भारतीय जीवन मूल्य |जीवन मूल्यों की स्थापना | Indian values of life in Hindi
भारतीय जीवन मूल्य (Indian values of life in Hindi)
भारतीय जीवन मूल्य
- भारतीय संस्कृति जीवन मूल्यों का पोषण, संरक्षण और उसके प्रचार-प्रसार करने वाली संस्कृति के रूप में विश्वविख्यात है। भारत की प्राचीन शिक्षण व्यवस्था में जीवन यापन की विविध विधाओं के साथ-साथ उच्च जीवन मूल्यों के शिक्षण की व्यवस्था भी थी। गुरुकुल जीवन मूल्यों के संवाहक, प्रसारक के रूप में कार्य करते थे। प्राचीन शिक्षा का आधार सत्य, अहिंसा, करुणा आदि मानवीय मूल्यों पर आधारित था। प्राचीनकाल में गुरुओं ने विद्यार्थियों में प्रेम, करुणा, दया का संचार तो किया ही, प्राणिमात्र के कल्याण की कामना भी की। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना यहीं पोषित और पल्लवित हई। भारत में आध्यात्मिक विकास के साथ-साथ चारित्रिक विकास पर बल दिया गया है। प्राचीन भारत में मनुष्यों में नैतिकता का विकास हो, दूसरों के प्रति प्रेम, सहानुभूति, दया, करुणा एवं सहयोग का भाव हो ऐसी मान्यता प्रचलित थी। भारतीय संस्कृति में उन्हीं विभूतियों को आदर्श माना गया है जिन्होंने उच्च मूल्यों को आधार | मानकर जीवन जिया हो, जैसे- राम, कृष्ण, बुद्ध, नानक, महात्मा गांधी आदि ।
- भारतीय संस्कृति प्राचीन होने के साथ-साथ सबको साथ लेकर चलने वाली, विस्तृत एवं विविधता से परिपूर्ण है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति के मूल में भारतीय दर्शन रहा है। जिसकी सुदृढ़ पृष्ठभूमि पर भारतीय जीवन मूल्य प्रतिष्ठित हुए। भारतीय दर्शन आध्यात्मिक विकास को केन्द्र बिन्दु मानकर व्यावहारिक सामाजिक विकास का पक्षधर रहा है। भारतीय समाज में जीवन मूल्यों का प्रमुख स्रोत धर्म-दर्शन ही रहा है। धर्म ही जीवन मूल्यों के प्रति अटल तथा अविचल आस्था उत्पन्न करता है। यहां धर्म से तात्पर्य किसी वर्ग विशेष, सम्प्रदाय की बात नहीं की जा रही है। यहां धर्म का अर्थ जीवन में धारण करने वाले मूल्यों से है। जीवन मूल्य से तात्पर्य जीवन दृष्टि या स्थापित वैचारिक इकाई से है। मूल्य स्वयं एक व्यवस्था है जो सम्बन्धों को सन्तुलित करके व्यवहारों में एकरूपता स्थापित करते हैं। मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण कहे गए हैं जो कि हर व्यक्ति को पालनीय हैं।
- मनुस्मृति में इनके विषय में कहा गया है- धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ।। अर्थात् धृति, क्षमा, दम (मन को वश में करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (पवित्रता), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को वश में करना), धी (बुद्धिमान होना), विद्या, सत्य एवं अक्रोध ये सभी धर्म के दस लक्षण हैं। योग जीवन मूल्यों का संवर्धन करने वाला रहा है। महर्षि पतंजलि ने भी पांच यमों को महाव्रतों की संज्ञा दी है। इन पांच महाव्रतों का पालन किसी भी देश, काल, परिस्थिति में किया जा सकता है। पांच यम- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह कहे गए हैं। जैन दर्शन में भी इनको पांच महाव्रतों के रूप में स्वीकार किया गया है। बौद्ध धर्म में भी शील, समाधि और प्रज्ञा के माध्यम से इन्हीं गुणों को धारण करने का संदेश दिया गया है।
