हठयोग में चक्र क्या होता है |सात चक्रों का संक्षिप्त विवरण | What is Chakra in Yoga
हठयोग में चक्र क्या होता है (What is Chakra in Yoga)
हठयोग में चक्र क्या होता है
हठयोग में एकाग्रता का केन्द्र बिन्दु 'चक्र' होते है। तन्त्र और हठयोग परम्परा में चक्रों की संख्या सात मानी गयी है। चक्र का शाब्दिक अर्थ गोलाकार होता है। हठयोग और तंत्र परम्परा में चक्रों को ऊर्जा का केन्द्र माना जाता है, जिसके माध्यम से अंतरिक्ष ब्रह्माण्ड की ऊर्जा मानव शरीर में प्रवाहित होती है, ये चक्र हमारे शरीर में वे विशेष स्थान हैं, जहाँ से संपूर्ण शरीर में व्याप्त प्राणों को नियंत्रित किया जाता है। प्रत्येक चक्र एक स्विच की भांति होते हैं, जो मस्तिष्क के कुछ विशिष्ट क्षेत्रों को जागृत करते हैं। सामान्यतया, हमारे ये चक्र सुषुप्त तथा निष्क्रिय रहते हैं। योग का अभ्यास कर इन चक्रों में प्राण का प्रवाह बढ़ाकर, इन्हें जागृत किया जाता है, जिससे इन केन्द्रों पर बाधित ऊर्जा मुक्त होती है और साधक चेतना के उच्च स्तरों की ओर अग्रसर होता है। ये चेतना के निम्न स्तर से सर्वोच्च स्तर तक साधक को पहुंचाकर उसकी समस्त सुषुप्त शक्तियों को जागृत कर देते हैं।
सात चक्रों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
1. मूलाधार चक्र
- मूलाधार चक्र - सबसे नीचे का चक्र होने के कारण इसे आधार चक्र भी कहा जाता है। पुरुष शरीर में इसका स्थान जननेन्द्रिय और गुदा द्वार के बीच में है तथा स्त्री शरीर में गर्भाशय ग्रीवा में होता है। यह पृथ्वी तत्व का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए इसकी पंचतन्मात्रा गंध है। इसका चिन्ह गहरे लाल रंग का चतुर्दलीय कमल है, जिसकी पंखुड़ी पर वं, शं, षं तथा सं लिखा हुआ है इसके केन्द्र में पृथ्वी तत्व का यंत्र पीला वर्ग है और इसका बीज मंत्र 'ल' है।
- मूलाधार चक्र को मूल केन्द्र इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहाँ प्राथमिक महत्व की शक्ति जिसे कुंडलिनी शक्ति कहते है, निवास करती है। यह कुंडलिनी यहां सुषुप्त रूप में है जो इसके केन्द्र के अंदर स्थित शिवलिंग के चारों ओर साढ़े लपेटा लिए हुए है। संपूर्ण ब्रह्माण्डीय एवं मानवीय शक्तियों का यह केन्द्र है। इस शक्ति का प्रकटीकरण काम शक्ति, संवेदना एवं आत्मिक शक्तियों के रूप में होता है। सामान्य व्यक्ति इस शक्ति को काम शक्ति के रूप में अभिव्यक्त करता है। इसी कारण सामान्य व्यक्ति अपनी शक्ति का क्षय कर पतनोन्मुखी रहता है। योग का अभ्यास कर इस शक्ति को जगाकर साधक अपनी चेतना को उर्ध्वगामी बनाकर परम पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। हठयोग की विभिन्न क्रियाओं एवं एकाग्रता का अभ्यास कर, साधक अपनी असीम शक्ति को जागृत कर उसे ऊपर के चक्रों से ले जाते हुए अन्ततः सहस्त्रार में प्रवेश कर, पवित्र चेतना शिव से संयोग कर लेता है, यही योग है। शिव एवं शक्ति के संयोग को ही योग कहा जाता है। यही हठयोग का अंतिम लक्ष्य भी है।
2 स्वाधिष्ठान चक्र
- स्वाधिष्ठान चक्र - मूलाधार चक्र से लगभग दो अंगुल ऊपर मेरूदण्ड में जननेन्द्रिय के ठीक पीछे स्वाधिष्ठान चक्र की स्थिति है। स्वाधिष्ठान, स्व और अधिष्ठान के संयोग से बना है जिसका शब्दिक अर्थ है, स्वयं का निवास स्थान। इस चक्र का चिन्ह तेज लाल रंग का षट्दलीय पद्म है। दलों पर मंत्र - बं, भं, मं, यं, रं, लं लिखा हुआ है। इसका बीज मंत्र 'वं' है। यह जल तत्व का प्रतिनिधि चक्र है। जिसकी तन्मात्रा रस है.
