हठयोग मुद्रा प्रकार विधि एवं लाभ | Hatyog Mudra vidhi prakar laabh
हठयोग मुद्रा प्रकार विधि एवं लाभ
हठयोग मुद्रा प्रकार विधि एवं लाभ
ख) हठयोग मुद्रा
i) महामुद्रा
घेरण्ड संहिता में इसका वर्णन निम्नानुसार प्राप्त होता है -
पायुमूलं वामगुल्फे संपीडय दृढ़यत्नतः ।
याम्यपादं प्रासार्याथ करोपात्तपदाङ्गुति ।।
कष्ठ संकोचनं क५त्या भ्रुवोर्मध्यं निरीक्ष्येत् ।
पूरकैर्वायुं सम्पूर्य महामुद्रा निगद्यते ।।
अर्थात
बाईं एड़ी से गुदा प्रदेश को दबाएं और दाहिने पैर को फैलाकर उसकी अंगुलियों को हाथ से पकड़े और कंठ को सिकोड़ कर भौंहों के मध्य में दृष्टि लगाएं, यह 'महामुद्रा' कहलाती है।
महामुद्रा विधि
- सर्वप्रथम दोनों पैरों को सामने की ओर फैलाकर दंडासन की अवस्था में बैठते हैं। इसके बाद बाएं पैर को घुटने से मोड़ते हुए, बाईं एड़ी को मूलभाग (गुदा प्रदेश) में रखते हैं। दाहिना पैर सीधा रहता है, फिर दोनों हाथों को ऊपर उठाकर श्वास छोड़ते हुए आगे की ओर झुकते हैं और दोनों हाथों से दाहिने पैर के पंजे को पकड़ लेते हैं। फिर सिर को थोड़ा पीछे की ओर झुकाते हुए धीरे-धीरे श्वास लेते हैं। कुम्भक का प्रयोग करते हैं। दृष्टि दोनों भौंहों के मध्य में स्थिर रहती है।
- तत्पश्चात सिर नीचे करते हैं। दोनों हाथों को नीचे करते हैं। फिर दूसरे पैर को इसी क्रम से रखकर यह प्रक्रिया पुनः दोहराई जाती है।
लाभ
- यह चित्त को शांत करती है और मन की चंचलता को समाप्त करती है।
- यह मन को अन्तर्मुखी बनाती है।
- तंत्रिका तंत्र को संतुलित करती है।
- प्राण ऊर्जा को जागृत करती है।
- उच्च रक्तचाप एवं हृदय रोगियों का इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए।
- शरीर शुद्धिकरण से पूर्व इस महामुद्रा का अभ्यास नहीं करना चाहिए।
ii) विपरीतकरणी मुद्रा की विधि
घेरण्ड संहिता के अनुसार विपरीतकरणी मुद्रा की विधि का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि -
भूमौ शिरश्च संस्थाप्य करयुग्मं समाहितः ।
उर्ध्वपादः स्थिरो भूत्वा विपरीतकरी मता ।।
अर्थात् सिर भूमि में लगाकर दोनों हाथों का सहारा लेकर दोनों पावों को ऊपर उठाकर कुम्भक के द्वारा वायु को रोकें यही 'विपरीतकरणी मुद्रा' है।
विपरीतकरणी मुद्रा की विधि
- सर्वप्रथम पीठ के बल सीधे लेट जाते हैं। पैर सीधे एवं मिले हुए रहेंगे। दोनों हाथों की हथेलियों को बगल में रखेंगे। शरीर शिथिल छोड़ देंगे। फिर श्वास भरते हुए दोनों पैरों को घुटने से मोड़े बिना एक साथ ऊपर उठायेंगे। फिर नितम्बों को ऊपर उठायेंगे। कमर से थोड़ी मुड़ी हुई पैर थोड़ा सिर की और झुके रहेंगे। पैर आंखें की दृष्टि की सीध में रहेंगे। कुम्भक लगाकर रखेंगे। तत्पश्चात श्वास छोड़ते हुए वापस सामान्य अवस्था में आयेंगे।
लाभ
- यह अभ्यास वृद्धावस्था को दूर करता है;
- पाचन संस्थान को दुरुस्त करता है;
- थायराइड की क्रियाशीलता में संतुलन आता है;
- मस्तिष्क में रक्त संचार ठीक प्रकार से होने लगता है।
- कब्ज या अस्वस्थ हों तब इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए;
- उच्च रक्तचाप, हृदय रोगियों को इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए।
iii) शाम्भवी मुद्रा की विधि एवं लाभ
घेरण्ड संहिता में शाम्भवी मुद्रा का वर्णन निम्नानुसार है-
नेत्रान्तरं समालोक्य चात्मारामं निरीक्ष्येत् ।
सा भवेच्छाम्भवीमुद्रा सर्वतन्त्रेषंगोपिता ।।
