न्याय दर्शन क्या है |न्याय शब्द का शाब्दिक विवेचन |न्याय दर्शन का शैक्षिक महत्व | Nyay Darshan Importance

न्याय दर्शन, न्याय शब्द का शाब्दिक विवेचन, न्याय दर्शन का शैक्षिक महत्व

 

न्याय दर्शन क्या है  |न्याय शब्द का शाब्दिक विवेचन |न्याय दर्शन का शैक्षिक महत्व | Nyay Darshan Importance



न्याय दर्शन क्या है  : 

न्याय दर्शन के प्रवर्तक महर्षि गौतम थे जिन्हे गौतम व अक्षपाद के नाम से भी जाना जाता है। न्याय को हम निम्न भागों में बाँटते है।

 

1. ज्ञान शास्त्र 

2. हेतु विद्या या कारणो का विज्ञान 

3. वाद् विद्या या वाद-विवाद का विज्ञान 

4. आन्वीक्षिकी या आलोचनात्मक अध्ययन का विज्ञान

 

भाष्य मे न्याय का अर्थ परमारर्थो परीक्षम् न्याय बताया गया है। अर्थात् प्रमाणों या पदार्थों के आधार पर अर्थ की परीक्षा ही न्याय है। कुछ विद्वान न्याय को 'नीधातु से निष्पन्न मानते हैं।

 

भारतीय दर्शन शास्त्र मे तर्कशास्त्र के लिए भी न्याय शास्त्र का प्रयोग किया जाता है। न्याय प्रधानतः तर्क का विचार करता है। साथ ही वह भौतिक जगत के स्वरूप जीवात्मा तथा परमात्मा के स्वरूप का भी दार्शनिक विवेचन करता है। न्याय वस्तुवादी दर्शन है और इसका प्रतिपादन विशेषतः युक्तियों के द्वारा माना गया है। 


न्याय शब्द का शाब्दिक विवेचन इस प्रकार किया जाता है-

 

न्याय-उचित या वांछनीय : 

इस संदर्भ में न्याय दर्शन विचारों की शुद्धता पर ध्यान देता है और इसी कारण हम जब न्याय दर्शन को तर्क शास्त्र के अर्थ में अवलोकित करते है तो उसके अन्तर्गत सुतर्क को अवलोकित करते हैं। केवल तर्क या कुतर्क को नही । विद्वानों की यह भी मान्यता है कि न्याय शास्त्र के अध्ययन द्वारा हम व्यक्ति की युक्तियुक्ति विचार करने तथा आलोचनात्मक दृष्टि से सोचने-समझने की शक्ति का विकास कर सकते है।

 

न्याय दर्शन के अनुसार बाह्य वस्तुओं का अस्तित्व ज्ञाता से स्वंतत्र रहता है। अर्थात वह हमारे ज्ञान पर निर्भर नही है। 


न्याय का विचार है कि प्रमाण यथार्थ ज्ञान के कारण है और मुख्य रूप सें चार प्रमाण होते है।

 

1. प्रत्यक्ष 

2. अनुमान

3. उपमान 

4. शब्द

 

1. प्रत्यक्ष ज्ञान 

न्याय ज्ञान या बुद्धि को अर्थों की उपलब्धि या चेतना व अनुभाव कहता है। इसके अनुसार वस्तुओं के साक्षात् या आरोप ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते है और इसकी उत्पत्ति वस्तु तथा ज्ञानेन्द्रियों के संयोग से होती है। यथार्थ ज्ञान जिसे कि प्रभा कहा गया हैवस्तुओं को उसी रूप मे ग्रहण करता है। जिस रूप मे वह हैयह स्मृति को प्रभा नहीं मानते। इनके अनुसार स्मृति पहले के ज्ञान का स्मरण मात्र है। स्मृति से भिन्न ज्ञान को अनुभव मानते हैं। न्याय संशयद्व भ्रम व तर्क को अप्रभा मानते है। प्रमाण प्रभा का कारण या साधन है। अप्रभा अनुभव नही है। स्मृति अनुभव न होने के कारण अप्रभा है। अप्रभा वस्तु के सच्चे स्वरूप की उपलब्धि नहीं करती। अप्रभा का विषय यथार्थ नही होता।

 