आधुनिक समय में मूल्यों का ह्रास
- आधुनिकता एक प्रक्रिया है। हर समय परिवर्तन घटित होता रहता है। आज चारों तरफ जो वैज्ञानिक प्रगति, प्रौद्योगिक विकास, जीवन के रहन-सहन में उच्च स्तरीय परिवर्तन हुए हैं ये सभी आधुनिकता के परिचायक हैं। आधुनिकता का प्रभाव हमारे सम्पूर्ण जीवन पर पड़ा है किन्तु अब यह विकास भस्मासुर प्रतीत हो रहा है। भगवान शिव से वरदान पाकर भस्मासुर अन्त में अपने सिर के ऊपर हाथ रखकर स्वयं नष्ट हो जाता है। उसी प्रकार आज की आधुनिकता बिना विवेक के मनुष्य के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा रही है। आज के आधुनिक अर्थप्रधान युग में जीवन मूल्यों को नगण्य समझा जाने लगा है। आधुनिकीकरण और पश्चिमीकरण के अंधानुकरण में हमने अपने जीवन मूल्यों को खो दिया है। वर्तमान जीवन में जीवन मूल्यों की आवश्यकता को प्रत्येक मनुष्य अनुभव कर रहा है।
- सामाजिक जीवन में हम देखते हैं कि व्यक्ति एक दूसरे से प्रतियोगिता एवं एक दूसरे की नकल करने का प्रयत्न कर रहा है। हम आन्तरिक तौर पर कितने ही बुरे क्यों न हों, किन्तु बाहर से हम साज-संवार करने में कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। सभ्यता और फैशन के नाम पर उच्छृंखल होते जा रहे हैं। बालों की सजावट से लेकर नयी-नयी पोशाकों और आभूषणों पर सामर्थ्य से अधिक व्यय कर रहे हैं। नशे को हम अपने स्टेटस से जोड़कर देख रहे हैं। इस प्रकार की स्तरहीन सोच हमारे वैचारिक मूल्यों के स्तर में आई अवनति का परिणाम है।
- आधुनिक युग में हम मूल्यहीनता की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। भारतीय समाज में ही नहीं, विश्व के अन्य देशों में भी जीवन मूल्यों का अवमूल्यन हुआ है। मानव समाज में आज आतंकवाद, अलगाववाद, जातिवाद, रंगभेद, नस्लभेद जैसी समाज को बांटने वाली विचारधारा चल पड़ी है, जो मनुष्य के अस्तित्व के लिए संकट पैदा कर रही हैं। व्यक्तिगत, स्थानीय, राष्ट्रीय तथा वैश्विक स्तर पर भ्रष्टाचार, लूट, हिंसा, बलात्कार, पर्यावरणीय संकट बढ़े हैं, जिनका एक मात्र कारण जीवन मूल्यों में आई गिरावट ही है।
- मनुष्य जब इस संसार में आता है तो नवजात शिशु के रूप में विकार रहित निश्छल, कोरे कागज की तरह होता है। जैसे-जैसे बड़ा होता है तो वह परिवार, समाज से सीखने लगता है। परिवार में माता-पिता और समाज संस्कारी होगा तो स्वाभाविक है कि पुत्र भी उच्च आदर्शों से युक्त संस्कारी होगा। यदि परिवार, समाज दोनों ही संस्कारहीन, मूल्यहीन व भ्रष्ट होंगे तो आने वाली पीढ़ी संस्कारी होगी, ऐसी आशा करना निरर्थक है। अतः परिवार, समाज और राष्ट्र की पहचान वहां रह रहे व्यक्तियों के चरित्र से होती है। उच्च आदर्शों, जीवन मूल्यों से परिपूर्ण समाज का निर्माण करना है तो इन्हें अपने जीवन में धारण करने की आवश्यकता है। माली अपने बगीचे में नित्य जाता है तो उसकी साज सज्जा बनी रहती है। अगर कुछ दिन माली बगीचे में न जाये तो बाग उजड़ सा जाता है। आज हमारे जीवन के साथ भी कुछ इसी तरह से हो गया है। इसके साज संवार पर ध्यान देना अत्यन्त आवश्यक है। इस संदर्भ में एक उक्ति प्रचलित है, स्वास्थ्य चला जाये तो फिर से प्राप्त किया जा सकता है। धन चला जाये तो फिर से कमाया जा सकता है। परंतु चारित्रिक पतन हो जाए तो सब कुछ नष्ट हो जाता है। अर्थात् चरित्र के नष्ट होने पर फिर उसे बनाया नहीं जा सकता है।
जीवन मूल्यों की स्थापना
- वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों से ओतप्रोत हमारी भारतीय संस्कृति है। जीवन मूल्यों के अवमूल्यन के इस दौर में मूल्यों की स्थापना के लिए हमें अपनी संस्कृति की गौरव गरिमा की ओर झांकना होगा। हमारे ऋषियों ने अपने जीवन को दांव पर लगाकर जीवन के आदर्शों, व सिद्धान्तों को खोजा था। ऋषियों ने अपनी साधना और तप के बल पर जीवन मूल्यों की स्थापना की थी। अतः समस्या के समाधान के लिए हमें एक बार फिर से इन जीवन मूल्यों को स्थापित करने की आवश्यकता है।
- जीवन मूल्य-उपनिषदों में वर्णित ज्ञान भारतीय चिंतन की उत्कृष्टतम अभिव्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित है। उपनिषदों में जीवन के प्रत्येक आयाम के विकास हेतु श्रेष्ठतम उपायों का वर्णन किया गया है। मनुष्य की मुक्ति को केन्द्र मानकर रचे गये उपनिषदों में मानव जीवन के उच्चतम् मूल्यों का वर्णन किया गया है।
- क्या करणीय है, क्या अकरणीय है, उपनिषदों में इसका प्रतिपादन जीवन में पालन करने वाले सदाचरण के रूप में वर्णन किया गया है। “छान्दोग्यपनिषद्" में कहा गया है कि चोरी, मद्यपान, गुरु निंदक और ब्रह्मज्ञानी को मारने वाला और इनसे सम्बन्ध रखने वाला पतन को प्राप्त होता है। ऐसे कर्म करने चाहिए जिससे हमारा कल्याण हो । तैत्तरीयोपनिषद् में दीक्षान्त में आचार्य अपने शिष्य को शपथ दिलाता है कि सत्य धर्म का पालन करो! स्वाध्याय में प्रमाद न करो! माता-पिता व अतिथि का सत्कार करो! दान करो! हमारे सद्गुणों को धारण व अवगुणों को कभी धारण न करो ।
महर्षि पतंजलि द्वारा रचित पातंजल योग सूत्र में यम-नियमों के रूप में जीवनमूल्यों की शिक्षा दी है जो इस प्रकार हैं यम-यम पांच हैं- अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहायमाः । अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये सभी यम कहलाते हैं जिनका वर्णन निम्नानुसार आगे किया जा रहा है।
i) अहिंसा-
अहिंसा अर्थात् हिंसा न करना। मन, वचन एवं कर्म से किसी जीव को कष्ट न पहुंचाना ही अंहिसा कहलाती है।
ii) सत्य -
सत्य वचन को ही सत्य कहा है। शास्त्रों में कहा गया है कि "सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात-सत्यम् अप्रियम अर्थात् सदा सत्य बोलें, प्रिय बोलें ऐसा वचन न बोलें जो सुनने में अप्रिय हो । अतः सत्य को मधुर भाषा में बोलें कटु करके नहीं।
iii) अस्तेय-
अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना। परद्रव्यापहरणं त्यागोऽस्तेयम् अर्थात् बिना पूछे या बिना अनुमति के दूसरे व्यक्ति के किसी भी द्रव्य को लेने की इच्छा का परित्याग कर देना ही अस्तेय कहलाता है।
