हठयोग का अर्थ एवं परिभाषा |हठ योग क्या है |Hath yog kya hai
हठयोग का अर्थ एवं परिभाषा ,हठ योग क्या है
प्रिय शिक्षार्थियों, पिछली यूनिट में आपने, अष्टांग योग के विषय में अध्ययन किया, जिसमें योग के आठ अंगों की चर्चा की गई – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ।आध्यात्मिक दृष्टि से योग का तात्पर्य 'समाधि' ही है । समाधि तक पहुंचने के लिए योग के विभिन्न पथ या परम्पराएं हैं जैसे- ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्मयोग, राज योग, मंत्रयोग, लय योग, हठयोग आदि ।
- हठयोग के आदि प्रणेता भगवान शिव माने जाते हैं। उन्हीं की परंपरा में मत्स्येन्द्रनाथ, गुरू गोरक्षनाथ, मीननाथ, भर्तृहरि आदि से लेकर स्वामी स्वात्माराम एवं गोपीचंद पर्यन्तनाथों ने इस परंपरा को जीवित रखा है। इस यूनिट में हम हठयोग पर चर्चा करेंगे ।
हठयोग की जानकारी
हठ' शब्द की उत्पति
- 'हठ' शब्द की उत्पति दो बीज मंत्र 'हं' तथा 'ठ' के योग से हुई है। सृष्टि में दो विपरीत धारायें या शक्तियां एक साथ कार्य करती हैं - ये हैं धनात्मक एवं ऋणात्मक । प्राण शक्ति का स्रोत - पिंगला नाड़ी है, जो शारीरिक क्रियाओं से संबंधित है! बीज मंत्र 'हं', पिगंला नाड़ी में प्रवाहित सूर्य प्रवाह का परिचायक है । मानसिक शक्ति का स्रोत, इड़ा नाड़ी है जो, बीज मंत्र ‘ठं' इड़ा नाड़ी में बहने वाले चन्द्र प्रवाह की ओर संकेत करता हैं। इन दोनों प्रवाहों के मध्य संतुलन लाने की विद्या को ही हठयोग कहते हैं। संतुलन की स्थिति में, प्राण का प्रवाह, आत्म शरीर में स्थित महत्वपूर्ण सुषुम्ना नाड़ी में प्रारंभ हो जाता है।
- हठयोग का प्रवर्तक, भगवान शिव को माना जाता है । तंत्र शास्त्रों के अनुसार, भगवान शिव ने सर्वप्रथम पार्वती को तंत्र का उपदेश दिया । इन्हीं तन्त्र आगमों से ही हठयोग की उत्पत्ति हुई । हठयोग विद्या की उत्पत्ति के समय के संबंध में, विद्वानों में बड़ा मतभेद है किन्तु सामान्यतया इसे सातवीं सदी के बाद का माना जाता है। इस विद्या को, परिष्कृत रूप में, समाज के सामने प्रस्तुत करने का श्रेय गुरु मत्स्येन्द्र नाथ तथा गुरु-गोरखनाथ को जाता है।
- हठयोग के महान आचार्यों में गुरु गोरखनाथ के अतिरिक्त स्वामी स्वात्माराम, महर्षि घेरण्ड तथा श्रीनिवास भट्ट आदि का भी बहुत महत्वपूर्ण स्थान है !
हठयोग के प्रमुख ग्रन्थ हैं -
गोरक्षसंहिता, शिव संहिता, हठयोग प्रदीपिका, घेरण्ड संहिता तथा
हठरत्नावामी आदि। हठयोग के ग्रंथों में योग के अंगों के विषय में मतभेद हैं।
राजयोग का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ, पतंजलि योग सूत्र, योग के आठ अंग मानता है। गुरुगोरखनाथ अष्टरांग योग से यम, नियम को हटाकर केवल छः
योगांग मानते हैं। स्वामी स्वात्माराम योग के चार अंग मानते हैं और घेरंड संहिता
के लेखक महर्षि घेरंड सप्तांग की ही चर्चा करते हैं । किन्तु सामान्यतः सभी एक बात
पर एकमत हैं कि हठयोग का शारीरिक पक्ष है तथा राजयोग मानसिक पक्ष है। स्वामी
स्वात्माराम अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थ में हठयोग को राजयोग का साधन मानते हैं -
प्रणम्य श्री गुरुनाथं स्वात्मारामेण योगिना ।
केवलं राजयोगाय हठविद्योपदिश्यते"।।
अर्थात् श्रीनाथ गुरु को प्रणाम करके, योगी स्वात्माराम केवल, राजयोग की लिए हठविद्या का उपदेश करते हैं।
हठयोग की परम्परा के अनुसार मनुष्य के अंदर दो शक्तियां प्राणशक्ति और मन शक्ति साथ-साथ कार्य करती है। किन्तु अधिकांश व्यक्तियों में ये शक्तियां सामान्यतः सुषुप्त एवं निष्क्रिय रहती हैं । हमारी शक्ति का अधिकांश भाग उपयोग ही नहीं हो पाता है। विज्ञान भी इस बात को मानता है कि मनुष्य का मस्तिष्क अपार शक्ति का केन्द्र है किन्तु उस संपूर्ण शक्ति का दस-पन्द्रह प्रतिशत ही मनुष्य उपयोग कर पाता है। योग विद्या मनुष्य की इस सम्पूर्ण शक्ति का सर्वाधिक उपयोग कर, उसे परम पुरुषार्थ मोक्ष तक पहुंचाने की ही कला है। योग मनुष्य की एकाग्रता शक्ति विकसित कर उसे मोक्ष तक पहुँचा देती है। योग में एकाग्रता शक्ति को विकसित करने का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है।
