अष्टांग योग |अष्टांग योग का विस्तार से अध्ययन | Ashanga Yoga Details in Hindi
अष्टांग योग का विस्तार से अध्ययन (Ashtanga Yoga Details in Hindi)
अष्टांग योग का विस्तार से अध्ययन
महर्षि पतंजलि ने अपने योग
सूत्रों में योग तथा योगांगों के विभिन्न पहलुओं को क्रमबद्ध रूप से प्रतिपादित
किया है, जिससे साधक
भलीभांति अवगत हो सके और अपना सर्वांगीण विकास करते हुए, अपने परम लक्ष्य को
प्राप्त करने में समर्थ हो सके ।
अष्टांग योग
- अष्टांग योग साधकों के लिए महत्वपूर्ण और परम उपयोगी दर्शन है। इसमें अन्य दर्शनों की भांति खंडन-मण्डन के लिए युक्तिवाद का अवलम्बन न करके सरलतापूर्वक, बहुत ही कम शब्दों में योग के व्यावहारिक पहलू का निरूपण किया गया है। योग के अंगों के अनुष्ठान होने पर अशुद्धि का नाश होकर ज्ञान के प्रकाश, विवेक व ख्याति की प्राप्ति होती है । अष्टांग योग को महर्षि पतंजलि के द्वारा परिष्कृत ढंग से प्रतिपादित किया गया है। जिसमें उन्होंने योग के आठ अंगों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इन अंगों से पंचक्लेशों अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष व अभिनिवेश का नाश होता है।
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावंगानि
। (पा.यो. सूत्र/29)
योग के ये आठ अंग हैं
1. यम
2. नियम
3. आसन
4. प्राणायाम
8. समाधि जो स्थिर हो जाए
5. प्रत्याहार
7. ध्यान अगर लग जाये
6. धारणा
7. ध्यान
8. समाधि
- इन सब योगांगों का पालन किए बिना कोई भी व्यक्ति योगी नहीं हो सकता। यह अष्टांग योग केवल योगियों के लिए ही नहीं अपितु जो भी व्यक्ति जीवन में पूर्ण सुखी होना चाहता है तथा प्राणिमात्र को सुखी देखना चाहता है, उन सबको अष्टांग योग का पालन करना परम उपयोगी साधन है । अष्टांग योग धर्म, अध्यात्म, मानवता एवं विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरता है। अष्टांग योग में जीवन के सामान्य व्यवहार से लेकर ध्यान एवं समाधि सहित अध्यात्म की उच्च अवस्थाओं का अनुपम समावेश है। यदि कोई व्यक्ति अपने अस्तित्व की खोज में लगा है तथा जीवन के पूर्ण सत्य से परिचित होना चाहता है, तो उसे अष्टांग योग का अवश्य ही पालन करना चाहिए ।
पतंजलि योग दर्शन में दिए गए योग के आठ अंगों के बारे में विस्तार से चर्चा करते हैं:
महर्षि पतंजलि ने योग के
समूचे क्षेत्र को दो भागों में विभक्त किया है-
अष्टांग योग
- बहिरंग योग -यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार
- अंतरंग योग-धारणा, ध्यान, समाधि
बहिरंग योग से क्या तात्पर्य है?