अर्थात- दृष्टि को दोनों भौंहों के मध्य स्थिर कर 'स्वयं' पर अर्थात अपनी आत्मा पर ध्यान करें, यही 'शाम्भवी मुद्रा' है ।
शाम्भवी मुद्रा विधि
- किसी भी ध्यानात्मक आसन में सिर व मेरूदण्ड को सीधा करके बैठ जाते हैं। दोनों हाथ ज्ञान अथवा ध्यान मुद्रा में रख लेते है। आंखों को बंदकर शरीर को ढीला छोड़ देते हैं। चेहरे की संपूर्ण मांसपेशियों को शिथिल करते है। फिर आंख खोलकर सामने किसी बिंदु पर आंखों को एकाग्र करते हैं, तत्पश्चात आंखों की दृष्टि ऊपर भूमध्य में टिका देते हैं। श्वास लेकर कुम्भक का प्रयोग करते हैं। तत्पश्चात् श्वास छोड़ते हुए आंखों को सामान्य अवस्था में लेकर आते हैं। यह प्रक्रिया फिर से दोहराई जाती है।
लाभ
- मानसिक एकाग्रता का विकास होता है;
- आज्ञाचक्र के जागरण में सहायता मिलती है;
- मन और प्राण को संतुलित करता है।
- आंखें बहुत अधिक संवेदनशील होती है। अतः ज्यादा देर तक इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए ।
- जिन व्यक्तियों की आंखों का ऑपरेशन हुआ हो वो इसे न करें।
iv) काकी मुद्रा की विधि एवं लाभ
कौवे के समान मुख की आकृति होने से इस मुद्रा को काकी मुद्रा कहा जाता है। इसका वर्णन घेरण्ड संहिता में निम्नानुसार किया गया है-
काकचन्चुवदास्येन पिबेद्वायुं शनैः शनैः ।
काकी मुद्रा भवरैषां सर्वरोग बिनाशिनी ।।
अर्थात् मुख को कौवे की चोंच के समान करके उसके द्वारा धीरे-धीरे वायु का पान करें यह सब रोगों को नष्ट करने वाली काकी मुद्रा कहलाती है।
काकी मुद्रा विधि
सर्वप्रथम किसी भी सुविधाजनक ध्यानात्मक आसन में सिर एवं मेरूदण्ड सीधा करके बैठ जाते हैं। दोनों हाथों को ज्ञान मुद्रा में रख लेते हैं और आंखें बंदकर शरीर को शिथिल करते हैं। तत्पश्चात आंखें खोलकर दृष्टि को नासिकाग्र पर केन्द्रित करते हैं। कौवे की चोंच के समान मुख की आकृति बनाते हैं फिर जिहा के सहारे धीरे-धीरे मुख द्वारा वायु का पान करते हैं। फिर कुम्भक का प्रयोग करते हैं। तत्पश्चात नासिका से धीरे-धीरे श्वास छोड़ देते हैं। कुम्भक की अवस्था में आंखें बंद रहती है।
लाभ
- काकी मुद्रा से शरीर व मन में शीतलता का विकास होता है।
- मानसिक तनाव, चिंता कम होती है।
- समस्त प्रकार की बीमारियां दूर होती हैं।
- काकी मुद्रा का अभ्यास प्रदूषित वातावरण में नहीं करना चाहिए ।
- ठंड के मौसम में भी इसका अभ्यास नहीं किया जाता है।
v) अश्विनी मुद्रा विधि एवं लाभ
घेरण्ड संहिता में अश्विनी मुद्रा का वर्णन निम्नानुसार किया गया है -
आकुंचयेद गुदाद्वारं प्रकाशयेत् पुनः पुनः ।
सा भवेदश्विनीमुद्रा शक्तिप्रबोध कारिणी ।।
अर्थात - गुदाद्वार का बार-बार संकोच और प्रसार करें यह अश्विनी मुद्रा कहलाती है।
अश्विनी मुद्रा विधि
- किसी भी ध्यानात्मक आसन में सिर मेरूदंड सीधी करके बैठ जाते हैं। दोनों हाथ ज्ञान मुद्रा में रख लेते हैं। तत्पश्चात् गुदा को संकुचित करके पुनः उसको ढीला छोड़ देते हैं। गुदा को सुकोड़ने और फैलाने की क्रिया लयबद्धता के साथ की जाती है। प्रयत्न किया जाता है कि केवल गुदा द्वार का ही संकुचन होने चाहिए।
लाभ
- गुदा के स्नायुओं पर नियंत्रण स्थापित हो जाता है;
- गुदा द्वार संबंधी रोग होने की संभावना समाप्त हो जाती है।
- गुदा नाल में व्रण होने अथवा बवासीर से पीड़ित व्यक्ति इसका अभ्यास न करें।
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