- प्रिय शिक्षार्थियों, स्वाधिष्ठान चक्र का प्रमुख संबंध, उत्सर्जक एवं प्रजनन अंगों से है। वस्तुतः यह इन्द्रिय सुखोपभोग की अभिलाषा का प्रतीक है अर्थात इस स्तर में आरूढ़ व्यक्ति इन्द्रिय सुखोपभोग की लालसा में ही प्रयासरत रहता है। इस स्तर का व्यक्ति स्वादिष्ट भोजन, मद्य सेवन तथा मैथुन में ही संलग्न रहता है, इस कारण उसकी शक्ति अतीनिद्रय स्तर की सुखानुभूति से वंचित रह जाती है। यह चक्र अचेतन मन का स्थान है। इस केन्द्र का शुद्धिकरण कर मनुष्य पाशविक प्रवृत्ति से ऊपर उठ कर उर्ध्वगामी हो जाता है।
3 मणिपुर चक्र
- मणिपुर का शब्दिक अर्थ मणियों का नगर होता है। मणि का एक अर्थ अतीव प्रकाश भी होता है, जो व्यक्ति की उर्जा एवं आभा का प्रतीक है। यह अग्नि तत्व का केन्द्र है जिसकी तन्मात्रा रूप है । मणिपुर चक्र का वर्ण दस दलों वाले पद्म के रूप में होता है, जिसका रंग पीला है। इन दलों पर डं, ढं, णं, तं, थं, दं, धं नं पं फं अंकित हैं। बीज मंत्र 'र' है ।
- मणिपुर चक्र की स्थिति, नाभि के पीछे, रीढ़ में होती है, जिसका संबंध पाचन तथा भोजन के अवशोषण से होता है। इसके अतिरिक्त यह अग्नाशय, पित्ताशय तथा पाचक द्रव, अम्ल, रस आदि के श्राव का नियन्त्रण करता है। मणिपुर चक्र, किडनी के ऊपर स्थित एड्रिनल ग्रंथि का भी नियंत्रण करता है। जो लोग आलस्य, सुस्ती, निराशा, अवसाद, अपचन और मधुमेह से पीड़ित है, उन्हें मणिपुर चक्र पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। यहां प्राण एवं अपान का मिलन होता है, जिसके परिणामस्वरूप आवश्यक ताप की उत्पत्ति होती है जो जीवन रक्षा के लिए अनिवार्य है।
4 अनाहत चक्र
- अनाहत का शाब्दिक अर्थ आहत रहित या आद्यात रहित होता है। भौतिक जगत की समस्त ध्वनियां, दो वस्तुओं के टकराव से होती हैं। परन्तु हठयोग की मान्यतानुसार भौतिक जगत के परे की ध्वनि आहत रहित होती है। इसे ही अनाहत ध्वनि कहते हैं। हृदय केन्द्र वह स्थान है, जहां से ये ध्वनियां उत्पन्न होती है। हठयोगी इस आंतरिक ध्वनि की तरंगों को ग्रहण करता है। यह वक्ष के केन्द्र में पीछे मेरूदण्ड में स्थित होता है।
- अनाहत चक्र बारह दल वाले नीले कमल के रूप में दर्शाया जाता है। दलों पर अंकित वर्ण हैं कं, खं, गं, घं, डं, चं, छं, जं, झं, ञ, टं ठं यह चक्र वायु तत्व का प्रतिनिधित्व करता है, जिसकी तन्मात्रा स्पर्श है। इसका बीज मंत्र 'यं' है ।
- भौतिक स्तर पर अनाहत चक्र का सम्बंध हृदय व फेफड़ों से है। साथ ही इसका रुधिर एवं श्वसन संस्थान से भी इसका सम्बंध पाया जाता है। इस प्रकार शिक्षार्थियों, हृदय रोग, रक्तचाप की समस्या, क्षय रोग (टी.बी.) और अस्थमा आदि रोग, इस चक्र से सम्बंधित हैं। अनाहत चक्र पर मन को एकाग्र करने से, उक्त रोगों से निजात मिलती है। यह निःस्वार्थ प्रेम, करुणा, मातृत्व तथा क्षमाशीलता विकसित करता है।
5 विशुद्धि चक्र
