श्रीमद भागवत गीता के अनुसार भक्तियोग | Bhaktiyog According Bhagvat Geeta

श्रीमद भागवत गीता के अनुसार भक्तियोग

श्रीमद भागवत गीता के अनुसार भक्तियोग | Bhaktiyog According Bhagvat Geeta



भक्तियोग का अर्थ एवं विशेषताएँ 

 

  • भक्तियोग प्रेम की उच्च पराकाष्ठा है। ईश्वर के प्रति अत्यधिक प्रेम ही भक्ति है जब व्यक्ति संसार के भौतिक पदार्थों से मोह त्याग कर अनन्य भाव से ईश्वर की उपासना करता है तो वह भक्ति कहलाती है ।

 

  • भक्ति शब्द संस्कृत व्याकरण के 'भज् सेवायाम धातु में 'क्तिन प्रत्यय लगाकर भक्ति शब्द बनता है जिसका अर्थ सेवापूजा उपासना और संगतिकरण करना आदि होता है। भक्ति भाव से ओतप्रोत साधक पूर्ण रूप से ब्रह्मईश्वर के भाव में भावित होकर सर्वतोभावेन तदरूपता की अनुभूति को अनुभव करता है।

 

  • भक्तियोग की सबसे बड़ी विलक्षणता है कि जब भक्त भगवान के प्रति सर्वथा समर्पित हो जाता हैअपने आपको भगवान को दे देता हैतो फिर करना - करवाना सब भगवान के द्वारा ही होता है। उस स्थिति में भक्त केवल निमित्तमात्र बनता है। अतः भक्तियोग के प्रकरण में भगवान ने अपने प्रिय भक्त अर्जुन से कहा कि यहां सेना में जितने भी योद्धा लोग खड़े हैंवे सब मेरे द्वारा पहले से ही मारे हुए हैं। इनके मारने में तू निमित्तमात्र बन जा-निमित्तमात्र भव । (11:33 )

 

भक्तियोग के अधिकारी - 

सभी प्राणी चाहे कैसा भी दुराचारी हो बिना किसी अपवाद के भगवान की भक्ति कर सकता है। कारण कि भगवान का अंश होने से मात्र प्राणियों का भगवान के साथ अखंडअटूट और नित्य संबंध है। प्रायः प्राणी मात्र से गलती यह हुई कि उन लोगों ने जो अनित्य है उनसे तो पूरा आसक्ति का संबंध बना लिया और जो नित्य तत्व हैं (ईश्वर) जो खास अपने हैंउनको अपना मानना छोड़ दिया।

 

भक्त के प्रकार:- 

श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार भक्त के भेद के परिप्रेक्ष्य में आप समझ सकते हैं-

 

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन । 

आर्तोजिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।। गीता (7 / 16 )

 

अर्थात् हे भरतवंशी अर्जुन। चार प्रकार के पुण्यशाली मनुष्य मेरा भजन करते हैं यानि उपासना करते हैं। वे हैं आर्तजिज्ञासुअर्थाथी तथा ज्ञानी ।

 

1. आर्त भक्त – 

शिक्षार्थियों आप द्रोपदी के चीर हरण की कथा का स्मरण कीजिए । द्रोपदी ने दुःशासन द्वारा चीर हरण के दौरान आर्त भाव से भगवान कृष्ण को पुकारा है और भगवान कृष्ण स्वयं उसकी रक्षा के लिए प्रकट हुए। तात्पर्य है कि आर्त भक्त वो कहलाते हैं जब वे गम्भीर संकट में फंस जाते हैं तो वे अपने आराध्य को आर्त भाव से पुकारते हैं और उसकी शरण में जाते हैं।

 

2. जिज्ञासु भक्त - 

जिज्ञासु जैसा नाम से स्पष्ट है कि ईश्वर के विषय में जिज्ञासा रखने वाले- अर्थात् आत्मा एवं ब्रह्मम को जानने की इच्छा रखने वाले भक्त जिज्ञासु भक्त कहलाते हैं।

 