1. बहिरंग योग -
बहिरंग योग का तात्पर्य उन अभ्यासों से है जिनका उद्देश्य बाहरी तौर पर मानव जीवन का परिशोधन करना है। इसके माध्यम से क्रमशः सामाजिक, वैयक्तिक, शारीरिक, प्राणिक व इन्द्रियगत शुद्धि करना संभव है । जिसमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार आते हैं ।
2. अंतरंग योग -
अंतरंग योग
के अभ्यास (धारणा, ध्यान व समाधि)
में साधक का उद्देश्य आत्म जागृति व विवेक ख्याति की प्राप्ति है। बहिरंग योग और
अंतरंग योग परस्पर आश्रित होते हैं। साधनों में साधक को इन अंगों का सम्बन्धित
अभ्यास करते हुए आगे बढ़ना आवश्यक होता है। धारणा, ध्यान व समाधि तीनों को महर्षि पतंजलि का संयम
भी कहते हैं।
समझदार साधक वही माना जाता है जो धैर्यपूर्वक धीरे-धीरे अष्टांग योग के सभी अंगों का अभ्यास करता है। अष्टांग योग के अंगों का अभ्यास समूह में किया जाए तो बड़ा लाभ होता है क्योंकि साधक को कुछ समय तक अन्य साधकों के साथ रहने का अवसर मिलता है तथा उसे समुचित वातावरण भी प्राप्त होता है। प्रारंभ के कुछ महीने या वर्ष साधक किसी अच्छे योग अध्यापक के पवित्र सानिध्य में रहकर साधना करे तथा अपने शरीर और मन को परिस्थिति के अनुकूल कर ले जिससे आगे चलकर कठिनाई का सामना न करना पड़े।
अष्टांग योग के आठ अंगों के नाम और वर्णन कीजिये ।
1 यम
आठ अंगों में प्रथम अंग
है- यम । यम से अभिप्राय है- सामाजिक नियम व अनुशासन । यम को महाव्रत भी कहा जाता
है। व्रत से तात्पर्य होता है 'शपथ के रूप में लिया गया संकल्प । इस प्रकार महाव्रत का
अर्थ हुआ सर्वमान्य सार्वभौम व्रत । यानि ऐसा संकल्प जो हर समय, हर स्थान पर और हर देश
में पालन करने योग्य है। योग-मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए यम, नींव के पत्थर के समान
है। इसके पालन से ही योग की भव्य इमारत का निर्माण संभव हो पाता है। आइए, यम के बारे में विस्तार
से जानकारी प्राप्त करें :
यम पांच हैं-
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा
यमाः ।। (पा.यो.सू. 2/30)
1. अहिंसा
2. सत्य
3. अस्तेय
4. ब्रह्मचर्य
5. अपरिग्रह
1. अहिंसा:
- अहिंसा का अर्थ है – बुद्धि, वाणी और शरीर से किसी भी प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट न देना।
- सभी प्राणियों से प्रेम करना, दूसरों का अहित न करना, जीव हत्या न करना, दूसरों को कष्ट न पहुँचाना, शत्रुता के विचारों को मन में न आने देना तथा दूसरों को किसी भी प्रकार की हानि न पहुँचाना, आदि अहिंसा के दायरे में आता है।
- 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' अर्थात् सभी भूतों (प्राणियों) में एक ही आत्मा को देखना। ऐसी अनुभूति से जब जीवन रंग जाता है तब किसी प्राणी के द्वारा कष्ट, अपमान और हानि पाकर भी उत्तेजित न होना, अहिंसा की असली साधना है।
- 'अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः' (पा.यो.सू. 2) अर्थात् अहिंसा में दृढ़ व्यक्ति के आस-पास संपूर्ण वैर भाव का त्याग हो जाता है। अहिंसा की पूर्ण प्रतिष्ठा हो जाने पर उस महाव्रती के संपर्क में आने वाले हिंसक पशु भी हिंसा का त्याग कर देते हैं, यह अहिंसा का मापदंड है।
2. सत्य
- सत्य के पथ पर चलने वाला साधक सत्य और केवल सत्य कथन ही करता है। उसका कहा सौ प्रतिशत सही होता है। सत्य के पालन द्वारा उसके भीतर एक शक्ति का जागरण होता है। जब साधक का मन, दर्पण के समान निर्मल होता है तो उसकी वाणी सिद्ध हो जाती है। सत्य का पालन करने से साधक अपने कर्मों का इच्छित फल प्राप्त करने में सक्षम होता है। वह अपनी आध्यात्मिक शक्ति द्वारा बोलने के पूर्व प्रत्येक शब्द को तौलता है। इस तरह वह अपनी वाणी पर नियंत्रण रखता है। किसी भी बात को बुद्धि से निश्चय करना, फिर उसे वाणी द्वारा प्रकट करना और अंत में वैसा ही व्यवहार करना पूर्ण सत्य होता है।