इन्द्रिय जन्य ज्ञान की दो अवस्थायें मानी जाती हैं। प्रथम अवस्था मे इन्द्रिय तथा पदार्थ के संसर्ग से जो ज्ञात होता हैवह निश्चित तो होता है परंतु अवर्णनीय होता हैं। दूसरी अवस्था मे ज्ञान पदार्थ की जाति व उसके गुण स्पष्ट होते हैं। और इसे हम सजिकल्प प्रत्यक्ष कहते है।

 

धर्म कीर्ति में प्रत्यक्ष ज्ञान के 4 प्रकार बताये गये है-

 

1. इन्द्रिय जन्य ज्ञान 

2. मानसिक ज्ञान 

3. आत्म चेतना 

4. अर्न्तदृष्टि

 

2. अनुमान (परोक्ष ज्ञान)

अनुमान परोक्ष ज्ञान है दो वस्तुओं की व्याप्ति के आधार पर उनमे से एक वस्तु के ज्ञान से दूसरी वस्तु का ज्ञान होना अनुमान हैं। इस प्रकार ज्ञान को अनुमान इस कारण कहा जाता है चूंकि यह किसी अन्य ज्ञान के बाद अनुभव होता हैं। 

अनुमान का शाब्दिक अर्थ अग्र प्रकार किया जाता हैं -

  • अनु - पश्चात 
  • मान - ज्ञान

 

इसी कारण विद्वानगण अनुमान को परोक्ष ज्ञान भी कहते हैं। न्याय-शास्त्र यह मानता है कि सभी प्रकार का ज्ञान प्रत्यक्ष द्वारा अर्जित नही किया जा सकता और अनुमान प्रत्यक्ष ज्ञान का पूरक है।

 

अनुमान मे न्याय दर्शन के अनुसार भूतभविष्यवर्तमान और दूरस्थ वस्तुओ का समवेश होता है। जबकि प्रत्यक्ष मे इस स्थान व इस काल को समहित किया जाता है।

 

3. उपमान : 

न्याय दर्शन के अनुसार उपमान तीसरा प्रमाण है यह वह है जिसके द्वारा हम एक प्रसिद्ध वस्तु सार्ध्य के आधार पर नवीन वस्तु का ज्ञान प्राप्त करते है या इसके द्वारा संज्ञा-संसि सम्बंध का ज्ञान होता है। अर्थात् इसके द्वारा किसी नाम तथा उसके नामों के सम्बंध का ज्ञान होता है। एक आदमी है जिसने नील गाय कभी नहीं देखी किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उसे बताया जाता है कि नील गाय कदकाठी व रंग मे इस प्रकार से होती है। कभी वह एक ऐसा पशु देखता है जो गाय के समान है तो उसे उस व्यक्ति का कथन याद आ जाता है और वह जान लेता है कि गाय के सदृश्य यह नील गाय ही है यही उपमान हैं।

 

4 शब्द 

न्याय ने शब्द को एक स्वतंत्र प्रमाण माना है। शब्द का अभिप्राय है आप्त पुरूष का वचन"। आप्त पुरूष का अभिप्राय है वह व्यक्ति जो सत्य का ज्ञाता और सत्य का वक्ता है। ऐसा पुरुष जो कुंछ कहता है। उसका अर्थ समझकर किसी बात को जानना शब्द प्रमाण हैं। वास्तव में शब्दो और वाक्यो मे जिन वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त होता है उसे शब्द कहते है। 


न्याय दर्शन का शैक्षिक महत्व :

 

न्याय दर्शन ने प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा के विभिन्न पक्षो को प्रभावित किया है। अब हम इस बात पर विचार करेंगे कि न्याय दर्शन ने शिक्षा के उद्देश्यशिक्षणविधि पाठ्यक्रम के सबंधं मे क्या चर्चा की है।


शिक्षा के उद्देश्य :

 

1. बालक को इस योग्य बनाना कि वह सत्य का अनुसरण कर सके। 

2. बालक की तर्क शक्ति का विकास करना। 

3. वेदों के अस्तित्व में विश्वास रखना। 

4. बालक की ईश्वर भक्ति मे आस्था उत्पन्न करते हुए उनके अंदर धार्मिक दृष्टिकोण उत्पन्न करना। 

5. मानव जीवन में ज्ञान का प्रज्वलन करना | 

6. शिक्षा द्वारा बालक को मोक्ष प्राप्ति हेतु तत्पर करना और इसके लिए उनमे आत्मानुभूति का विकास करना।

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