भारतीय दर्शन: सांख्य दर्शन |सांख्य दर्शन के सिद्धांत|Indian Philosophy: Sankhya Philosophy

भारतीय दर्शन: सांख्य दर्शन

भारतीय दर्शन: सांख्य दर्शन |सांख्य दर्शन के सिद्धांत|Indian Philosophy: Sankhya Philosophy


 

सांख्य दर्शन : (Sankhya Philosophy) 

 

यह सबसे प्राचीन दर्शन है। इसके प्राचीन होने का प्रमाण इस बात से भी मिलता है कि इसका वर्णन हमे संस्कृति, श्रुति व पुराण में मिलता है। सांख्य दर्शन सांख्य प्रवचन नाम से भी प्रसिद्ध हैं। सांख्य दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कपिल थे। इन्होने ईश्वरवाद की स्थापना नही की अर्थात् उनका विचार था। कि ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध नही किया जा सकता है। इसी कारण कपिल ने सांख्य को 'निरीश्वर सांख्य' भी कहा है। कपिल ने तत्वसमाज एवं 'सांख्य सूत्र' नाम विशद ग्रंथो की भी रचना की। सांख्य के समझ योगदर्शन ने ईश्वर के अस्तित्व के सबंधं में अपने विचारों का प्रतिपादन किया अतः 'सेश्वर सांख्य' कहते है

 

'सांख्य' नाम की उत्पत्ति कैसे हुई 

'सांख्यनाम की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों धारणा यह है कि सांख्य का बोध कराता है। चूंकि इस दर्शन मे तत्वों की संख्य निधारित की गई है। इस कारण इसे सांख्य कहा गया है। श्री भागवत मे इसको तत्व गणक भी कहा गया है। एक विचारधारा यह भी मानती है कि सांख्य का अर्थ सम्यक् ज्ञान और इसी अर्थ में यह दर्शन सांख्य दर्शन कहा जाता है।

 

महाभारत में इसे इसी अर्थ मे प्रयोग किया गया है। यह दर्शन सैद्धांतिक तत्वज्ञान का चर्चा करता है व इसका परस्पर सहयोगी योगदर्शन इस बात की विवेचना करता है कि वास्तव मे तत्वज्ञान को कैसे प्राप्त किया जा सकता है। सांख्य दर्शन द्वितत्व को भी प्रस्तुत करता हैं। इस द्वितत्व में वह प्रकृति तथा पुरुष का द्वैत प्रतिपादित करता है यथा

 

द्वित्व या द्वैतवाद- 

  1. प्रकृति
  2.  पुरुष


सांख्य दर्शन के सिद्धांत :

 

1. सत्यकार्यवाद 

सांख्य यह मानता है कि जगत का मूल प्रकृति से विकास हुआ है परंतु मुख्य प्रश्न यह है कि कार्य की सत्ता उसकी उत्पत्ति के पूर्व कारण में रहती है या नही। न्याय वैशेविक और बौद्ध दर्शन उत्तर देते है नहीं। इनका मानना है कि कार्य एक सर्वथा नई चीज है। परंतु सांख्य को यह सिद्धांत मान्य नही है। उसके अनुसार कार्य न एक नई उत्पत्ति है और न कारण मे उसका अभाव होता है। यह मानता है कि कारण और कार्य समान रूप के सत्य होते हैं और कार्य कारण का परिणाम होता है। तदानुसार एकमात्र वस्तु ब्रह्म है वह जगत का अधिष्ठान है और जगत उसका विवर्त है। इस प्रकार ब्रह्म सम्पूर्ण विवर्त का एकमात्र कारण है या अंतिम कारण है। ब्रह्म की पारमार्थिक सत्ता है।

 

सांख्य परिणामवाद को मानता है साथ ही यह सलार्थवाद का प्रतिपादन करता है। इनका मानना है कि कार्य वस्तुतः कारण मे विद्यमान रहता है। यदि ऐसा न हो तो हम बालू से भी मक्रणन निकाल सकते हैं। सत्यकार्यवाद का यही सिद्धांत है, जिसके दो रूप  है। 

1. परिणामवाद 

2. निवर्तवाद

 

परिणामवाद का अभिप्राय है कार्य की उत्पत्ति का अर्थ है कारण का वास्तव में रूपांतरित होना जैसे दूध का परिणाम दही।

 

2. सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति : 

सांख्य दर्शन जगत में प्रकृति को सभी बातो का मूल कारण मानता है। और समस्त विषयों का अनादि मूल स्रोत होने के कारण वह प्रकृति को नित्स व निरपेक्ष मानता है क्योकि सापेक्ष व अनित्य पदार्थ जगत का मूल कारण नही हो सकता है। मन, बुद्धि और अंहकार जैसे सूक्ष्म कार्यों का आधार होने के कारण प्रकृति एक गहन, अनंत और सूक्ष्म शक्ति है। जिसके द्वारा संसार की सृष्टि और लय का चक्र निरंतर प्रवाहित होता रहता है। सांख्य प्रकृति के अस्तित्व को सिद्ध करने हेतु निम्न प्रमाण देता है।

