शिक्षा का सामाजिक दर्शन शास्त्र |स्वतंत्रता की अवधारणा अर्थ परिभाषा दार्शनिकों के विचार| Social philosophy of education
शिक्षा का सामाजिक दर्शन शास्त्र
स्वतंत्रता की अवधारणा अर्थ परिभाषा दार्शनिकों के विचार
शिक्षा का सामाजिक दर्शन शास्त्र
स्वतंत्रता का अर्थ :
अनुशासन प्रत्येक देश और प्रत्येक समाज के जीवन के लिये सबसे अमूल्य विधि है। विद्यालय में जितना महत्वपूर्ण स्थान, अनुशासन का है, उतना ही स्वतंत्रता का भी है। बालक को विचार अध्ययन, निरीक्षण आदि की स्वतंत्रता होनी चाहिए, ताकि उसका बौद्धिक विकास हो। उसे खेलकूद और अन्य शारीरिक क्रियाओं की स्वतंत्रता होनी चाहिए, ताकि शिक्षक उनका अवलोकन करके बालक के स्वभाव आदतों, चारित्रिक विशेषताओं आदि से परिचित होकर उसको निर्देशन दे सकें।
ब्राउडी के अनुसार स्वतंत्रता के अभाव में व्यक्ति की निर्माण करने की शक्ति और संभव कार्यों में साझेदारी सीमित हो जाती है। प्रत्येक व्यक्ति संभव कार्य का शक्तिशाली निर्माता है। उसकी शक्ति को सीमित करना संभव कार्य को स्वयं व्यक्ति को सीमित करना है।
स्वतंत्रता की अवधारणा :
स्वंत्रतत्रा शब्द का अंग्रेजी पर्याय लिबर्टी लेटिन भाषा के Liber शब्द से बना है, जिसका अर्थ है-मुक्त या स्वतंत्र या बंधनों का अभाव । यदि शाब्दिक अर्थ को मानकर चलें तो स्वतंत्रता का अर्थ है-इच्छानुसार कार्य करने की स्वतंत्रता परंतु स्वतंत्रता का यह अर्थ अनुपयुक्त है, क्योंकि सभ्य समाज में व्यक्ति को मनमाने ढंग से कार्य करने की स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती है। ऐसा करने पर समाज में जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली स्थिति उत्पन्न हो जायेंगी।
स्वंत्रतत्रा की परिभाषाएं :
मेकेन्जी :
स्वतंत्रता सभी प्रकार के प्रतिबंधों का अभाव नहीं है, वरन् अनुचित प्रतिबंधों के स्थान पर उचित प्रतिबंधों की व्यवस्था है।
जी. डी. एच. कोल :
बिना किसी बाधा के अपने व्यक्तित्व को प्रकट करने के अधिकार का नाम स्वतंत्रता है।
टी. एच. ग्रीन :
स्वतंत्रता उन कार्यों को करने या उन वस्तुओं के उपयोग करने की शक्ति है, जो कि करने या उपभोग योग्य है।
स्वतंत्रता के सम्बंध में विभिन्न दार्शनिकों के विचार :
स्वतंत्रता के संबंध में दार्शनिकों के विचारों में मतभेद है। एक तो विचार यह है कि व्यक्ति कुछ संस्कारों के साथ उत्पन्न होता है। यह संस्कार ही इसके जीवन कार्य निर्धारित करते हैं। अतएव व्यक्ति का जीवन उसके उत्पन्न होने के समय निर्धारित हो जाता है। व्यक्ति इन संस्कारों के संदर्भ में ही स्वतंत्र समझा जाता है। इस विचार धारा के अनुसार व्यक्ति स्वयं अपने कार्य का उत्तरदायी नहीं है। भाग्यवादी भाग्य को ही सब कार्य का उत्तरदायी मानते हैं।
अरस्तु का विचार था कि बालक ऐसी प्रवृत्तियों के साथ उत्पन्न होता है जो न अच्छी है न बुरी। वह तो ऐसा कच्चा माल है, जिन्हें प्रशिक्षण द्वारा अच्छा या बुरा कुछ भी बताया जा सकता है। उसका विचार था कि नैतिक प्रशिक्षण के लिए व्यक्ति को शक्ति द्वारा अच्छे कार्य करने को बाध्य करना चाहिए। शक्ति का प्रयोग उस समय तक होना चाहिए शक्ति का प्रयोग उस समय तक होना चाहिए, जब तक कि अच्छी आदतें न बन जायें।
रूसो महोदय शक्ति के प्रयोग को अच्छा नहीं समझते। वह कहते हैं कि बालक को स्वतंत्र छोड़ दो। उसे कोई आदेश न दो। समाज व्यक्ति की स्वतंत्रता पर नियंत्रण लगा देता है। बालक के नैतिक विकास के लिए इन नियंत्रणों को दूर करना आवश्यक है।
कांट का कहना है कि सब नैतिक कार्य स्वतंत्र कार्य होते हैं। वह किसी बाहरी कर्ता द्वारा नहीं निर्धारित होते हैं। जब व्यक्ति नैतिकता से कार्य करता है तो कर्ता अपनी तार्किक प्रकृति द्वारा ही निर्धारित होता है। उसके कार्य स्वयं निर्धारित होते हैं। अतएव वह स्वतंत्र होते हैं। कांट मानते हैं कि जब व्यक्ति नैतिक कार्य करते हैं तो वह एक ऐसा नियम मानते हैं जो स्वयं उनसे ही प्राप्त होता है।
शिक्षा देने में कांट कहते हैं कि बालक का प्रारम्भिक प्रशिक्षण ऐसा होना चाहिए कि इसमें उचित आदतों पूर्ण रूप से आज्ञा के द्वारा विकसित की जायें। फिर धीरे-धीरे उसे स्वतंत्रता की ओर ले जाया जाये।
ड्यूवी के कारण नैतिकता सामाजिक है। हम कहते हैं उसके लिये उत्तरदायी ठहराये जाते हैं और यदि दूसरे हमारे कार्य को पसंद नहीं करते तो वह अपनी अस्वीकृति दिखाते है। इस प्रकार समाज हमारे कार्य और विश्वास पर प्रभाव डालता है।
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