज्ञा विष्णु (पालनहार) हो जाती है तथा सृष्टि का संहार अर्थात् विनाश करने के कारण ईश्वर को महेश की संज्ञा दी जाती है।
GOD शब्द का अर्थ
उत्पन्न करने वाले को अंग्रेजी भाषा में जेनेरेटर (Generator), चलाने अर्थात् नियमन करने वाले को आपरेटर (Operator) तथा मिटाने अर्थात् नष्ट करने वाले को डेस्ट्रायर (Destroyer) कहा जाता है, ईश्वर के इन्हीं तीन गुणों को प्रकट करने वाले तीन शब्दों से गौड शब्द की उत्पत्ति होती है और अंग्रेज़ी भाषा में ईश्वर को गौड (GOD) शब्द से सम्बोधित किया जाता है।
शिव का अर्थ
- ईश्वर के लिए शिव शब्द का प्रयोग भी किया जाता है। शिव का अर्थ कल्याण करने से होता है अर्थात् सब जीवों का कल्याण करने के कारण, ईश्वर को शिव की संज्ञा दी जाती है। शिव का अर्थ अच्छे अथवा उत्तम से भी होता है, चूंकि ईश्वर मानव को अच्छी प्रेरणा, उत्तम संकल्प एवं सन्मार्ग की दिशा प्रदान करता है अतः ईश्वर को शिव के नाम से सम्बोधित किया जाता है।
- इस प्रकार भगवान, परमात्मा, देवता, ब्रह्मा, विष्णु, महेश व परमेश्वर आदि शब्द ईश्वर की अवधारणा को स्पष्ट करते हैं। इन शब्दों से एक ओर जहां ईश्वर के गुणों एवं महिमा का ज्ञान होता है तो वहीं दूसरी ओर ईश्वर की सर्वव्यापकता की अनूभूति भी होती है। यह तथ्य स्पष्ट होता है कि ईश्वर जिस गुण से युक्त होता है, उसी संज्ञा को प्राप्त करता है।
अब योग दर्शन में वर्णित ईश्वर के स्वरूप पर विचार करते हैं-
शिक्षार्थियों, योगी साधक पुरुष का परम ध्येय, ईश्वर साक्षात्कार होता है। ईश्वर के स्वरूप को जानकर उसमें लीन होना (समाधि) योग साधना की उच्च अवस्था है। योग दर्शनकार महर्षि पतंजलि, योग दर्शन ग्रन्थ के प्रथम अध्याय (पहले पाद) में ईश्वर के स्वरूप की व्याख्या करते हुए कहते हैं
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ।। (पा० यो० सू० 1/24 )
अर्थात् क्लेश, कर्म, कर्मफलों तथा इनके भोगों के संस्कारों से रहित जीवों से भिन्न स्वभाव वाला चेतन विशेष ईश्वर है।
उपरोक्त योगसूत्र में महर्षि पतंजलि पुरुष (मनुष्य) से भिन्न ईश्वर के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सामान्य मनुष्य का जीवन अविद्या, अस्मिता नामक पंच क्लेशों से घिरा रहता है, परन्तु वह पुरुष विशेष जो इन क्लेशों से मुक्त रहता है, ईश्वर कहलाता है। मनुष्य शुभ, अशुभ एवं मिश्रित कर्मों में लिप्त रहता है तथा इन कर्मों के परिणामस्वरूप प्राप्त सुख व दुख नामक फलों का भोग करता है। इसके साथ-साथ कर्मफलों का भोग करने के परिणामस्वरूप उत्पन्न संस्कारों अर्थात् वासनाओं से युक्त रहता है, किन्तु वह पुरुष विशेष जो जीवों के इन स्वभावों से परे अर्थात् भिन्न है, ईश्वर कहलाता है।
ईश्वर के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए महर्षि पतंजलि पुनः कहते हैं-
तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् ।। (पा० यो० सू० 1/25)
अर्थात् ईश्वर में निरतिशय सर्वज्ञता का बीज है ।
इस संसार में भिन्न भिन्न ज्ञान के स्तर के मनुष्य होते हैं, कोई अल्पज्ञानी होता है तो कोई सामान्य ज्ञान रखता है, जबकि कोई बहुत ज्ञानी होता है। मनुष्य के ज्ञानों के इस स्तर को सातिशय ज्ञान कहा जाता है, किन्तु इस सातिशय ज्ञान से परे, वह ईश्वर, निरतिशय ज्ञान से युक्त है। सरल शब्दों में ईश्वर, अनन्त ज्ञान के भण्डार से युक्त है। ईश्वर के ज्ञान का कोई आदि और अन्त नहीं है, वह सर्वज्ञ अर्थात सब कुछ जानने वाला है। सर्वज्ञता के ज्ञान रखने वाले ईश्वर के स्वरूप की व्याख्या करते हुए महर्षि पतंजलि आगे लिखते हैं-
स एश पूर्वेशामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ।। (पा० यो० सू० 1/26 )
अर्थात् वह ईश्वर भूत भविष्य और वर्तमान में उत्पन्न होने वाले सब गुरुओं का भी गुरु है।