- विशुद्धि का शाब्दिक अर्थ है विशेष रूप से शुद्ध । चूंकि इस चक्र पर शुद्धिकरण (मन एवं शरीर ) की प्रक्रिया बहुत तेज हो जाती हैं, इसलिए ही इसे विशुद्धि चक्र कहा जाता है। यह चक्र गर्दन के पीछे कण्ठ कूप के पीछे, मेरूदण्ड में स्थिति होता है। इसका सांकेतिक चिन्ह सोलह पंखुड़ियों वाला कमल दल है, जिसका रंग जामुनी मिश्रित धुएं का रंग है। इन दलों पर अं, आं, इ, ई, उ, ऊं ऋ, ऋ, ऌ, एं, ऐ, ओ, औं, अं, अः स्वर अंकित हैं। इसका बीज मंत्र 'हं' है। यह आकाश तत्व का प्रतिनिधित्व करता है तथा इसकी तन्मात्रा शब्द है ।
- विशुद्ध चक्र विवेक एवं सही समझ जागृत करने का स्थान है। यह कंठ नलिका, लैरिन्क्स, थायराइड एवं पैराथायराइड ग्रंथियों का नियमन करता है। शरीर के इन अंगों में उत्पन्न रोगों को, इस चक्र पर एकाग्रता करने से ठीक किया जा सकता है। ग्रीवा का यह केन्द्र वह स्थान है, जहां दिव्य रस अमृत का पान किया जा सकता है। खेचरी मुद्रा के अभ्यास द्वारा इस रस की ग्रंथि को क्रियाशील बनाया जा सकता है।
6 आज्ञाचक्र
- आज्ञा का शाब्दिक अर्थ आदेश होता है। चेतना की गहन अवस्था में इस चक्र से आदेश दिया जाता है, जो शरीर के समस्त अंगों तक पहुंचता है, इसी कारण इसे आज्ञाचक्र कहते हैं। मध्य मस्तिष्क में, भूमध्य के पीछे मेरूदण्ड के शीर्ष पर, इस चक्र की स्थिति है। इस चक्र को तीसरा नेत्र, ज्ञान, चक्षु, त्रिकुटी, त्रिवेणी, भूमध्य, गुरूनेत्र या शिव चक्र कहते हैं। यह चक्र कमल की दो पंखुडियों के रूप में दर्शाया जाता है। ये दो पंखुडियां सूर्य तथा चन्द्र, पिंगला तथा इड़ा का प्रतीक हैं । इसका रंग हल्का भूरा या सफेद है। दलों पर हं, क्षं लिखा होता है, जो प्राणशक्ति के ऋणात्मक एवं धनात्मक प्रवाह का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसका बीज मंत्र ऊँ है । इस चक्र का तत्व मन है जब आज्ञा चक्र जागृत होता है, तब मन स्थिर एवं शक्तिशाली हो जाता है, तथा प्राणों के ऊपर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त होता है। यह चक्र अतीमानसिक शक्तियों जैसे- अतीन्द्रिय दृष्टि, अतीन्द्रिय श्रवण तथा दूर संवेदन के जागरण के लिए उत्तरदायी होता है।
7 सहस्रार
- सहस्त्रार का शाब्दिक अर्थ एक हजार होता है। इसका प्रतीक एक हजार दल वाले प्रकशित कमल के रूप में है। यह सिर के शीर्ष भाग, जहां छोटे बच्चे की कोमल अस्थि होती है, पर अवस्थित होता है। वस्तुतः यह चक्र नहीं, बल्कि उच्च चेतना का निवास स्थान है कमल के केन्द्र पर, एक उज्जवल शिवलिंग है। जो पवित्र चेतना का प्रतीक है। यह अनादि - अंनत एवं असीम चेतना का स्थान होता है। यह वही स्थल है जहां शिव-शक्ति का योग, चेतना का शक्ति से संयोग तथा व्यक्तिगत आत्मा का असीम आत्मा से मिलन होता है। यही हठयोग का परम लक्ष्य है। प्रकृति का पुरुष से मिलन ही योग है। इसे ही कुण्डलिनी जागरण कहते हैं।
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