भारतीय परम्परा में योग का स्वरूप |महर्षि पतंजलि का परिचय | Maharishi Patanjil Biography in Hindi
महर्षि पतंजलिका परिचय
भारतीय परम्परा में योग का स्वरूप
- प्रिय शिक्षार्थियों, योग के स्वरूप को व्यवस्थित ढंग से समझने के लिए यह परम आवश्यक है कि, योग के ऐतिहासिक और दार्शनिक विकास क्रम को सही रूप में समझा जाये। पिछली यूनिट में आप, योग परिचय, उद्भव एवं इतिहास, योग के मुख्य पंथ और ग्रंथ आदि के विषय में अध्ययन कर चुके हैं। आप जान चुके हैं कि योग प्राचीन काल से मानव की संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। योग के इतिहास से यह स्पष्ट हो चुका है कि सभी प्राचीन ग्रंथों (वेदों, उपनिषदों, दर्शनों, भगवद् कथाओं, श्रीमद्भगवद्गीता आदि) में योग का उल्लेख मिलता है । आज योग पर, योग दर्शन, घेरण्ड संहिता, हठयोग प्रदीपिका, शिव संहिता, वशिष्ठ संहिता आदि मुख्य ग्रंथ सुप्रसिद्ध हैं, जिनके माध्यम से योग के सही स्वरूप को विस्तार से समझा जा सकता है । इन सभी ग्रंथों में पातंजल योग सूत्र, एक सुप्रसिद्ध योग ग्रंथ है, जिसमें सुव्यवस्थित एवं क्रमबद्ध तरीके से योग का वर्णन मिलता है । इस आर्टिकल में हम पातंजल योग सूत्र पर चर्चा करेंगे और योग की विचारधारा को व्यवस्थित रूप से समझने के लिए, इसके ऐतिहासिक एवं दार्शनिक पक्षों को समझेंगे ।
भारतीय परम्परा में योग का स्वरूप
भारतीय परम्परा में योग
का स्वरूप समझने के लिए हमें, भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं के विभिन्न आयामों पर विचार
करना आवश्यक है। आइये सबसे पहले ऐतिहासिक संदर्भों में योग के स्वरूप को समझे।
1 ऐतिहासिक संदर्भों में योग
- भारतीय परम्परा विश्व की सबसे प्राचीन परम्परा है, जो हमारे पूवर्जों की अनमोल धरोहर है। सिन्धु घाटी की सभ्यता विभिन्न दृष्टिकोण के माध्यम से विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता रही है। 1921-1922 में हुई खुदाई के दौरान प्राप्त योग सम्बंधी सामग्री, ध्यान मुद्रा में स्थित मूर्तियां तथा कई अन्य आसनों से सम्बंधित अवशेष इस बात का स्पष्ट संकेत करते हैं कि उस समय लोगों को योग के विभिन्न पहलुओं की जानकारी थी।
- यदि योग के आदि प्रवर्तक की चर्चा की जाये तो महाभारत के अनुसार सांख्य के आदि वक्ता कपिल और योग के आदि वक्ता हिरण्यगर्भ हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि हिरण्यगर्भ एक ऋषि थे । वैसे हिरण्यगर्भ का अर्थ परमात्मा भी है। जिन्होंने योग का प्रथम उपदेश किया और बाद में अन्य आचार्यों ने अपने-अपने ग्रंथों से योग प्रणाली का विस्तार दिया। पतंजलि महर्षि ने भी इसी क्रम में अपने योग सूत्रों को सुव्यवस्थित एवं क्रमबद्ध तरीके से उस समय उपलब योग प्रणालियों के आधार पर रचना की। इसी कारण महर्षि पतंजलि को योग सूत्र का सम्पादक या संकलन कर्ता कहा जाता है।
- उपरोक्त आधार पर यह बिल्कुल स्पष्ट है कि, हिरण्यगर्भ ही एक मात्र ऐसे पहले ऋषि हुए जिन्होंने सर्वप्रथम योग की आधारशिला रखी। और पातंजल योग सूत्र के बाद अन्य कोई योग का ऐसा ग्रंथ प्राप्त नहीं होता, जिसके द्वारा योग का इतना व्यवस्थित स्वरूप प्राप्त हो सके। इस प्रकार वेद, उपनिषद, महाभारत आदि ग्रंथों और सिन्धु घाटी की सभ्यता से प्राप्त तथ्यों के आधार पर योग की ऐतिहासिक स्थिति स्पष्ट हो जाती है।
2 दार्शनिक संदर्भों में योग
