विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षुत्व | Vivek Varagya Shatsamapti aur mumushutv
विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षुत्व
1. भारतीय शास्त्रों में चतुष्टय के रूप में विख्यात चारों साधनों के नाम लिखिए।
2. वैराग्य क्या है ?
3. षट्सम्पति से क्या तात्पर्य है?
विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षुत्व
भारतीय शास्त्रों में परम पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति हेतु विभिन्न साधनों का उल्लेख किया गया है। उनमें साधन चतुष्टय के रूप में विख्यात विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षुत्व को विशेष स्थान प्राप्त है । इनके माध्यम से साधक तत्व ज्ञान की प्राप्ति करके विरक्ति की ओर अग्रसर हो जाता है तथा साधन रूप में शम, दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा व समाधान को अपनाकर उसका मुमुक्षुत्व दृढ़ हो जाता है। तब निश्चय ही मोक्ष रूपी परमपद की प्राप्ति सम्भव होती है । अतः इनके पालन के लिए साधक को निर्देश दिया गया है ।
विवेक क्या होता है अर्थ एवं व्याख्या
- मानवीय जीवन में विवेक का महत्वपूर्ण स्थान है। जो व्यक्ति विवेकयुक्त कार्य करते हैं उन्हें सफलता अवश्य प्राप्त होती है। विवेकहीन व्यक्ति ही संसार में असफलता को प्राप्त करते हैं। यह तो विवेक का लौकिक दृष्टिकोण हुआ। किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से विवेक का तात्पर्य है नित्यानित्यवस्तु विवेक विवेक से तात्पर्य नित्य वस्तु एक मात्र ब्रह्म ही है। ब्रह्म के अतिरिक्त समस्त जगत अनित्य है, मिथ्या है। यही नित्यानित्यवस्तुविवेक है। आचार्य शंकर ने विवेक चूड़ामणि में लिखा है कि ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्ये त्येवं रूपो विनिश्यः सोऽयं नित्यानित्यवस्तुविवेकः समुदाहृतः । अर्थात् ब्रह्म सत्य है, और जगत् मिथ्या है, ऐसा जो निश्चय है, यही नित्यानित्यवस्तु विवेक कहलाता है।
- यह जो संसार दिखायी देता है, वह माया से उत्पन्न माना गया है। माया से उत्पन्न संसार नाशवान है। इसलिए यह अनित्य और मिथ्या है। माया का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। ब्रह्म की सत्ता से ही वह सत्तायुक्त है। जिस प्रकार हमारा शरीर इस ब्रह्माण्ड का एक अंश मात्र है। इस शरीर में जब तक चैतन्य स्वरूप आत्मा निवास करती है, तभी तक वह जीवित तथा उसका अस्तित्व बना रहता है। शरीर से आत्मा के निकलते ही शरीर निश्चेष्ट होकर पड़ा रह जाता है और अन्त में नष्ट कर दिया जाता है। ठीक इसी प्रकार से इस विश्व ब्रह्माण्ड के भीतर भी एक आत्मा है जिसे ब्रह्म नाम से जाना जाता है। जब तक उसका संयोग ब्रह्माण्ड के साथ बना रहता है, तब तक ही जगत का अस्तित्व बना रहता है। उसके पश्चात् यह भी नष्ट हो जाता है। जिस प्रकार इस शरीर की अवधि है उसी प्रकार इस जगत की अवधिपूर्ण होने पर नष्ट होकर अव्यक्त अवस्था में चला जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि एकमात्र ब्रह्म ही सत्य वस्तु है। इस प्रकार सत्य वस्तु ब्रह्म है, इसका निश्चय कर लेना ही विवेक है।
