योग में मुद्रा-बन्ध का अर्थ प्रकार विधि लाभ | Yog Mudra Bandh Ka Arth Prakar Vidhi Laabh
योग में मुद्रा-बन्ध का अर्थ प्रकार विधि लाभ
योग में मुद्रा-बन्ध का अर्थ
बंध का अर्थ है बांधना या नियंत्रित करना । इस प्रक्रिया में शरीर के विभिन्न आन्तरिक अवयवों को नियंत्रित कर साधना की जाती है।
योग में मुद्रा-बन्ध के प्रकार
i) जालन्धर बन्ध विधि लाभ सावधानियाँ
जालन्धर बन्ध गले से संबंधित होता है । जाल का अर्थ है - जाला, जाली, झंझरी । कंठ क्षेत्र का बंधन जालन्धर बन्ध के द्वारा होता है। कंठ एक ऐसा क्षेत्र है जिससे होकर शरीर की सभी नाड़ियां सिर में प्रवेश करती हैं। पूरे शरीर का संबंध कंठ से होता है।
घेरण्ड संहिता में जालन्धर बन्ध की विधि का वर्णन इस प्रकार मिलता है -
कण्ठसंकोचनं कृत्वा चिबुकं हृदये न्यसेत् ।
जालन्धरेकृते बन्धे षोडशाधारबन्धनम् ।।
अर्थात कंठ संकोच करें और हृदय पर ठुड्डी को रखें तो उसे जालन्धर बन्ध कहते हैं।
विधि
- सर्वप्रथम किसी भी ध्यानात्मक आसन में बैठते हैं। सिर एवं मेरूदंड सीधा रखते हैं। दोनों हथेलियों को घुटने पर रखते हैं। इसके बाद धीरे-धीरे श्वास भरते हैं, श्वास भरकर रोकते हैं फिर कंठ को संकुचित कर ठुड्डी को छाती (कंठ के मूल भाग में) से लगाने का प्रयास करते हैं।
- घुटनों पर हथेलियों से दबाव डालते हुए भुजाओं को सीधा करते हैं। जब तक आराम से श्वास अंदर रोक सकें तब तक रोके रखें। इसके बाद कंधों, भुजाओं को शिथिल कर, सिर को ऊपर उठाते हैं, तत्पश्चात श्वास को धीरे-धीरे छोड़ते हैं। इसको चार बार दोहरा सकते हैं।
लाभ
- थायराइड ग्रंथि के कार्यों को संतुलित करने के लिए इसका अभ्यास लाभदायक है;
- शरीर के विकास के लिए लाभदायक है;
- चयापचय क्रिया संतुलित होती है;
- सिर में रक्त संचार की मात्रा बढ़ती है।
सावधानियां
- सर्वाइकल स्पॉण्डिलाइटिस, उच्च रक्तचाप तथा हृदय रोगियों को इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए ।
ii) उड्डियान बन्ध विधि लाभ सावधानियाँ
उड्डियान का अर्थ होता है 'उड़ना', ऊपर उठाना आदि । उड्डियान बन्ध के द्वारा प्राण ऊर्जा को ऊपर की ओर उठाया जाता है।
घेरण्ड संहिता में इसकी विधि निम्नानुसार दी गई है -
उदरे पश्चिमं तानं नाभिरुष्टर्वंतु कारयेत् ।
उड्डीनं कुरुते यस्माद् विश्रातं महाखगः ।।
अर्थात नाभि के ऊपर उदर को पीठ की ओर समभाव में सिकोड़ें, जिसके परिणामस्वरूप महाखग (प्राण) ऊपर उठता है। इसे उड्डियान बन्ध कहते हैं।
उड्डियान बन्ध विधि