- अन्तःकरण और इन्द्रियों द्वारा जैसा निश्चय किया हो, हित की भावना से, बिना किसी भेदभाव के प्रिय शब्दों में वैसे का वैसा ही प्रकट करने का नाम 'सत्य' है।
3. अस्तेय
- मन, वचन तथा कर्म द्वारा किसी प्रकार से भी किसी के हक को न चुराना, या न छीनना अस्तेय है।
- सबसे अच्छी बात यह है कि मनुष्य भगवान के द्वारा दिये गये द्रव्य आदि का ही उपभोग करे, और माता-पिता, आचार्य तथा सत्पुरुषों के द्वारा मिले द्रव्यों (वस्तुएँ) पर संतोष करें, परन्तु द्रव्य की अभिलाषा कभी न करें ।
'परद्रव्येषु लोष्ठवत्'
अर्थात् दूसरे के द्रव्य
को मिट्टी के समान समझे। इसी को अस्तेय कहा गया है।
4. ब्रह्मचर्य
- ब्रह्म + चर्या = अर्थात ब्रह्म अनुरूप जीवन शैली ।
- ब्रह्म सबसे बड़ी सत्ता को कहते हैं तथा चर्य का तात्पर्य रहना होता है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य का अर्थ ब्रह्म में विचरना होता है। परन्तु इसका व्यावहारिक अर्थ है - तमाम विषयों पर रोक । मन, इंद्रियों और शरीर द्वारा होने वाले काम विकार के सर्वथा अभाव का नाम ब्रह्मचर्य है । किसी भी प्रकार से विषय भोग- भावना बुद्धि में उत्पन्न न होने देना ब्रह्मचर्य का पालन करना है ।
- पाँचों ज्ञानेन्द्रियों और पाँचों कर्मेन्द्रियों पर नियंत्रण रखना ब्रह्मचर्य कहलाता है।
5. अपरिग्रह
- अपरिग्रह का अर्थ है - संचय न करना ।
- सत्य की खोज करने वाला, अहिंसा बरतने वाला परिग्रह ( संचय) नहीं कर सकता । परमात्मा परिग्रह नहीं करता। अपने लिए जरुरी चीज़ वह रोज़ की रोज़ पैदा करता है । इसलिए अगर हम उस पर भरोसा रखते हैं, तो हमें समझना चाहिए कि हमारी ज़रूरत की चीजें वह प्रतिदिन देता है और देगा।
- मुख्य रूप से हम समझ सकते हैं कि – शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि से संबंधित किसी भी भोग सामग्री का संग्रह न करना अपरिग्रह है, या दूसरे शब्दों में कहें कि आवश्यकता से अधिक संचय ना करना अपरिग्रह कहलाता है।
2 नियम
यम के बाद अगला अंग है 'नियम' । नियम वैयक्तिक अनुशासन
व आत्म परिशोधन है। नियम के अंतर्गत हम देखेंगे कि हमें अपने आप से कैसा व्यवहार
करना चाहिए। अपने आप से व्यवहार करने से अभिप्राय है कि हम अपने शरीर को कैसा रखें, अपनी बुद्धि को कैसा रखें, कैसे उन्हें शुद्ध व
पवित्र रखते हुए अपनी शक्तियों को बढ़ाएं अर्थात् अपना उत्थान और कल्याण कैसे
करें। नियम पाँच हैं।
शौचसंतोषतपः
स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ।। (पा.यो. सू. 2 / 32 )
1. शौच ( पवित्रता)
2. संतोष
3. तप
4. स्वाध्याय
5. ईश्वर - प्रणिधान
1. शौच-
शौच से अभिप्राय है-
शुद्धता - पवित्रता । इसे दो भागों में बांटा जा सकता है. (i) बाह्य शुद्धि (ii) आंतरिक शुद्धि ।
i) बाह्य शुद्धि – (प.यो. द.
2 / 40 ), -
बाह्य शुद्धि में बाहर की वस्तुएं, बाहर का वातारण, हमारा शरीर और रहन-सहन इत्यादि आ जाता है। जहां तक घर की सफाई, रख-रखाव इत्यादि का प्रश्न है, कई लोग इसमें बड़े निपुण होते हैं। अपनी सभी चीजों को सफाई से रखते हैं शारीरिक स्वच्छता से अभिप्राय है- अपने शरीर को व्याधियों से मुक्त रखना, सभी = अंग प्रत्यंगों को निरोग एवं पुष्ट रखना, सात्विक आहार से युक्त रखना, प्रतिदिन योगाभ्यास द्वारा शरीर के मलों को निष्कासित करते रहना, यह सभी बाह्य शुद्धि में आता है।
ii) आंतरिक शुद्धि - (प.यो.
द. 2 / 41 ) -
- बाह्य के साथ-साथ आंतरिक शुद्धि, जिसे हम अनदेखा करते रहते हैं, का भी बड़ा महत्व है। आंतरिक शुद्धता से अभिप्राय है 'मन की स्वच्छता, यानि हमारे मन में दूसरों के प्रति ईर्ष्या-द्वेष न हो। हम स्वार्थी या विषयों के प्रति लालायित न बने रहें । अहंकार, ममता, राग, द्वेष, ईर्ष्या, भय आदि दुर्गुणों के त्याग से भीतरी पवित्रता आती है।
2. संतोष-
संतोषादनुत्तमसुखलाभः (पा. यो. सू. 2/42 )
संतोष से जो सुख प्राप्त
होता है, वह सबसे उत्तम
सुख है। संतोष को ही मोक्ष सुख भी कहते हैं । सुख-दुःख, लाभ-हानि, यश - अपयश, सिद्धि- असिद्धि, अनुकूलता प्रतिकूलता आदि
के प्राप्त होने पर सदैव संतुष्ट प्रसन्नचित रहने का नाम संतोष है। व्यावहारिक
जीवन में लोभ, मोह, राग, आशा आदि के वशीभूत न होकर
सदा संतोष का आश्रय ग्रहण करना चाहिए।
संतोषपूर्ण जीवन के लिए
किसी कवि ने कहा है. -
गोधन, गज धन, बाजिधन, और रतन धन खान
जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान ।।
3. तप-
- मन और इन्द्रियों के संयमरूप धर्म पालन करने के लिए कष्ट सहना तथा व्रतादि का अनुष्ठान करते रहना ही तप कहलाता है। ( प. यो. द. 2 / 43 )
- आत्मदर्शी महापुरुषों का, गुरुजनों का विशेष विद्वानों का यथायोग्य सत्कार करना, • शुद्धि और सरलता रखना, ब्रह्मचर्य और सत्य-अहिंसा का पालन करना भी तप कहलाता है। तप से पापों का नाश होता है तथा सिद्धियां प्राप्त होती हैं।
4. स्वाध्याय -
- जिस अध्ययन प्रक्रिया को दैनिक जीवन में अपनाने से 'स्व' को (अपने आपको) जानने समझने में सहायता मिले, वही स्वाध्याय कहलाता है।
- कल्याणप्रद शास्त्रों का अध्ययन और अपने इष्ट के नाम का जप, सुमिरन, पठन- यूनिटन एवं गुणानुवाद करने का नाम भी स्वाध्याय है। अपने इष्ट के स्वरूप को बुद्धि में धारण कर अपने अन्तःकरण में उनका गुणानुवाद करना स्वाध्याय साधना की एक विधि है। इससे अहंकार मिटता है, अन्तःकरण शुद्ध होता है तथा 'स्व' को जानने की क्षमता का विकास होता है। ( प. यो. द. 2 / 44 )
5. ईश्वर - प्रणिधान
- आप ईश्वर के जिस स्वरुप को मानते हो, अपने सभी कर्म उसी ईश्वर को अर्पण करते जाना तथा उन कर्मों के फलों को भी अपने भगवान के चरणों में अर्पण कर देना ही ईश्वर प्रणिधान कहलाता है। ईश्वर प्रणिधान में भावना यह होती है कि यह सब भगवान के आदेश पालन हेतु कर रहा हूँ। इस प्रकार बुद्धि से, वाणी से, शरीर से जितने भी पुण्य कर्म किये जायें वे सब उस भगवान को समर्पित करते जाना पूर्ण ईश्वर-प्रणिधान है।
3 आसन
मनुष्य जीवन में शरीर की ऐसी स्थिति जिसमें 'स्थिरता और सुख का आभास हो उसे 'आसन' कहते हैं ।
'स्थिरसुखमासनम् ।' (पातंजल योगसूत्र 2/46)
- सुखपूर्वक स्थिरता से बहुत समय तक एक ही शारीरिक स्थिति में बैठे रहने का नाम 'आसन' है। इस सूत्र में मुख्यतः ध्यानात्मक आसन की बात कही गयी है।
- कम से कम एक प्रहर (3 घंटे का समय) तक एक आसन में सुखपूर्वक स्थिर और अचल भाव से बैठने को 'आसन सिद्धि' कहते हैं।
