स्वदर्शन' ध्यान साधना अभ्यास | योग-विज्ञान में चक्रों के नाम| Swadarshan Dhyan Saadhna Abhyaas
स्वदर्शन' ध्यान साधना अभ्यास
स्वदर्शन' ध्यान साधना अभ्यास
'स्वदर्शन' ध्यान साधना का एक बहुत ही महत्वपूर्ण अभ्यास है जिसका अर्थ है - स्वयं अपने अंदर दर्शन करना तथा एकाग्रचित होकर अपने में ही स्थिर हो जाना।
स्वदर्शन' ध्यान क्रिया विधि
सर्वप्रथम पद्मासन या सुखासन में बैठ जाइए। शरीर को सुखपूर्वक स्थिति में रखिए और मेरूदंड को सीधा कर लीजिए। आँखें बंद कर लीजिए। अपने शरीर को स्थिर रखिए तथा स्वयं को हर तरह के तनाव से मुक्त कर लीजिए।
आइए, अब आंतरिक भावना से अपने शरीर के बारे में विचार करें। हमारा यह शरीर पांच महाभूतों के मेल से बना है। (शरीर = पृथ्वी + जल + अग्नि + वायु + आकाश ) । मैं पृथ्वी नहीं, = पृथ्वी का साक्षी हूँ। मैं जल नहीं, जल का साक्षी हूँ। मैं अग्नि नहीं, अग्नि का साक्षी हूँ। मैं वायु नहीं, वायु का साक्षी हूँ। मैं आकाश नहीं, आकाश का साक्षी हूँ। मैं समस्त पंचमहाभूतों का साक्षी हूँ, मैं देख रहा हूँ। मैं शरीर में उनका अनुभव कर रहा हूँ।
योग-विज्ञान में चक्रों के नाम
हमारे शरीर में छह मनोशक्ति केन्द्र हैं। इन्हीं के मूल में पंचमहाभूतों की स्थिति है। इन केन्द्रों में को योग-विज्ञान में चक्रों के नाम से जानते हैं:
1. मूलाधार चक्र -
यह शरीर के नीचे आधार में गुदाद्वार से लगभग डेढ़ इंच ऊपर है । इस स्थान पर हम पृथ्वी तत्व की उपस्थिति का अनुभव करते हैं।
2. स्वाधिष्ठान चक्र -
यह योनि का स्थान है, यहाँ हम जल तत्व की उपस्थिति का अनुभव करते हैं।
3. मणिपुर चक्र -
नाभि स्थान के अंदर है। यहाँ अग्नि तत्व है और सभी नाड़ियों का केन्द्र है।
4. अनाहत चक्र-
यह भावना का केन्द्र है, जो हृदय भाग के अंदर स्थित है। यह वायु तत्व का क्षेत्र है, जो प्राण शक्ति का ईंधन है। हमारे शरीर के रोम-रोम में प्राण शक्ति का संचार इसी स्थान से रक्त कणों के माध्यम से होता रहता है।
5. विशुद्धि चक्र –
यह आकाश तत्व का प्रतीक है। यह कण्ठ के अंदर वाणी के स्थान पर स्थित है। इसी स्थान से स्वर निकलता है ।
6. आज्ञा चक्र –
यह भूमध्य (तिलक का स्थान ) के सामने खोपड़ी के अंदर स्थित है। - समस्त नाड़ियों के लिए आदेश यहीं से मिलता है। हमारे मस्तिष्क के उर्ध्व भाग में सहस्रार की स्थिति है। यह मंगलमय भगवान शिव का निर्मल स्थान है। इस स्थान से विभिन्न अनुभूतियों को प्राप्त करते हैं और परमानन्दित होते है।
- पंचभूतों से निर्मित शरीर मेरा है किन्तु मैं शरीर नहीं हूँ बल्कि शरीर में निवास करने वाली दिव्य शक्ति का अंश हूँ। मेरा यह शरीर पूर्ण रूप से स्थिर हो चुका है। इसमें किसी प्रकार का विकार नहीं है।
- यह पूर्ण रूप से शांत हो चुका है, शिथिल हो चुका है। मैं सत्-चित्त-आनंद स्वरुप इस शरीर में विराजमान हूँ। मेरा सूक्ष्म स्वरुप अखिल ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। मैं सत्-चित्त-आनंद रूप ब्रह्म का साक्षी हूँ। अनन्त हूँ और अविनाशी हूँ। ऐसे ही भाव से हमें अभिभूत होना चाहिए।
लाभ
शरीर को शान्ति-सुख मिलता है । शरीर पर पूरा नियंत्रण रहता है। मन एकाग्र होता है; सांसारिक मोह-माया से अलग रखने में हमारी मदद करता है।
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