पूर्वसूत्र में समझाया गया है कि, ईश्वर सर्वज्ञ है। इस सूत्र में महर्षि पतंजलि स्पष्ट करते हैं कि वह सर्वज्ञ ईश्वर सब विद्वान ज्ञानी जनों का गुरु है। इस संसार में अनेक प्रकार की विद्याओं एवं ज्ञानों को धारण करने वाले गुरु हैं किन्तु ईश्वर भूत, भविष्य और वर्तमान के सब गुरुओं का भी महान गुरु है। इस महान गुरु ईश्वर की कृपा से ही, संसार के सब गुरु ज्ञान प्राप्त करते हैं।
ईश्वर के स्वरुप को समझाने की श्रृंखला ईश्वर के गुणों एवं उसकी महिमा के विषय में ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त अब यह प्रश्न उपस्थित होना स्वभाविक ही है कि, ईश्वर को हम किस नाम से जानें ? ईश्वर का सर्वोत्तम वाचक क्या हो सकता है ? हम ईश्वर को किस नाम से पुकारे? इस प्रश्न के उत्तर को स्पष्ट करते हुए महर्षि पतंजलि आगे योग सूत्र में लिखते हैं –
तस्य वाचक प्रणवः ।। (पा० यो० सू० 1/27 )
अर्थात् उस ईश्वर का बोधक शब्द (नाम) प्रणव (ओ३म् ) है ।
ओ३म् शब्द की उत्पत्ति
यद्यपि ईश्वर के विशेषणों (विशेषताओं) के आधार पर, ईश्वर को अनेक नामों से सम्बोधित किया जाता है, किन्तु ईश्वर का सबसे प्रमुख वाचक अर्थात् नाम ओ३म् है। ओ३म् शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा की तीन धातुओं अकार, उकार एवं मकार से होती है। अकार धातु उत्पन्न करने के अर्थ में, उकार धातु चलाने के अर्थ में एवं मकार धातु विनाश के अर्थ में प्रयुक्त होती है अर्थात् ओ३म् शब्द अपने अन्दर ईश्वर के तीन मूल गुणों, विशेषताओं एवं कार्यों को समाहित किए होता है। ईश्वर सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता, वही पालनकर्ता है तथा वह ईश्वर ही सृष्टि का संहारकर्ता है इसीलिए ईश्वर का सर्वोत्तम वाचक ओ३म् है। मनुष्यों को ईश्वर का चिन्तन मनन करते हुए उसकी स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना में लीन रहना चाहिए, इस विषय पर प्रकाश डालते हुए महर्षि पतंजलि लिखते हैं-
तज्जपस्तदर्थभावनम् ।। (पा० यो० सू० 1/28 )
अर्थात् उस ईश्वर के वाचक ओ३म् शब्द का जप और ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव का चिन्तन करना चाहिए ।
मनुष्य जिस विषय का चिन्तन एवं मनन करता है, वह उसी के गुणों को धारण करता हुआ उस जैसा ही बन जाता है। योग साधक का ध्येय, ईश्वर होता है। वह ईश्वर का मनन चिन्तन उसके प्रमुख वाचक ओ३म् से करता हुआ उसके गुणों को धारण करता है तथा उसके समान ही व्यवहार करता है।
आधुनिक भौतिकवादी जीवन में मनुष्य केवल, भौतिक पदार्थों एवं विषयों का ही चिन्तन मनन करता है तथा इसके परिणामस्वरूप वह मानसिक तनाव एवं अशान्ति से ग्रस्त हो जाता है जबकि महर्षि पतंजलि ईश्वर के वाचक ओ३म् का जप एवं चिन्तन करने का उपदेश करते हैं जिससे मनुष्य अपने स्वरूप को ईश्वर के साथ जोड़ लेता है तथा ईश्वर के साथ जुड़कर वह परम शान्ति एवं आनन्द की अनुभूति करता है। इसके साथ-साथ ईश्वर का जप व चिन्तन करने से ईश्वर के गुणों का समावेश उस साधक पुरुष के चरित्र में होने लगता है। इसके साथ साथ ईश्वर मनन चिन्तन के प्रभावों को स्पष्ट करते हुए महर्षि पतंजलि लिखते हैं-
ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोश्ष्प्यन्तरायाभावश्च ।। (पा० योo सू० 1/29)
अर्थात् उस ईश्वर प्रणिधान से परमात्मा का साक्षात्कार, जीवात्मा का साक्षात्कार और विघ्नों का अभाव होता है।
ईश्वर का मनन चिन्तन एवं ईश्वर के प्रति समर्पण भाव अर्थात् ईश्वर प्रणिधान का पालन करने से जीवात्मा, परमात्मा के समीप पहुंचकर, परमात्मा का साक्षात्कार करती है। परमात्मा का साक्षात्कार होने पर जीवात्मा को आत्मसाक्षात्कार की अनुभूति होती है एवं आत्मसाक्षात्कार होने पर, जीवात्मा के विघ्नों का अभाव अर्थात् विनाश होता है।
इस प्रकार योग दर्शनकार महर्षि पतंजलि ईश्वर के स्वरूप को सविस्तार समझाते हैं।
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