- किसी भी ध्यानात्मक आसन जैसे पद्मासन, सिद्धासन, सुखासन आदि में सिर व मेरूदंड सीधा करके बैठते हैं। हथेलियां घुटने के ऊपर रखते हैं। आंखें बंद कर पूरे शरीर को ढीला छोड़ देते हैं। नासिका से धीरे-धीरे गहरी श्वास लेकर फिर श्वास को छोड़ते हैं। फेफड़ों को संपूर्ण रूप से खाली करने का प्रयास करते हैं। श्वास को बाहर रोककर अर्थात बिना श्वास लिए ही हाथ सीधे करके कंधों को ऊपर उठाते हैं साथ ही जालन्धर बन्ध लगाते हैं। पेट की मांसपेशियों को संकुचित करके नाभि को भीतर ऊपर की ओर उठाते हैं। इस स्थिति में जब तक सहजता अनुभव करें तब तक रहते हैं। फिर इसके बाद पेट की मांसपेशियों को ढीलाकर, कोहनियों से मोड़ते हैं। कंधों को सामान्य करके जालन्धर बंध खोलते हैं, फिर धीरे-धीरे श्वास लेते हैं। श्वास-प्रश्वास को सामान्य करते हैं। जब श्वास-प्रश्वास सामान्य हो जाए तो फिर से दोहराते हैं ।
लाभ
- पाचन संस्थान स्वस्थ होता है, जठराग्नि तीव्र होती है;
- फेफड़ों की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है; आलस्य तनाव चिंता कम होती है।
- अमाशय एवं आन्त्र व्रण, हर्निया, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, ग्लूकोमा, सिरदर्द से पीड़ित व्यक्तियों को इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए।
iii) मूलबन्ध विधि लाभ सावधानियाँ
मूलबन्ध अर्थात शरीर का मूल स्थान जहाँ गुदा होता है। वहाँ अपान प्राण स्थित होता है। अपान प्राण के उर्ध्वगमन के लिए इसका अभ्यास किया जाता है।
घेरण्ड संहिता में इसकी विधि निम्नानुसार है:
पढिर्णना वामपादस्य योनिमाकुन्चयिततः
नाभिग्रंथि मेरूदण्डे सुधीः संपीडय यत्नतः ।
मेद्रं दक्षिणगुल्फेन दृढ़बन्धं समाचरेत
जराविनाशिनी मुद्रा मूलबन्धे निगद्यते ।।
अर्थात्
बाईं एड़ी से गुहा प्रदेश को संकुचित करें और प्रयत्नपूर्वक मेरूदण्ड में नाभि-ग्रंथि को लगाकर दबाएं और दाई एड़ी से उपस्थ को दृढ़तापूर्वक दबा लें। यह मूलबंध है जिसके अभ्यास से वृद्धावस्था नष्ट होती है।
विधि
- सर्वप्रथम किसी भी ध्यानात्मक आसन में सिर, कमर सीधा करके बैठ जाते हैं। आंखें को बंद कर दोनों हाथों को ज्ञान मुद्रा अथवा किसी अन्य मुद्रा में रख लेते हैं ।
- थोड़ी देर सामान्य श्वास-प्रश्वास करते हैं। फिर अपना ध्यान गुदा प्रदेश पर ले जाते हैं। गुदा प्रदेश की मांसपेशियों को ऊपर की ओर संकुचित करते हैं, थोड़ी देर इस अवस्था में रहते हैं, फिर मांसपेशियों को ढीला छोड़ दिया जाता है। यह प्रक्रिया पुनः दोहराई जाती है। इस प्रक्रिया में श्वास-प्रश्वास सामान्य रहता है।
लाभ
- इसका अभ्यास उत्सर्जन एवं प्रजनन तंत्र को स्वस्थ बनाता है;
- कब्ज, बवासीर आदि रोग नहीं होते हैं,
- शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होते हैं;
- ब्रह्मचर्य पालन में सहायक होता है।
- गुदा प्रदेश से संबंधित गंभीर रोगों में इसे परामर्शक के निर्देशन में ही सम्पन्न करें।
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