- आसन विशेष प्रकार की शारीरिक मुद्रायें हैं जो मन और शरीर को स्थैतिक खिंचाव के द्वारा स्थिरता प्रदान करती हैं। इनका उद्देश्य तंत्रिका पेशीय खिंचाव और साधारण पेशीयतान में उचित सामन्जस्य स्थापित करना है। आसनों को करने के दो मूलभूत सिद्धांत हैं- सुखानुभूति और स्थिरता। इसका तात्पर्य है कि आसनों की प्रवृत्ति केवल शारीरिक न होकर मनोशारीरिक है। प्रत्येक आसन सहजता के साथ क्षमतानुसार करना चाहिए। शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक स्वास्थ्य लाभ करने के लिए योगासन अत्यन्त उपयोगी हैं। अतः शारीरिक क्षमता एवं लोच को बढ़ाने के लिए उपयोगी योगासनों का अभ्यास भी करना उचित बताया गया है।
- योगासनों द्वारा आन्तरिक अवयवों की मालिश हो जाती है। अतः पूर्ण रूप से स्वस्थ रहने के लिए आसन लाभकारी हो जाते हैं ।
आसन के लाभ
- योगासन के द्वारा शारीरिक ढांचे व उसमें अन्तर्निहित संपूर्ण मांसपेशियों का व्यायाम होता है।
- शरीर सुंदर, स्वस्थ, सुडौल तथा लचीला बन जाता है।
- मांसपेशियों में अपूर्व बल आता है।
- अधिक से अधिक कार्य करने पर भी थकावट नहीं होती।
- आसनों के नियमित अभ्यास से सभी नस-नाड़ियों में रक्त का संचार आसानी से होने लगता है।
- शरीर को ऊर्जा मिलती है जिससे व्यक्ति तनाव मुक्त, व्याधि मुक्त, कष्ट मुक्त होकर श्रेष्ठ जीवन व्यतीत कर सकता है ।
4 प्राणायाम
- प्राण का अर्थ- जीवनी शक्ति है, और "आयाम" का अर्थ है खिंचाव, विस्तार, फैलाव, विनियमन, आत्मसंयम अथवा नियंत्रण । इस प्रकार, प्राण का विस्तार करना तथा उसको बढ़ाना प्राणायाम कहलाता है। यदि सामान्य रूप से हम कहें तो "प्राणायाम श्वास लेने की योग कला है"
- महर्षि पतंजलि ने विशेष रूप से सांस लेने तथा बाहर छोड़ने की प्रक्रिया को नियंत्रित करने के रूप में प्राणायाम को परिभाषित किया है।
- तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः (पा.यो. सूत्र 2/49) अर्थात् आसन के सिद्ध हो जाने पर श्वास-प्रश्वास की गति का स्वतः रुक जाना 'प्राणायाम' कहलाता है। इस प्रकार प्राणायाम श्वसन क्रिया की एक तकनीक है जो सांस लेने वाले अंगों को तीव्रता से, लयबद्धता तथा गहनता के साथ क्रियाशील बनाती है।
इससे पहले आपको पूरक, रेचक तथा कुम्भक को समझना आवश्यक है
- पूरक क्रिया द्वारा लंबी गहरी श्वास देर तक अंदर ली जाती है।
- रेचक द्वारा श्वास देर तक बाहर छोड़ी जाती है ।
- कुम्भक द्वारा श्वास को रोका जाता है।
- पूरक श्वसन संस्थान को उद्दीप्त करता है। रेचक दूषित तथा विषैली वायु को बाहर निकालता है। कुम्भक संपूर्ण शरीर के भीतर ऊर्जा का वितरण करता है।
- प्राण तथा मानसिक दबाव, मानसिक दबाव तथा बौद्धिक शक्ति, बौद्धिक शक्ति तथा आत्मा, आत्मा तथा ईश्वर के बीच घनिष्ठ संबंध होता है। इस प्रकार, प्राणायाम का उद्देश्य शरीर में प्रेरणा, प्रोत्साहन, नियंत्रण तथा ओजस्वी शक्ति को संतुलित करना है। प्राणायाम के बिना योग परिपूर्ण नहीं होता। जिस प्रकार शरीर को स्वच्छ एवं शुद्ध करने के लिए स्नान करना आवश्यक है। इसी तरह से मस्तिष्क को तरो-ताजा एवं शुद्ध करने के लिए प्राणायाम आवश्यक है।
प्राणायाम के लाभ
- प्राणायाम का अभ्यास करने से फेफड़े मजबूत होते हैं।