- इस संसार में रहते हुए इस अनित्य, नाशवान नाम रूप जगत को सत्य न मानकर विवेकशील व्यक्ति आचरण करता है तो लिप्त न होने के कारण इससे स्वयं को अलग रूप में जान लेता है। आत्म तत्व नष्ट होने वाला नही है, तथा समस्त सृष्टि भी सदा रहने वाली नहीं है। इसलिए शरीर, इन्द्रियां, मन, बुद्धि, समस्त भोग, ऐश्वर्य आदि नाशवान होने से त्याज्य हैं। इसका विवेक ज्ञान बुद्धि में उत्पन्न हो जाता है तो वैराग्य भाव दृढ़ हो जाता है।
वैराग्य क्या होता है अर्थ एवं व्याख्या
वैराग्य के विषय में कहा गया है- इहस्वर्गभोगेषु इच्छाराहित्यम्/अर्थात् इस लोक और स्वर्ग आदि दिव्य लोकों के भोगों की इच्छा का परित्याग कर देना ही वैराग्य है। आचार्य शंकर लिखते हैं तद्वैराग्यं जुगुप्सा या दर्शनश्रवणादिभिः । देहादिब्रह्मपर्यन्ते ह्यनित्ये भोगवस्तूनि । अर्थात् देखे एवं सुने हुए भोगों को देह से लेकर ब्रह्मलोकपर्यन्त सम्पूर्ण नाशवान भोग्य पदार्थों में जो घृणाबुद्धि है, वही वैराग्य है। जो मुमुक्षु हैं, वे वैराग्य भाव उत्पन्न करके ही उसकी ओर बढ़ सकते हैं। बिना वैराग्य के इस संसार में ही पुनः जन्म-मरण के चक्र में पड़े रहना पड़ता है।
षट्सम्पत्ति क्या होती है अर्थ एवं व्याख्या
षट्सम्पत्ति से तात्पर्य है शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान। इनका वर्णन निम्नानुसार है-
शम-
- मन का निग्रह करना शम कहलाता है। शम के विषय में कहा गया है- शमो नाम अन्तरिन्द्रिनिग्रहः अर्थात् शम से तात्पर्य है- "अन्तरिन्द्रिय निग्रह करना" अन्तरिन्द्रिय मन को कहा जाता है। शम को परिभाषित करते हुए आचार्य शंकर ने लिखा है- विरज्य विषयव्रताद् दोषदृष्ट्या मुहुर्मुहुः । स्वलक्ष्ये नियतावस्था मनसः शम उच्यते । अर्थात् बारम्बार दोष-दृष्टि करने से विषय-समूह से विरक्त होकर चित्त का अपने लक्ष्य में स्थिर हो जाना ही "शम" कहलाता है।
दम-
- दम के विषय में कहा गया है दमो नाम बाइयेन्द्रिय निग्रहअर्थात् बाह्य इन्द्रियों का निग्रह करना ही दम कहलाता है। शंकराचार्य जी ने दम को परिभाषित करते हुए लिखा है कि विषेभ्यः परावर्त्य स्थापनं स्वस्वलोके । उभयेषामिन्द्रियाणां स दमः परिकीर्तितः । अर्थात् कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनों को उनके विषयों से खींचकर अपने-अपने गोलकों में स्थित करना दम कहलाता है। इन्द्रियों से ही हम विषय-भोगों का सेवन करते हैं । इन्द्रियों का संयम करना दम के अन्तर्गत आता है।
उपरति-
- उपरति का अर्थ है उपराम हो जाना, विरति हो जाना। वस्तु की प्राप्ति होने पर भी उदासीन भाव धारण कर लेना उपरति है। इन्द्रियों को विषयों से विमुख कर सब कामनाओं का त्याग करना भी उपरति कहलाता है। आचार्य शंकर ने उपरति के विषय में कहा है कि उपरमः कः? स्वधर्मानुष्ठानमेव । अर्थात् उपरम किसे कहते हैं? इस प्रकार का उत्तर देते हुए कहते हैं कि स्वधर्म यानि अपने धर्म का अनुष्ठान करना। अर्थात् जगत के विषयों में जो अनुराग है उसका परित्याग करके चित्त को स्वस्थ बनाकर अन्तरात्मा में लगाये रखना, इसी का नाम उपरति है।
तितिक्षा-