3. अर्थार्थी भक्त- 

समस्त संसार के व्यक्ति इस श्रेणी में आते है ऐसे भक्त जो किसी सांसारिक वस्तुमकानजमीनधनस्त्री वैभवमान-सम्मानपरीक्षाओं में सफलता आदि के लिए अपने आराध्य को स्मरण करते हैं। ऐसे भक्त अर्थार्थी भक्त कहलाते हैं।

 

4. ज्ञानी भक्त - 

ज्ञानी भक्त ऐसे भक्त है जो आत्म-कल्याणब्रह्म की प्राप्ति के लिए अपने आराध्य को पूजते हैं।

 

उपरोक्त चार प्रकार के भक्तो में ज्ञानी भक्त श्रेष्ठ हैं।


 

  • इस श्लोक में भगवान कहते हैं कि पवित्र कर्म करने वाले अर्थार्थीआर्तजिज्ञासु और ज्ञानी ये चार प्रकार के मनुष्य मेरा भजन करते हैं। अर्थार्थी भगवान से ही अपनी धन की इच्छा पूरी कराना चाहता है। आर्त भगवान से ही अपना दुःख मिटाना चाहता है। जिज्ञासु भगवान से ही अपनी जिज्ञासा शान्त कराना चाहता है। किन्तु जब भक्त एवं भगवान के सिवाय कुछ भी नहीं चाहतातब वह ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त होता है। इन चार भक्तों में मुझमें निरंतर लगा हुआ अनन्य भक्तिवाला ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त श्रेष्ठ हैक्योंकि ज्ञानी भक्त को मैं अत्यंत प्रिय हूँ और वह मुझे अत्यंत प्रिय है। (7:17) ये चारों भक्त बड़े उदार हैं परन्तु ज्ञानी तो मेरा स्वरूप ही है-भक्त ऐसा मेरा मत है। कारण कि वह मुझसे अभिन्न है और जिससे श्रेष्ठ दूसरी कोई गति नहीं हैवह मुझमें ही दृढ़ स्थित है। (7:18)

 

  • तत्वज्ञानी में तो सूक्ष्म अहं रहता हैपर भक्त में अहं का सर्वथा नाश हो जाता है, इसलिए भगवान कहते हैं - 'ज्ञानी त्यात्मंव में मतम (7:18)। गीता में 'महात्माशब्द केवल भक्त के लिए ही आया है। इसी तरह 'उदार' 'युक्ततम'सर्ववित्आदि शब्द भी भक्त के लिए ही आये हैं।

 

गीता में भक्तियोग की महत्ता

 

1. श्रेष्ठ - 

भगवान में तल्लीन अन्तःकरण वाला श्रद्धावान भक्त संपूर्ण योगियों में श्रेष्ठ है स मे युक्ततमो मतः (6:47)। सांख्ययोगी और भक्तियोग में भक्तियोगी श्रेष्ठ है (12:2)। कारण कि विह नित्य निरंतर भगवान में ही लगा रहता है।

 

2. सुगम - 

भक्त का अर्पित किया हुआ पत्रपुष्पफलजल आदि भगवान स्वीकार कर लेते हैं किन्तु अगर किसी के पास पत्रपुष्पादि न हो तो वह जो कुछ करता है उसे भगवान के अर्पण करने से वह संपूर्ण बंधनों से मुक्त होकर भगवान को प्राप्त हो जाता है - पत्रं पुष्पं फलं तोयं. 9:26 से 28 ) कारण कि भगवान भावग्राही हैं अतः भक्त के भाव को ग्रहण कर लेते हैं।

 

3. शीघ्रसिद्धि – 

ईश्वर में लगे हुए चित्त वाले भक्त का उद्धार भगवान बहुत जल्दी कर - देते हैं - तेवामंह समुद्धर्ता .. (12:7)। कारण कि वह केवल भगवान के ही परायण रहता हैअतः उसका उद्धार करने की जिम्मेवारी भगवान पर आ जाती है।

 

4. पापों का नाश - 

  • अपने शरणागत भक्तों को शीघ्र ही भगवान संपूर्ण पापों से मुक्त कर देते हैं 'अहंतवा सर्वपापेभ्लो मोक्षयिष्यामि (18:66)