- अधिक से अधिक मात्रा में शरीर में आक्सीजन पहुँचती है।
- मन की चंचलता दूर होती है।
- प्रश्वास की धारा के साथ शरीर के विकार निकलते हैं।
- शरीर और मन की शुद्धता होती है।
- प्राणायाम के द्वारा भावनाएं नियंत्रित होती हैं जो कि स्थिरता, एकाग्रता तथा मानसिक संतुलन प्रदान करता है।
- प्राणायाम के अभ्यास से साधक के फेफड़ों की क्षमता बढ़ती है तथा अधिकतम वायु संचार करने में फेफड़े सक्षम होते हैं।
यद्यपि पातंजल योग सूत्र
में किसी भी प्राणायाम का नाम उल्लेखित नहीं किया गया है, फिर भी हठयोग के ग्रन्थों
में महत्वपूर्ण प्राणायाम के नाम निम्नलिखित हैं
1. उज्जायी
2. शीतली
3. सीत्कारी
4. चन्द्रभेदी
5. सूर्यभेदी
6. भस्त्रिका
7. प्लावनी
8. भ्रामरी
9. मूर्च्छा
10. केवली
5 प्रत्याहार
महर्षि पतंजलि ने प्रत्याहार को इस प्रकार परिभाषित किया है-
स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्यस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः(पा. यो. सूत्र 2/54 )
- अपने-अपने विषयों के संग से अलग होने पर, इन्द्रियों का चित्त के रुप में विलय हो जाना 'प्रत्याहार' है। प्रत्याहार के द्वारा साधक का इंद्रियों पर पूर्ण अधिकार हो जाता है शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गंधादि की आसक्ति व्यक्ति को आत्म कल्याण के रास्ते से दूर हटाती है। इन्द्रियों की आसक्ति मन को विचलित कर देती है। इसलिए अभ्यास और वैराग्य द्वारा यथार्थ बोध से ही प्रत्याहार सिद्ध होने पर, इन्द्रियजय होता है। फिर साधक को भगवान में प्रीति, परम रस व परम सुख का अनुभव होने लगता है।
- प्रत्याहार के साधन मानसिक शक्ति को विकसित करते हैं प्रत्याहार के अभ्यास से इन्द्रियां वश में हो जाती हैं। महर्षि पतंजलि कहते हैं- ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम् । (पा.यो. सूत्र 2/55) अष्टांग योग के अंतरंग का प्रवेश द्वार प्रत्याहार है।
6 धारणा
देशबंधश्चित्तस्य धारणा ।
(पा. यो. सूत्र 3 / 1 )
- नाभिचक्र, हृदयकमल आदि शरीर के भीतरी देश हैं और आकाश या सूर्य-चन्द्रमा आदि देवता या कोई भी मूर्ति तथा कोई भी वस्तु, बाहर के देश हैं, उनमें से किसी एक देश में चित्त की वृत्ति को लगाने का नाम 'धारणा' है।
- धारणा का अर्थ है - 'धारण करना'। मन में जब किसी विषय को धारण करने की योग्यता आ जाए, और कुछ देर तक उस विषय पर टिकने का अभ्यास हो जाये तो मन की वैसी अवस्था धारणा है। धारणा में मन का विचरण व स्थान सीमित और निश्चित रहता है। धारणा के अभ्यास से मानसिक शक्ति का विकास होता है। मानसिक एकाग्रता के लिए यह उत्तम साधन है।
- अष्टांग योग के उपर्युक्त अंग का अभ्यास चित्त एकाग्र करने का उपाय कहा जा सकता है। इस प्रकार मन को स्थूल विषय से प्रारंभ कर, सूक्ष्म लक्ष्य आत्मा-परमात्मा पर केन्द्रित करने को धारणा कहते हैं। धारणा, ध्यान की नींव है। जैसे-जैसे धारणा का अभ्यास परिपक्व होगा, वैसे-वैसे ध्यान का अभ्यास भी साथ-साथ होने लगेगा।
7 ध्यान
तत्र प्रत्ययैकतानता
ध्यानम् । (पा. यो. सूत्र 3
/ 2)