 

1. अनुभव की वस्तुयें कृतक है वे उन कारणों पर निर्भर है, जिनमें वे अत्यक्त अवस्था में रहती है। कारण मे कम से कम उतनी सत्यता रहनी चाहिए जितनी कार्य में रहती हैं। हर एक कार्य में एक कारण होता है।

 

2. दृश्य वस्तुएँ अनित्य और नाशवान है वे नष्ट होने पर अपने कारणों में लीन हो जाती है इसलिए जगत के आदि उपादान कारण को नित्य होना चाहिए ।

 

3. दृश्य वस्तुएँ परिछिनन परिणाम वाली है वे अविभु है, अध्यापक है कार्य कारण से व्याप्त रहता है। लेकिन कारण कार्य से व्याप्त नहीं रहता। कारण कार्य की अपेक्षा अधिक व्यापक है, उदाहरणार्थ-दूध कारण है और उससे मक्खन, घी, दही, पनीर, खोआ, क्रीम, मिठाई आदि निकालना कार्य।

 

4. दृश्य वस्तुएँ सक्रिय व गतिशील होती है। इसलिए उनका आदि कारण निष्क्रिय और गतिहीन होना चाहिए। प्रकृति परिणमनशील है लेकिन उसमें गति नही हैं।

 

5. दृश्य वस्तुएँ नाना, कृतक, परतंत्र, सावयव और व्यत्त है इसलिए जगत का आदि कारण एक अकृतक, स्वतंत्र, निरवयव और अव्यक्त होना चाहिए ।

 

3.सांख्य दर्शन के अनुसार  पुरुष या आत्मा : 

सांख्य मानता है कि आत्मा का अस्तित्व स्वयं सिद्ध है और इसकी सत्ता का किसी प्रकार खंडन नही किया जा सकता। सांख्य पुरुष को निगुर्ण विवेकी, निरवयव व ज्ञाता मानता है साथ ही यह भी मानता है कि पुरुष प्रत्येक शरीर मे भिन्न है। पुरूष को वह चेतन, अपरिणामी, अपरिवर्तनशील, निष्क्रिय व कूटस्थ नित्य भी मानता है। सांख्य अनेक पुरूषों का अस्तिव्व मानता है चूंकि अलग अलग व्यक्तियों के जन्म-मरण और इन्द्रियाँ अलग-अलग होते है। अलग-अलग शरीरों में अलग-अलग आत्मा होते है। सभी पुरुषों में नैतिक गुण भी अलग-अलग होते हैं। कुछ मे सत्व होता है तो कुछ मे रजस व तमस। सांख्य मत के अनुसार आत्मा शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि से भिन्न है। यह सांसारिक विषय नही है।

 

4. सांख्य दर्शन के अनुसार मोक्ष 

मोक्ष हमारा सांसारिक जीवन सुख-दुःख से परिपूर्ण है और व्यक्ति इनका भोग करता है। साधारणतया जीवन में तीन प्रकार के दुःख होते हैं।

 

1. आध्यात्मिक 

2. आधिभौतिक 

3. आधिदैविक

 

मानव दुःख से स्वयं को परे रखना चाहता है परंतु यह नश्वर शरीर सदैव ही दुखों के जाल से घिरा रहता है। मनुष्य का यह प्रयास होना चाहिए कि वह दुखों की निवृत्ति करे और दुखों की निवृत्ति ही मोक्ष कहलाती है। मोक्ष सुख रूप नही है बल्कि दुःख की आत्यन्तिक हानि है। धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थ है, क्योंकि यह नाशवान हैं। मोक्ष परम् पुरुषार्थ हैं क्योंकि यह निध्य हैं।

 

मोक्ष दो प्रकार का होता हैं-

 

1. जीवन्मुक्ति 

2. विदेहमुक्ति

 

जीवन्मुक्ति मे संस्कार शेष रहते हैं और उनका सबंधं शरीर से रहता है। जबकि विदहेमुक्ति मे संस्कार भी नष्ट हो जाते है और शरीर भी 


5.सांख्य दर्शन के अनुसार  ईश्वर : 

सांख्य को हम दो भागों में विभक्त करते है।

 

1. सनातन सांख्य अनीश्वरवादी

 2. वास्तविक सांख्य ईश्वरवादी

 

सांख्य के कुछ टीकाकार ईश्वर के अस्तित्व के विरोध में मत देते है। वह वेदों की सत्ता में विश्वास रखते हैं। तथा ईश्वर के अस्तित्व विहीन होने की चर्चा नही करते परंतु यह अवश्य कहते है कि एक संसार को समझने हेतु प्रकृति व पुरुष पर्याप्त हैं, तो ईश्वर का प्रश्न नही उठाना जाना चाहिए। 

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