- तितिक्षा का दूसरा नाम तप भी है। समस्त कष्टों, कठिनाइयों को सहन करना “तितिक्षा" कहलाता है। शीत, उष्ण, सुख, दुःख, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों को सहन करना ही तितिक्षा कहलाता है। आचार्य शंकर ने तितिक्षा के विषय में लिखा हैं सहनं सर्वदुःखानामप्रतीकारपूर्वकम् । चिन्ताविलापरहितं सा तितिक्षा निगद्यते । अर्थात् चिन्ता और शोक से रहित होकर बिना प्रतिकार किये सब प्रकार के कष्टों को सहन करना तितिक्षा कहलाता है। महर्षि पतंजलि ने तप का फल बताते हुए कहा है कि तप के प्रभाव से शरीर की अशुद्धियों का क्षय हो जाता है तथा इन्द्रियों पर नियंत्रण प्राप्त हो जाता है।
श्रद्धा-
- वेद, वेदान्त एवं गुरु के कहे वाक्यों में दृढ़ निष्ठा एवं अटल विश्वास का नाम श्रद्धा है। जैसे कहा गया है " गुरुवेदान्तवाक्यादिषु विश्वासःश्रद्धा अर्थात् अपने गुरु, वेद, वेदान्त आदि शास्त्रों के वाक्यों में जो दृढ़ विश्वास है, आस्था है, उसे ही श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा जहां होती है वहां समर्पण होता है। श्रद्धा में संशय नहीं होता है। जहां संशय होता है, वहां श्रद्धा नहीं हो सकती । संशयरहित निश्चयात्मक स्थिति होना उत्थान का कारण है, इसी का नाम श्रद्धा है।
समाधान-
- चित्त की एकाग्रता का नाम समाधान है। चित्त में अनेक प्रकार के मल - विक्षेपों तथा संस्कारों के आवरणों के कारण वह चंचल, चलायमान रहता है। परन्तु मलों के क्षीण हो जाने पर चित्त स्वस्थ, एकाग्र और प्रशांत हो जाता है। तप, तितिक्षा, योगसाधनादि और गुरुसेवा के द्वारा मल-विक्षेपों को दूर कर लिया जाता है। तभी चित्त स्थिर होकर आत्मानुसंधान में लग जाता है। आचार्य शंकर ने समाधान को परिभाषित करते हुए लिखा है सर्वदा स्थापनं बुद्धेः शुद्धे ब्रह्मणि सर्वथा। तत्समाधानमित्युक्तं न तु चित्तस्य लालनम् । अर्थात् अपनी बुद्धि को सब प्रकार शुद्ध ब्रह्म में ही सदा स्थिर रखना, इसी को समाधान कहा है। चित्त की इच्छापूर्ति का नाम समाधान नहीं है।
मुमुक्षुत्व क्या होता है अर्थ एवं व्याख्या
- संसार दुःखमय है, ऐसा सभी आप्तपुरुषों ने माना है । आध्यात्मिक दुःख, आधिभौतिक दुःख और आधिदैविक दुःख ये तीन दुःख या त्रिताप कहे गये हैं। इन्हीं तीनों दुःखों, त्रितापों से समस्त प्राणि त्रस्त, संतप्त है। अतः इस दुःखमय संसार से तर कर मोक्षरूप अमृत की प्राप्ति करने की तीव्र इच्छा को मुमुक्षुत्व कहते हैं।
मुमुक्षुत्व अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति की तीव्र इच्छा व लालसा का होना ।
- संसार की अनित्यता (नाशवान) सुखों की क्षणिकता, विषयों की प्राप्ति की चिंताओं की दाहकता, शरीरादि की क्षणभंगुरता को जब अनुभव कर लिया जाता है तो चित्त उन विषयों और पदार्थों से विमुख हो जाता है। तीव्र वैराग्य प्रकट होने पर नित्यानंद की प्राप्ति अर्थात् मोक्ष प्राप्ति की उत्कट इच्छा प्रकट हो जाती है। उसी अवस्था को मुमुक्षत्व कहा गया है। इसलिए मुमुक्षु पुरुष परमात्मा से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि संसार बन्धनिर्मुक्तः कथमेस्यात्कदाविभो । अर्थात् हे विभो! इस संसार में बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप संसार बन्धन से मेरी कब और कैसे मुक्ति होगी? इस प्रकार संसार बन्धन से मुक्त होकर परम पद मोक्ष की प्राप्ति के लिए जिस पुरुष को उत्कट आकांक्षा या उत्कण्ठा जाग उठी हो, उसे ही मुमुक्षु पुरुष कहते हैं.
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