जिस ध्येय वस्तु में चित्त को लगाया जाए, उसी में चित्त का एकाग्र हो जाना अर्थात् केवल ध्येय मात्र की एक ही तरह की वृत्ति का प्रवाह चलना, उसके बीच में किसी भी दूसरी वृत्ति का न उठना 'ध्यान' कहलाता है।
अथवा
- यदि सरल शब्दों में कहें तो चित्त की निरंतर सजगतापूर्वक एकाग्र रहने की क्रिया को ध्यान कहते हैं।
- ध्यान हमारे जीवन के साथ प्रतिपल जुड़ा हुआ है। भारतीय संस्कृति में तो ध्यान शब्द प्रत्येक क्रिया से जुड़ा होता है जब भी हमारे घर व परिवार के बड़े बुजुर्ग किसी कार्य को विधिवत संपन्न करने हेतु कहते हैं तो सर्वत्र यही वाक्य होता है भाई ध्यान से पढ़ना, ध्यान से चलना, प्रत्येक कार्य को ध्यान से करना। आज हम ध्यान शब्द का प्रयोग तो करते हैं, परन्तु यह ध्यान क्या है, उस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है। लेकिन जीवन के प्रत्येक कार्य के साथ जुड़े इस ध्यान शब्द से हम यह तो जान ही सकते हैं कि ध्यान जीवन का अपरिहार्य अंग है, जिसके बिना जीवन अधूरा है, और हम ध्यान के बिना अपने किसी भी भौतिक व आध्यात्मिक लक्ष्य में सफल नहीं हो सकते। ध्यान से ही हम सदा आनंदमय व शांतिमय जीवन जी सकते हैं।
- अपने आंतरिक जीवन के साथ लय, व सामंजस्य स्थापित करना ही ध्यान है। ध्यान द्वारा ही चेतना का विकास, इंद्रियों पर नियंत्रण तथा अपने ज्ञान व प्रकाश स्वरूप से सारूप्य स्थापित होता है।
8 समाधि
तदेवार्थमात्रनिर्भासं
स्वरूपशून्यमिव समाधिः ।। (पा. यो. सूत्र 3 / 3 )
- ध्यान करते-करते जब चित्त ध्येयाकार में परिणत हो जाता है, तथा उसके अपने स्वरूप का • अभाव सा हो जाता है, और उसको ध्येय से भिन्न उपलब्धि नहीं होती, उस समय उस ध्यान का नाम 'समाधि' हो जाता है।
- ध्यान ही जब केवल अर्थ या ध्येय (आत्मा या ईश्वर के स्वरूप या स्वभाव) को प्रकाशित करने वाला तथा अपने स्वरूप से शून्य हो जाता है तब उसे 'समाधि' कहते हैं
- समाधि वह अवस्था है, जहाँ साधक चेतना के उस बिंदु पर पहुँचता है जिससे परे कोई चेतना नहीं होती। यह चेतना का गहनतम स्तर है जहाँ व्यक्तित्व का बोध तो समाप्त हो जाता है पर अन्तर्बोध व सर्वबोध की शुरुआत हो जाती है। यह सजगता की वह उच्च अवस्था है, जहाँ साधक का मन भी कार्य नहीं करता और वह परम् शून्य की अवस्था को प्राप्त कर लेता है। जैसे अग्नि के बीच लोहा डालने पर वह भी अग्नि रूप हो जाता है, इस प्रकार परमेश्वर के दिव्यज्ञान आलोक में आत्मा प्रकाशमय होकर, शरीर भाव से ऊपर उठकर स्वयं को परमेश्वर के आनंद स्वरुप और पूर्ण ज्ञान में 'परिपूर्ण' हो जाती है, जिसे समाधि कहते हैं।
- समाधिस्थ को कोई भी अस्त्र-शस्त्र काट या छेद नहीं कर सकता। कोई मनुष्य, हिंसक पशु एवं विषैले जीव उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते। उस पर मारण- उच्चाटन मंत्र-तंत्र का भी प्रभाव नहीं होता और किसी भी प्रकार की वासना उसे फँसा नहीं सकती। योग से अष्ट सिद्धियाँ भी प्राप्त हो जाती हैं। (समाधि के लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा एवं ध्यान की सिद्धि एवं युक्ताहार-विहार अनिवार्य है, एकाएक समाधि लगाना उचित नहीं है )
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