- प्रिय शिक्षार्थियो, ऐतिहासिक संदर्भों में योग को जानने के पश्चात्, इसके दार्शनिक पक्ष पर विचार करें। भारतीय दार्शनिक विचारधाराओं ने, इसके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सबसे पहले हम, वैदिक विचारधारा पर नजर डालें, तो योग का उल्लेख ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद में अनेक स्थानों पर मिलता है। इस प्रकार सांकेतिक रूप से योग का स्वरूप, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, वेदों में देखने को मिलता है। हमारे सभी दर्शन वेदों में अपनी प्रमाणिकता सिद्ध करते हैं। योग के साक्ष्य वेदों में मिलने के कारण, हम यह कह सकते हैं कि, योग भी वेद सम्मत है ।
- यदि हम अन्य दर्शनों पर दृष्टि डालें, तो वहाँ भी योग, विस्तार से देखने को मिलता है। बौद्ध जैन आदि अवैदिक कहे जाने वाले दर्शनों में भी योग के साक्ष्य प्राप्त होते हैं।
- आप समझ सकते हैं कि जिस दर्शन में साधना है, वहाँ साधना के केन्द्र में योग है। और योग, प्रत्येक दर्शन की उपासना पद्धति का महत्वपूर्ण अंग है।
2 योग सूत्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि का परिचय
योग पर बहुत से ग्रंथ
लिखे गये जिनमें, सार रूप में बहुत
सी जानकारियाँ उपलब्ध होती हैं। इन ग्रंथों में योग परक विभिन्न दार्शनिक
सिद्धांतों को सार रूप में प्रस्तुत करने का हर संभव प्रयास किया गया है। योग
सूत्र इसी प्रकार का एक बहुत ही महत्वपूर्ण एवं सुव्यवस्थित ग्रंथ है।
इसका परिचय प्राप्त करने के लिए आईये, सर्वप्रथम योग सूत्र के संकलनकर्ता महर्षि पतंजलि के विषय में जानें-
विद्वानों के अनुसार
पतंजलि नाम के आचार्य का विवरण मुख्य रूप से तीन संदर्भों में प्राप्त होता है-
1. योग सूत्र के रचयिता के संदर्भ में
2. पाणिनी व्याकरण के महाभाष्यकार के संदर्भ में
3. आयुर्वेद के किसी
संदेहास्पद ग्रंथ के रचयिता के संदर्भ में
इस विषय में एक बड़ा
सुन्दर एवं प्रसिद्ध श्लोक मिलता है-
योगेन चित्तस्य पदेन वाचामलं शरीरस्यच वैद्यकेन ।
योऽपाकरोत्तं प्रवरं
मुनीनां पतंजलि प्राञ्जलिरानतोऽस्मि ।।
- जिसका अर्थ है कि मैं ऐसे पतंजलि मुनि को करबद्ध होकर प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने योग के द्वारा चित्त की शुद्धि, व्याकरण द्वारा वचन शुद्धि और आयुर्वेद द्वारा शरीर की शुद्धि का उपाय बताया । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि इन तीनों कार्यों का श्रेय पतंजलि मुनि को जाता है।
- यह मान्यता प्राचीन काल से ही प्रचलन में है और भर्तृहरि, भोजराज, समुद्रगुप्त आदि महान विभूतियों ने इस श्लोक को अनेक बार दोहराया है।
पतंजलि के विषय में विद्वानों के अलग-अलग मत हैं-
- एक प्रचलित मान्यता में पतंजलि को शेषनाग का अवतार बताया जाता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि ये कश्मीर में रहने वाले नागू जाति के ब्राह्मणों के बीच पैदा हुए थे । अद्भुत शास्त्र ज्ञान एवं प्रकाण्ड पण्डित होने के कारण इनको एक हजार जीभ वाली शेषनाग अवतार की काल्पनिक उपाधि मिल गई होगी।
- कहीं पर ऐसा विवरण भी है कि पतंजलि अपने शिष्यों को पर्दे के पीछे से पढ़ाते थे और पर्दा उठाकर न देखने के कड़े निर्देश थे ।
- एक दिन किसी ने जिज्ञासा वश पर्दा उठाकर देख लिया, तो उन्होंने अपनी एक हजार जिह्वाओं से विष फेंककर सबकुछ नष्ट कर दिया। भाग्यवश कोई एक आदि छात्र बचकर भाग आया, जिसके बाद उनके उपदेशों का संग्रह हुआ।
- कहीं इस प्रकार की दंतकथा भी मिलती है, कि एक बार प्रातःकाल एक ब्राह्मण नदी में खड़े होकर सूर्य को अर्ध्य दे रहे थे तभी उनकी अंजलि में एक बालक आ गिरा, जिसके कारण इनका नाम पतंजलि पड़ा ।
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