 

5. संतुष्टि - 

  • भगवान में मन लगाने पर भक्त संतुष्ट हो जाता है ( 10:9)। कारण कि भगवान में ज्यों-ज्यों मन लगता है उसे निरंतर संतोष होता है कि मेरे समय का सबसे अच्छा प्रयोग हो रहा है। सिद्ध हो जाने पर वह संतोष स्वतः ही रहने लगता है - संतुष्ट सततं योगी ( 12:14)। कारण कि उसको भगवान की प्राप्ति हो गयी होती है।

 

6. शान्ति की प्राप्ति 

  • भक्त परमशान्ति को प्राप्त हो जाता है – 'शान्तिं निर्वाणपरमाम - (6:15) 
  • 'शश्वच्छान्तिं निगच्छति (9:31) । कारण कि उसके आश्रम में केवल भगवान ही रहते हैं।

 

7. समता की प्राप्ति - 

  • अपने भक्त को भगवान वह समता देते हैंजिससे वह भगवान को प्राप्त हो जाता है- ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते´ (10:10) । कारण कि वे केवल भगवान की इच्छा एवं आज्ञा पालन में ही लगे रहते हैंभगवान के सिवाय कुछ भी नहीं चाहते।

 

8. ज्ञान की प्राप्ति - 

  • भगवान स्वयं अपने भक्त के अज्ञान का नाश करते हैं 'तेषामेवानुकम्पार्थ.. ज्ञानदीपेन भास्वता (10:11)। कारण कि चूंकि भक्त भगवान में ही हमेशा लगा रहता हैभगवान के सिवाय कुछ चाहता ही नहींअतः भगवान अपनी ओर से ही उसके अज्ञान का नाश करके भगवत्तत्वका ज्ञान करा देते हैं।

 

9. प्रसन्नता की प्राप्ति - 

  • भक्त का अन्तःकरण प्रसन्न स्वच्छ एवं प्रशांत हो जाता है ( 6:14 )। कारण कि वह भगवान का ध्यान करता रहता है।

 

भक्तियोग के लक्षण

भक्तियोग संपन्न करने हेतु भक्त बनना पड़ता है जिसके लक्षण गीता में इस प्रकार वर्णित है।

 

  • जो पुरुष....... द्वेषभाव से रहितस्वार्थरहितसबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहितअहंकार से रहितसुख दुखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात् अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला हैतथा जो योगी निरंतर संतुष्ट हैमन इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है- वह मुझमें अर्पण किए हुए मनबुद्धि वाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है (12:13, 14 )

 

  • जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्षअमर्षभय और उद्वेगादि से रहित हैं - वह भक्त मुझको प्रिय है। (12:15 )

 

  • जो पुरुष आकांक्षा से रहितबाहरभीतर से शुद्धचतुरपक्षपात से रहित और दुखों से छूटा हुआ है - वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है। (12:16 )

 

  • जो न कभी हर्षित होता हैन द्वेष करता हैन शोक करता हैन कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ संपूर्ण कर्मों का त्यागी है (अर्थात् राग-द्वेषरहित है) वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है। (12:17)

 

  • जो शत्रु मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी-गर्मी और सुख-दुखादि द्वन्द्वों में सम है और आसक्ति से रहित हैजो निंदा-स्तुति को समान समझने वालामननशील और जिस प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है- वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है। (12:18, 19)

 

  • गीता में ज्ञानयोग से पराभक्ति (प्रेम) की प्राप्ति (18:54) और कर्मयोग से ज्ञान की प्राप्ति (4:38) बतायी गई हैकिन्तु भक्ति से भगवान के दर्शनभगवत्तत्व का ज्ञान और भगवत्तत्व में प्रवेश- ये तीनों हो जाते हैं (11:54)। यह विशेषता भक्तियोग में ही हैदूसरे योग में नहीं । अतः भक्तियोग सबसे श्रेष्ठ एवं उत्तम मार्ग है और कलिकाल के लिए तो यह विशेष उपयोगी है । 

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