iv) ब्रह्मचर्य-
मन, वाणी और शरीर से होने वाले सभी प्रकार के मैथुनों का परित्याग कर देना ही ब्रह्मचर्य कहलाता है।
v) अपरिग्रह -
स्वार्थवश आसक्तिपूर्वक धन, सम्पत्तियों का संचय न करना ही अपरिग्रह कहलाता है।
नियम का अर्थ एवं व्याख्या
नियम भी पांच है यथा- शौचसन्तोषतपः स्वाध्याये श्वरप्रणिधानानि नियमाः । अर्थात् शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये नियम हैं।
i) शौच -
शौच का अर्थ है शुद्धता, पवित्रता । शौच दो प्रकार का होता है बाह्य और आन्तरिक । बाह्य शौच के अन्तर्गत शरीर की अशुद्धि को स्नानादि से शुद्ध करना बाह्य शौच कहलाता है तथा मन को पवित्र विचारों से शुद्ध करना आन्तरिक शौच कहलाता है।
ii) संतोष -
जो अपने पास है उसमें संतुष्टि अनुभव करना संतोष कहलाता है। संतोष का भाव लाने से मन की उदासी दूर हो जाती है।
iii) तप-
तपो द्वन्द्वसहनम् अर्थात् सब प्रकार के द्वन्द्वों को सहन करना ही तप कहलाता है। तप का पालन करने से मनुष्य में सहनशीलता का विकास होता है।
iv) स्वाध्याय -
मोक्ष शास्त्रों का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है। नित्य स्वाध्याय करने से विचारों में श्रेष्ठता बनी रहती है।
v) ईश्वर प्रणिधान-
- ईश्वर के प्रति शरणागति का भाव ही ईश्वर प्रणिधान कहलाता है।
उपरोक्त यम-नियमों का पालन करने से स्वयं के जीवन में उत्कृष्टता आती है, साथ ही समाज के अन्य लोगों को भी उससे लाभ प्राप्त होता है। इस प्रकार इन जीवन मूल्यों का आचरण हम सभी के लिए अनुकरणीय है। हम निम्न बिन्दुओं पर विचार कर सकते हैं:-
- हम अपनी संस्कृति को विश्व की प्राचीन संस्कृति मानते हुए गौरव का अनुभव करें।
- ऋषियों द्वारा खोजे गए ज्ञान-विज्ञान को अपने जीवन में आत्मसात् करने की कोशिश करें।
- प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को किसी से कम न समझें, क्योंकि इनमें मानव सभ्यता बचाने के सूत्र छिपे हुए हैं।
- प्राचीन दर्शन, संस्कृति और परम्परा को बिना जाने-समझे, अंधविश्वास, रूढ़ि न मान बैठें।
- भारतीय ऋषियों के ज्ञान को वर्तमान विज्ञान के पैमाने पर खरा उतारने के लिए प्रयासरत रहें ।
- हम अपने ज्ञान-विज्ञान को हीन और विदेशी ज्ञान को उच्चतम मानने के दुराग्रह में न फँसें ।
- उच्च आदर्शों को अपने जीवन में धारण करें। इनके पालन में तत्पर रहें। इस मान्यता पर अडिग रहें।
- योग के अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि को जीवन का अंग बनाकर, इनका पालन करें।
जीवन मूल्यों की स्थापना के लिए हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था में इन मूल्यों को प्राथमिक स्थान देना होगा । प्रत्येक पाठ्यक्रम में जीवन मूल्यों को सम्मिलित करने की आवश्यकता है। विद्या में प्रवीण, कुशल होना पाठ्यक्रम का उद्देश्य होता है। विद्या में पारंगत होने के साथ-साथ संस्कारी और व्यवहार कुशल, उच्च आदर्शों से युक्त नागरिक बन जाए, यही शिक्षा की सार्थकता है।
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