हठयोग का अर्थ एवं परिभाषा
यौगिक साहित्य के अनुसार
हठ दो शब्दों 'हं' और 'ठं' से मिलकर बना है। योग
शिखोपनिषद् में हठयोग की बहुत सुन्दर ढंग से व्याख्या की गई है-
हकांरेण तु सूर्यः स्यात् ठकारेणोन्दुस्च्यते ।
सूर्य चन्द्रमसौरेक्यं हठ इत्यभिधीयते ।।
'हं' से तात्पर्य हकार अर्थात् सूर्य स्वर तथा 'ठं' से तात्पर्य ठकार अर्थात् चन्द्र स्वर ।
सूर्य स्वर व चन्द्र स्वर
का एकीकरण हठयोग है।
इन दो दिव्य विग्रहों के
लिए, संस्कृत में कई
नामों का उल्लेख मिलता है यथा-
हठ = 'ह + "ठ'
हं - ठं
पिंगला- इड़ा नाड़ी
सूर्य स्वर- चन्द्र स्वर
शिव- शक्ति
ब्रह्म- जीव
जब इड़ा और पिंगला नाड़ी
एक समान चलने लगें, तो सुषुम्ना का
जागरण होता है और जब सुषुम्ना निरन्तर चलने लगती है तो शरीर में सूक्ष्म रूप में
विद्यमान कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होता है, जब यह कुण्डलिनी छः चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार में
जाकर परमशिव से मिलती है तो आध्यात्मिक अर्थों में यह हठयोग कहलाता है।
हठयोग की परिभाषायें
विभिन्न ग्रंथों में
हठयोग की चर्चा मिलती है और हठयोग को परिभाषित किया गया है। मुख्य परिभाषाओं का
उल्लेख यहां किया जा रहा है:
सिद्ध सिद्धान्त पद्धति
के अनुसार हठयोग की परिभाषा
हकारः कथितः सूर्य ठकारचन्द्र उच्यते ।
सूर्य चन्द्रमसोर्योगात् हठयोग निगधते ।।
अर्थात हकार सूर्य स्वर
और ठकार से चन्द्र स्वर चलते हैं। इन सूर्य और चन्द्र स्वरों को प्राणायाम आदि के
विशेष अभ्यास से प्राण की गति को सुषुम्ना में प्रवाहित करना ही हठयोग है।
श्रीमद्भगवद्गीता के
अनुसार के अनुसार हठयोग की परिभाषा
अपाने जुहहति प्राणं प्राणेऽपानं तथा परे ।
प्राणपानगती रुद्धवा प्राणायामपरायणाः ।। ( श्रीमद्भगवद्गीता 4 / 20 )
अर्थात् प्राण और अपान
वायु को प्राणायाम के अभ्यास के द्वारा मिलाकर सम कर लेना ही हठयोग है।
शिवसंहिता के अनुसार के अनुसार हठयोग की परिभाषा
प्राणपानौ नाद बिन्दु जीवात्मा, परमात्मनौ ।
मिलित्वा घटते यस्मसत्तस्माद् वै घट उच्यते ।। ( शिव संहिता 3/63 )
अर्थात् जिसमें प्राण और
अपान, नाद और बिंदु, जीवात्मा और परमात्मा एक
हो जाता है । उसी को घट अवस्था या हठयोग कहते हैं । जब प्राणायाम और बंध का अभ्यास
कर अपान को ऊपर खींचकर प्राण में मिलाया जाता है तो यह हठयोग साधना कहलाती है।
योग ग्रंथों में शरीर में
विद्यमान पांच प्राणों की चर्चा की गई है - उदान, प्राण, समान, अपान और व्यान । ये पांच प्राण हैं । ये शरीर में अलग-अलग
स्थानों के कार्यों एवं ऊर्जाओं का नियंत्रण व नियमन करते हैं । उदान मुख में, प्राण हृदय में, समान नाभि, अपान गुह्य प्रदेश एवं
व्यान संपूर्ण शरीर के क्रिया कलापों व ऊर्जा का नियंत्रण नियमन करता है। हठयोग
में इसी प्राण को प्राणायाम के माध्यम से मिलाकर मन को नियंत्रित किया जाता है।
प्राण तथा अपान का, समान में मिल जाना ही, हठयोग है ।
- नाद ब्रह्मांड में व्याप्त और विलग ब्रह्म का ही रूप है । बह्मा सृष्टि का आरंभ नाद से ही माना जाता है। नाद वह ऊर्जा है जो सभी तत्वों को उत्पन्न करने वाली है। ऊर्जा न कभी जन्मती है और न नष्ट होती है। इसी नाद का ज्ञान हो जाना ही हठयोग की साधना है।
- परिभाषाओं में जीवात्मा और परमात्मा के एक होने की प्रक्रिया को हठयोग कहा गया है । वस्तुतः जीवात्मा और परमात्मा एक ही हैं परन्तु अविद्या, अज्ञान के कारण वह अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं । अज्ञानवश जीवात्मा शरीर, इन्द्रियों को अपना स्वरूप समझ लेता है एवं दुःख भोगता है। हठयोग के माध्यम से जब अज्ञान हटता है तो उनके एक होने का आभास हो जाता है।
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